HI/Prabhupada 0641 - एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है: Difference between revisions

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भक्त: अध्याय छह । सांख्य योग ।श्लोक नंबर एक । श्री भगवान ने कहा - जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है अौर जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी अौर असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है अौर न कर्म करता है ।" ([[Vanisource:BG 6.1|भ गी ६।१]]) तात्पर्य: इस अध्याय में भगवान बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इंद्रियों को वश में करने का साधन है । किन्तु, इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है । यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है, किन्तु भगवान बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है । इस संसार मे प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपने सामाग्री के रक्षार्थ कर्म करता है, किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ, किसी व्यक्तिगत तृप्ति के, चाहे वह तृप्ति अात्मकेन्द्रित हो या व्यापक, कर्म नहीं करता । पूणर्ता की कसौटी है - कृष्णभावनामृत में कर्म करना, कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं । कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, क्योंकि सभी लोग परमेश्वर के अंश हैं । शरीर के अंग पूरे शरीर के लिए कार्य करते हैं । शरीर के अंग अपनी तुष्टि के लिए नहीं, अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए काम नहीं करते हैं । इसी प्रकार जो जीव अपने तुष्टि के लिए नहीं, अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है, वही पर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है । कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई, अौर वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं ।"  
भक्त: अध्याय छह । सांख्य योग । श्लोक नंबर एक । श्री भगवान ने कहा - जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है अौर जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी अौर असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है अौर न कर्म करता है ।" ([[HI/BG 6.1|भ.गी. ६.१])  
 
तात्पर्य: इस अध्याय में भगवान बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इंद्रियों को वश में करने का साधन है । किन्तु, इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है । यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है, किन्तु भगवान बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है । इस संसार मे प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपने सामाग्री के रक्षार्थ कर्म करता है, किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ, किसी व्यक्तिगत तृप्ति के, चाहे वह तृप्ति अात्मकेन्द्रित हो या व्यापक, कर्म नहीं करता । पूणर्ता की कसौटी है - कृष्णभावनामृत में कर्म करना, कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं । कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, क्योंकि सभी लोग परमेश्वर के अंश हैं । शरीर के अंग पूरे शरीर के लिए कार्य करते हैं । शरीर के अंग अपनी तुष्टि के लिए नहीं, अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए काम करते हैं । इसी प्रकार जो जीव अपने तुष्टि के लिए नहीं, अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है, वही पर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है । "कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई, अौर वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं ।"  


प्रभुपाद: हर किसी के द्वारा कुछ यज्ञ किए जाते है शुद्धि होने के लिए । तो एक संन्यासी को यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए कर्मकांडी यज्ञ को रोक कर, कभी कभी वे सोचते हैं कि वे मुक्त हो गए हैं । लेकिन वास्तव में, जब तक वह कृष्ण भावानामृत के मंच पर नहीं आते हैं, मुक्ति का सवाल ही नहीं है । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: हर किसी के द्वारा कुछ यज्ञ किए जाते है शुद्धि होने के लिए । तो एक संन्यासी को यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए कर्मकांडी यज्ञ को रोक कर, कभी कभी वे सोचते हैं कि वे मुक्त हो गए हैं । लेकिन वास्तव में, जब तक वह कृष्ण भावानामृत के मंच पर नहीं आते हैं, मुक्ति का सवाल ही नहीं है । अागे पढो ।  
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भक्त: "लेकिन वस्तुत: वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना होता है ।"  
भक्त: "लेकिन वस्तुत: वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना होता है ।"  


प्रभुपाद: हाँ । मांग है । मायावादी, उनकी एक मांग है, कि निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना । लेकिन एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है । वह केवल कृष्ण की संतुष्टि के लिए कृष्ण की सेवा में खुद को संलग्न करता है । वे बदले में कुछ भी नहीं चाहते हैं । यही शुद्ध भक्ति है । जैसे भगवान चैतन्य कहते हैं, न ध्नम् जनम् न सुन्दरीम कविताम वा जगदीश कामये : ([[Vanisource:CC Antya 20.29|चैच अंत्य २०।२९, शिक्शाश्टकम ४]]) "मुझे कोई धन नहीं चाहिए, मुझे अनुयायि नहीं चाहिए, मैं कोई अच्छी पत्नी नहीं चाहिए । केवल मुझे आपकी सेवा में लगे रहने दें ।" बस । भक्ति योग प्रणाली यही है । जब प्रहलाद महाराज से प्रभु न्रसिंहदेव नें पूछा, "मेरे प्रिय बच्चे, तुमने इतना मेरे लिए कष्ट सहा है, इसलिए जो भी तुम्हारी इच्छा है, तुम मांगो ।" उन्होंने मना कर दिया । "मेरे प्रिय गुरुदेव, मैं अापके साथ व्यापारिक कारोबार नहीं कर रहा हूँ, कि मैं अपनी सेवा के लिए आप से कुछ मेहनताना लूँगा ।" यह शुद्ध भक्ति है । तो योगि या ज्ञानी, वे निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं । क्यों निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं ? क्योंकि उनका कड़वा अनुभव है, भौतिक अासक्तियों की जुदाई से । लेकिन एक भक्त के लिए ऐसी कोई बात नहीं है । भक्त रहता है, हालांकि वह भगवान से अलग है, वह पूरी तरह से भगवान की सेवा में आनंद ले रहा है । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: हाँ । मांग है । मायावादी, उनकी एक मांग है, कि निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना । लेकिन एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है । वह केवल कृष्ण की संतुष्टि के लिए कृष्ण की सेवा में खुद को संलग्न करता है । वे बदले में कुछ भी नहीं चाहते हैं । यही शुद्ध भक्ति है । जैसे भगवान चैतन्य कहते हैं, न धनम जनम न सुन्दरीम कविताम वा जगदीश कामये: ([[Vanisource:CC Antya 20.29|चैतन्य चरितामृत अंत्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४]]) "मुझे कोई धन नहीं चाहिए, मुझे अनुयायी नहीं चाहिए, मुझे कोई अच्छी पत्नी नहीं चाहिए । केवल मुझे आपकी सेवा में लगे रहने दें ।" बस । भक्ति योग प्रणाली यही है । जब प्रहलाद महाराज से प्रभु नरसिंहदेव नें पूछा, "मेरे प्रिय बच्चे, तुमने इतना मेरे लिए कष्ट सहा है, इसलिए जो भी तुम्हारी इच्छा है, तुम मांगो ।" उन्होंने मना कर दिया । "मेरे प्रिय स्वामी, मैं अापके साथ व्यापारिक कारोबार नहीं कर रहा हूँ, कि मैं अपनी सेवा के लिए आप से कुछ मेहनताना लूँगा ।" यह शुद्ध भक्ति है । तो योगी या ज्ञानी, वे निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं । क्यों निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं ? क्योंकि उनका कड़वा अनुभव है, भौतिक अासक्तियों की जुदाई से । लेकिन एक भक्त के लिए ऐसी कोई बात नहीं है । भक्त रहता है, हालांकि वह भगवान से अलग है, वह पूरी तरह से भगवान की सेवा में आनंद ले रहा है । अागे पढो ।


भक्त: "ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है । किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती । इसी प्रकार जो योगी अर्धनिमीलित नेत्रों से योगाभ्यास करता है, समस्त कर्म बन्द करके, वह भी अात्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है । किन्तु जो व्यक्ति कर्म करता है....... "
भक्त: "ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है । किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती । इसी प्रकार जो योगी आधी खुली हुई नेत्रों से योगाभ्यास करता है, समस्त कर्म बन्द करके, वह भी अात्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है । किन्तु जो व्यक्ति कर्म करता है... "


प्रभुपाद: असल में योगि कुछ भौतिक शक्ति चाहते हैं । यही योग की पूर्णता है । पूर्णता नहीं, यह प्रक्रियाओं में से एक है । जैसे अगर तुम वास्तव में योग की नियामक सिद्धांतों का अभ्यास कर रहे हो, तो तुम आठ प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर सकते हो । तुम कपास से हल्का हो सकते हो । तुम पत्थर से भी भारी हो सकते हो । तुम कुछ भी प्राप्त कर सकते हो, जो तुम चाहो, तुरंत । कभी कभी तुम एक ग्रह भी बना सकते हो । इसने शक्तिशाली योगी हैं । विश्वामित्र योगी, उन्होंने वास्तव में ऐसा किया था । वे ताड़ के पेड़ से आदमी प्राप्त करना चाहते थे । "क्यों मनुष्य को अाना होगा, दस, दस महीने माँ के गर्भ के माध्यम से ? उनका फल की तरह उत्पादन किया जाएगा ।" उन्होंने एसा किया । तो कभी कभी योगि इतने शक्तिशाली हैं, वे कर सकते हैं । तो ये सभी भौतिक शक्तियां हैं । इस तरह के योगि, वे भी परास्त हो जाते हैं । कब तक तुम इस भौतिक शक्ति पर बने रह सकते हो ? तो भक्ति-योगि, वे इस तरह का कुछ भी नहीं चाहते । अागे पढो । हां ।
प्रभुपाद: असल में योगी कुछ भौतिक शक्ति चाहते हैं । यही योग की पूर्णता है । पूर्णता नहीं, यह प्रक्रियाओं में से एक है । जैसे अगर तुम वास्तव में योग के नियामक सिद्धांतों का अभ्यास कर रहे हो, तो तुम आठ प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर सकते हो । तुम रुई से हल्का हो सकते हो । तुम पत्थर से भी भारी हो सकते हो । तुम कुछ भी प्राप्त कर सकते हो, जो तुम चाहो, तुरंत । कभी कभी तुम एक ग्रह भी बना सकते हो । इतने शक्तिशाली योगी हैं । विश्वामित्र योगी, उन्होंने वास्तव में ऐसा किया था । वे ताड़ के पेड़ से आदमी प्राप्त करना चाहते थे । "क्यों मनुष्य को अाना होगा, दस, दस महीने माँ के गर्भ के माध्यम से ? उनका फल की तरह उत्पादन किया जाएगा ।" उन्होंने एसा किया । तो कभी कभी योगी इतने शक्तिशाली हैं, वे कर सकते हैं । तो ये सभी भौतिक शक्तियां हैं । इस तरह के योगी, वे भी परास्त हो जाते हैं । कब तक तुम इस भौतिक शक्ति पर बने रह सकते हो ? तो भक्ति-योगी, वे इस तरह का कुछ भी नहीं चाहते । अागे पढो । हां ।  


भक्त: "लेकिन कृष्णभनावामृत व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के पूर्णब्रह्म की तुष्टि के लिए कर्म करता है । कृष्णभावनामृत व्यक्ति को कभी भी अात्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती । उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करता रहा है । अत: वह पूर्ण संन्यासी या पूर्णयोगी होता है । त्याग के सर्वोच्च प्रतीक भगवान चैतन्य प्रार्थना करते हैं : "हे सर्वशक्ति प्रभू, मुझे न तो धन-संग्रह की कामना है, न तो सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ । न ही मुझे अनुयायियों की कामना है । मैं तो जन्म जन्मान्तर अापकी प्रेमभक्ति की अहैतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ ।"
भक्त: "लेकिन कृष्ण भावना भावित व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के पूर्णब्रह्म की तुष्टि के लिए कर्म करता है । कृष्ण भावना भावित  व्यक्ति को कभी भी अात्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती । उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करता रहा है । अत: वह पूर्ण संन्यासी या पूर्णयोगी होता है । त्याग के सर्वोच्च प्रतीक भगवान चैतन्य प्रार्थना करते हैं: "हे सर्वशक्ति प्रभु, मुझे न तो धन-संग्रह की कामना है, न तो सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ । न ही मुझे अनुयायीयों की कामना है । मैं तो जन्म जन्मान्तर अापकी प्रेमभक्ति की अहैतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ ।"  


प्रभुपाद: तो एक भक्त मुक्ति भी नहीं चाहता है । क्यों भगवान चैतन्य कहते है "जन्म जन्मान्तर" ? मु्कति चाहने वाले, वे रोकना चाहते हैं, शूण्यवादी, वे भौतिक जीवन को रोकना चाहते हैं । लेकिन चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "जन्म जन्मान्तर ।" इसका मतलब है कि वे तैयार हैं सभी प्रकार के भौतिक कष्टों से गुजरने के लिए लेकिन वे क्या चाहते हैं? वे केवल भगवान की सेवा में लगे रेहना चाहते हैं । यही पूणर्ता है । मुझे लगता है कि तुम यहाँ रोक लो । रोक लो ।
प्रभुपाद: तो एक भक्त मुक्ति भी नहीं चाहता है । क्यों भगवान चैतन्य कहते है "जन्म जन्मान्तर" ? मु्कति चाहने वाले, वे रोकना चाहते हैं, शून्यवादी, वे भौतिक जीवन को रोकना चाहते हैं । लेकिन चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "जन्म जन्मान्तर ।" इसका मतलब है कि वे तैयार हैं सभी प्रकार के भौतिक कष्टों से गुजरने के लिए | लेकिन वे क्या चाहते हैं? वे केवल भगवान की सेवा में लगे रेहना चाहते हैं । यही पूणर्ता है । मुझे लगता है कि तुम यहाँ रोक लो । रोक लो ।  
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Latest revision as of 17:51, 1 October 2020



Lecture on BG 6.1 -- Los Angeles, February 13, 1969

भक्त: अध्याय छह । सांख्य योग । श्लोक नंबर एक । श्री भगवान ने कहा - जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है अौर जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी अौर असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है अौर न कर्म करता है ।" ([[HI/BG 6.1|भ.गी. ६.१])

तात्पर्य: इस अध्याय में भगवान बताते हैं कि अष्टांगयोग पद्धति मन तथा इंद्रियों को वश में करने का साधन है । किन्तु, इस कलियुग में सामान्य जनता के लिए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है । यद्यपि इस अध्याय में अष्टांगयोग पद्धति की संस्तुति की गई है, किन्तु भगवान बल देते हैं कि कर्मयोग या कृष्णभावनामृत में कर्म करना इससे श्रेष्ठ है । इस संसार मे प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के पालनार्थ तथा अपने सामाग्री के रक्षार्थ कर्म करता है, किन्तु कोई भी मनुष्य बिना किसी स्वार्थ, किसी व्यक्तिगत तृप्ति के, चाहे वह तृप्ति अात्मकेन्द्रित हो या व्यापक, कर्म नहीं करता । पूणर्ता की कसौटी है - कृष्णभावनामृत में कर्म करना, कर्म के फलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं । कृष्णभावनामृत में कर्म करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, क्योंकि सभी लोग परमेश्वर के अंश हैं । शरीर के अंग पूरे शरीर के लिए कार्य करते हैं । शरीर के अंग अपनी तुष्टि के लिए नहीं, अपितु पूरे शरीर की तुष्टि के लिए काम करते हैं । इसी प्रकार जो जीव अपने तुष्टि के लिए नहीं, अपितु परब्रह्म की तुष्टि के लिए कार्य करता है, वही पर्ण संन्यासी या पूर्ण योगी है । "कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं कि उन्हें सारे कार्यों से मुक्ति मिल गई, अौर वे अग्निहोत्र यज्ञ करना बन्द कर देते हैं ।"

प्रभुपाद: हर किसी के द्वारा कुछ यज्ञ किए जाते है शुद्धि होने के लिए । तो एक संन्यासी को यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए कर्मकांडी यज्ञ को रोक कर, कभी कभी वे सोचते हैं कि वे मुक्त हो गए हैं । लेकिन वास्तव में, जब तक वह कृष्ण भावानामृत के मंच पर नहीं आते हैं, मुक्ति का सवाल ही नहीं है । अागे पढो ।

भक्त: "लेकिन वस्तुत: वे स्वार्थी हैं क्योंकि उनका लक्ष्य निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना होता है ।"

प्रभुपाद: हाँ । मांग है । मायावादी, उनकी एक मांग है, कि निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना । लेकिन एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है । वह केवल कृष्ण की संतुष्टि के लिए कृष्ण की सेवा में खुद को संलग्न करता है । वे बदले में कुछ भी नहीं चाहते हैं । यही शुद्ध भक्ति है । जैसे भगवान चैतन्य कहते हैं, न धनम न जनम न सुन्दरीम कविताम वा जगदीश कामये: (चैतन्य चरितामृत अंत्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४) "मुझे कोई धन नहीं चाहिए, मुझे अनुयायी नहीं चाहिए, मुझे कोई अच्छी पत्नी नहीं चाहिए । केवल मुझे आपकी सेवा में लगे रहने दें ।" बस । भक्ति योग प्रणाली यही है । जब प्रहलाद महाराज से प्रभु नरसिंहदेव नें पूछा, "मेरे प्रिय बच्चे, तुमने इतना मेरे लिए कष्ट सहा है, इसलिए जो भी तुम्हारी इच्छा है, तुम मांगो ।" उन्होंने मना कर दिया । "मेरे प्रिय स्वामी, मैं अापके साथ व्यापारिक कारोबार नहीं कर रहा हूँ, कि मैं अपनी सेवा के लिए आप से कुछ मेहनताना लूँगा ।" यह शुद्ध भक्ति है । तो योगी या ज्ञानी, वे निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं । क्यों निराकार ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं ? क्योंकि उनका कड़वा अनुभव है, भौतिक अासक्तियों की जुदाई से । लेकिन एक भक्त के लिए ऐसी कोई बात नहीं है । भक्त रहता है, हालांकि वह भगवान से अलग है, वह पूरी तरह से भगवान की सेवा में आनंद ले रहा है । अागे पढो ।

भक्त: "ऐसी इच्छा भौतिक इच्छा से तो श्रेष्ठ है । किन्तु यह स्वार्थ से रहित नहीं होती । इसी प्रकार जो योगी आधी खुली हुई नेत्रों से योगाभ्यास करता है, समस्त कर्म बन्द करके, वह भी अात्मतुष्टि की इच्छा से पूरित होता है । किन्तु जो व्यक्ति कर्म करता है... "

प्रभुपाद: असल में योगी कुछ भौतिक शक्ति चाहते हैं । यही योग की पूर्णता है । पूर्णता नहीं, यह प्रक्रियाओं में से एक है । जैसे अगर तुम वास्तव में योग के नियामक सिद्धांतों का अभ्यास कर रहे हो, तो तुम आठ प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर सकते हो । तुम रुई से हल्का हो सकते हो । तुम पत्थर से भी भारी हो सकते हो । तुम कुछ भी प्राप्त कर सकते हो, जो तुम चाहो, तुरंत । कभी कभी तुम एक ग्रह भी बना सकते हो । इतने शक्तिशाली योगी हैं । विश्वामित्र योगी, उन्होंने वास्तव में ऐसा किया था । वे ताड़ के पेड़ से आदमी प्राप्त करना चाहते थे । "क्यों मनुष्य को अाना होगा, दस, दस महीने माँ के गर्भ के माध्यम से ? उनका फल की तरह उत्पादन किया जाएगा ।" उन्होंने एसा किया । तो कभी कभी योगी इतने शक्तिशाली हैं, वे कर सकते हैं । तो ये सभी भौतिक शक्तियां हैं । इस तरह के योगी, वे भी परास्त हो जाते हैं । कब तक तुम इस भौतिक शक्ति पर बने रह सकते हो ? तो भक्ति-योगी, वे इस तरह का कुछ भी नहीं चाहते । अागे पढो । हां ।

भक्त: "लेकिन कृष्ण भावना भावित व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के पूर्णब्रह्म की तुष्टि के लिए कर्म करता है । कृष्ण भावना भावित व्यक्ति को कभी भी अात्मतुष्टि की इच्छा नहीं रहती । उसका एकमात्र लक्ष्य कृष्ण को प्रसन्न करता रहा है । अत: वह पूर्ण संन्यासी या पूर्णयोगी होता है । त्याग के सर्वोच्च प्रतीक भगवान चैतन्य प्रार्थना करते हैं: "हे सर्वशक्ति प्रभु, मुझे न तो धन-संग्रह की कामना है, न तो सुन्दर स्त्रियों के साथ रमण करने का अभिलाषी हूँ । न ही मुझे अनुयायीयों की कामना है । मैं तो जन्म जन्मान्तर अापकी प्रेमभक्ति की अहैतुकी कृपा का ही अभिलाषी हूँ ।"

प्रभुपाद: तो एक भक्त मुक्ति भी नहीं चाहता है । क्यों भगवान चैतन्य कहते है "जन्म जन्मान्तर" ? मु्कति चाहने वाले, वे रोकना चाहते हैं, शून्यवादी, वे भौतिक जीवन को रोकना चाहते हैं । लेकिन चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "जन्म जन्मान्तर ।" इसका मतलब है कि वे तैयार हैं सभी प्रकार के भौतिक कष्टों से गुजरने के लिए | लेकिन वे क्या चाहते हैं? वे केवल भगवान की सेवा में लगे रेहना चाहते हैं । यही पूणर्ता है । मुझे लगता है कि तुम यहाँ रोक लो । रोक लो ।