HI/Prabhupada 0635 - आत्मा हर शरीर में है, यहां तक कि चींटी के भीतर भी: Difference between revisions
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भक्त: अनुवाद: हे भरतवंशी शरीर में रहने वाला (देही) शाश्वत है अौर उसका कभी भी वध नहीं किया जा सकता । अत: तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की अावश्यकता नहीं है । " | भक्त: अनुवाद: हे भरतवंशी शरीर में रहने वाला (देही) शाश्वत है अौर उसका कभी भी वध नहीं किया जा सकता । अत: तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की अावश्यकता नहीं है ।" | ||
प्रभुपाद: देही नित्यम अवध्यो | प्रभुपाद: देही नित्यम अवध्यो अयम देहे सर्वस्य भारत | देहे, देहे का मतलब है शरीर, शरीर के भीतर । यह विषय शुरू हुअा, देहोनो अस्मिन यथा देहे कौमारम यौवनम् जरा ([[HI/BG 2.13|भ.गी. २.१३]]) । देही, देही । देही का मतलब है वह जो शरीर रखता है । जैसे गुणी । अास्थते प्रात में (?) । व्याकरण । गुण, में, देह, प्रात में (?) देहिन शब्द । तो देहिन शब्द में कर्ता है देही । देही नित्यम, शाश्वत । कई तरीको से, कृष्ण नें समझाया है । नित्यम, शाश्वत । अविनाशी, अपरिवर्तनीय । यह जन्म नहीं लेता है, यह मरता नहीं है, यह लगातार, हमेशा वही रहता है । न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]) । | ||
इस तरह से, फिर से वह कहते हैं नित्यम, शाश्वत । अवध्य, कोई नहीं मार सकता है । शरीर में, वह है । लेकिन देहे सर्वस्य भारत । यह बहुत महत्वपूर्ण है । एसा नहीं है कि केवल मानव शरीर में आत्मा है अौर दूसरे शरीर में नहीं । यही धूर्तता है । सर्वस्य । हर शरीर में । यहां तक कि चींटी के भीतर भी, यहां तक कि हाथी के भीतर भी, यहां तक कि विशाल बरगद के पेड़ के भीतर भी या सूक्ष्म जीव के भीतर भी । सर्वस्य । आत्मा है । लेकिन कुछ दुष्ट, वे कहते हैं कि जानवरों में कोई आत्मा नहीं है । यह गलत है । तुम कैसे कह सकते हो कि पशुअों में कोई आत्मा नहीं है ? हर कोई । | |||
यहां कृष्ण का आधिकारिक कथन: सर्वस्य । और अन्य जगह में, कृष्ण कहते हैं: सर्व-योनिषु कौन्तेय सम्भवन्ति मुर्तय: या: ([[HI/BG 14.4|भ.गी. १४.४]]) जीवन के सभी प्रजातियों में, जितने भी रूप हैं, जीवन के ८४,००,००० विभिन्न रूप हैं, तासाम महद योनिर ब्रह्म । महद योनिर । उनके शरीर का स्रोत यह भौतिक प्रकृति है । अहम बीज प्रद: पिता: "मैं बीज देने वाला पिता हूँ ।" जैसे पिता और माता के बिना कोई संतान नहीं है, तो पिता कृष्ण हैं और माता भौतिक प्रकृति है, या आध्यात्मिक प्रकृति है । दो प्रकृति हैं । सातवें श्लोक में विस्तार से कहा गया है । भौतिक प्रकृति और आध्यात्मिक प्रकृति । या परा प्रकृति या अपरा प्रकृति । | |||
जैसे हमारे शरीर में निम्न भाग और उच्च भाग हैं । शरीर वही है । लेकिन फिर भी शरीर के विभिन्न भाग हैं । उनमें से कुछ निम्न माने जाते हैं और उनमें से कुछ उच्च माने जाते हैं । यहां तक कि दो हाथ । वैदिक सभ्यता के अनुसार, दाहिना हाथ उच्च हाथ है, और बाया हाथ निम्न हाथ है । जब तुम किसी को कुछ देना चाहते हो, तो तुम्हे दाहिने हाथ से देना चाहिए । अगर तुम बाएं हाथ से देते हो, तो यह अपमान है । दो हाथों की आवश्यकता है । क्यों यह हाथ उच्च है, यह हाथ...? | |||
इसलिए हमें वैदिक आज्ञा को स्वीकार करना होगा । तो हालांकि दोनों प्रकृति, आध्यात्मिक प्रकृति और भौतिक प्रकृति, एक ही स्रोत से, निरपेक्ष सत्य से, आ रहे हैं... जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) । सब कुछ उनसे आ रहा है । फिर भी, परा प्रकृति और अपरा प्रकृति है । परा और अपरा के बीच क्या अंतर है ? अपरा प्रकृति या भौतिक प्रकृति में, भगवद भावनामृत लगभग नहीं के बराबर है । जो सत्व गुण में हैं उनमें थोड़ी भगवद भावना है । और जो रजो गुण में हैं, उनमें अौर थोडा कम । और जो तमो गुण में हैं, कोई भगवद भावनामृत नहीं है । पूरी तरह से अनुपस्थित । मात्रा । | |||
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Latest revision as of 19:00, 17 September 2020
Lecture on BG 2.30 -- London, August 31, 1973
भक्त: अनुवाद: हे भरतवंशी शरीर में रहने वाला (देही) शाश्वत है अौर उसका कभी भी वध नहीं किया जा सकता । अत: तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की अावश्यकता नहीं है ।"
प्रभुपाद: देही नित्यम अवध्यो अयम देहे सर्वस्य भारत | देहे, देहे का मतलब है शरीर, शरीर के भीतर । यह विषय शुरू हुअा, देहोनो अस्मिन यथा देहे कौमारम यौवनम् जरा (भ.गी. २.१३) । देही, देही । देही का मतलब है वह जो शरीर रखता है । जैसे गुणी । अास्थते प्रात में (?) । व्याकरण । गुण, में, देह, प्रात में (?) देहिन शब्द । तो देहिन शब्द में कर्ता है देही । देही नित्यम, शाश्वत । कई तरीको से, कृष्ण नें समझाया है । नित्यम, शाश्वत । अविनाशी, अपरिवर्तनीय । यह जन्म नहीं लेता है, यह मरता नहीं है, यह लगातार, हमेशा वही रहता है । न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ.गी. २.२०) ।
इस तरह से, फिर से वह कहते हैं नित्यम, शाश्वत । अवध्य, कोई नहीं मार सकता है । शरीर में, वह है । लेकिन देहे सर्वस्य भारत । यह बहुत महत्वपूर्ण है । एसा नहीं है कि केवल मानव शरीर में आत्मा है अौर दूसरे शरीर में नहीं । यही धूर्तता है । सर्वस्य । हर शरीर में । यहां तक कि चींटी के भीतर भी, यहां तक कि हाथी के भीतर भी, यहां तक कि विशाल बरगद के पेड़ के भीतर भी या सूक्ष्म जीव के भीतर भी । सर्वस्य । आत्मा है । लेकिन कुछ दुष्ट, वे कहते हैं कि जानवरों में कोई आत्मा नहीं है । यह गलत है । तुम कैसे कह सकते हो कि पशुअों में कोई आत्मा नहीं है ? हर कोई ।
यहां कृष्ण का आधिकारिक कथन: सर्वस्य । और अन्य जगह में, कृष्ण कहते हैं: सर्व-योनिषु कौन्तेय सम्भवन्ति मुर्तय: या: (भ.गी. १४.४) जीवन के सभी प्रजातियों में, जितने भी रूप हैं, जीवन के ८४,००,००० विभिन्न रूप हैं, तासाम महद योनिर ब्रह्म । महद योनिर । उनके शरीर का स्रोत यह भौतिक प्रकृति है । अहम बीज प्रद: पिता: "मैं बीज देने वाला पिता हूँ ।" जैसे पिता और माता के बिना कोई संतान नहीं है, तो पिता कृष्ण हैं और माता भौतिक प्रकृति है, या आध्यात्मिक प्रकृति है । दो प्रकृति हैं । सातवें श्लोक में विस्तार से कहा गया है । भौतिक प्रकृति और आध्यात्मिक प्रकृति । या परा प्रकृति या अपरा प्रकृति ।
जैसे हमारे शरीर में निम्न भाग और उच्च भाग हैं । शरीर वही है । लेकिन फिर भी शरीर के विभिन्न भाग हैं । उनमें से कुछ निम्न माने जाते हैं और उनमें से कुछ उच्च माने जाते हैं । यहां तक कि दो हाथ । वैदिक सभ्यता के अनुसार, दाहिना हाथ उच्च हाथ है, और बाया हाथ निम्न हाथ है । जब तुम किसी को कुछ देना चाहते हो, तो तुम्हे दाहिने हाथ से देना चाहिए । अगर तुम बाएं हाथ से देते हो, तो यह अपमान है । दो हाथों की आवश्यकता है । क्यों यह हाथ उच्च है, यह हाथ...?
इसलिए हमें वैदिक आज्ञा को स्वीकार करना होगा । तो हालांकि दोनों प्रकृति, आध्यात्मिक प्रकृति और भौतिक प्रकृति, एक ही स्रोत से, निरपेक्ष सत्य से, आ रहे हैं... जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) । सब कुछ उनसे आ रहा है । फिर भी, परा प्रकृति और अपरा प्रकृति है । परा और अपरा के बीच क्या अंतर है ? अपरा प्रकृति या भौतिक प्रकृति में, भगवद भावनामृत लगभग नहीं के बराबर है । जो सत्व गुण में हैं उनमें थोड़ी भगवद भावना है । और जो रजो गुण में हैं, उनमें अौर थोडा कम । और जो तमो गुण में हैं, कोई भगवद भावनामृत नहीं है । पूरी तरह से अनुपस्थित । मात्रा ।