HI/Prabhupada 0650 - कृष्ण भावनामृत के पूर्ण योग से इस उलझन से बहार निकलो: Difference between revisions

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भक्त: "इस जगत में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है । वास्तव में शुद्ध अात्मा इस संसार में इसलिए फँसा हुअा है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व चाहता है । अत: मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से अाकृष्ट न हो अौर इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके । मनुष्य को इन्द्रियविष्यों में अाकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए । जो जितना ही इन्द्रियविष्यों के प्रति अाकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता जाता है । अपने को विरत करने का सर्वोकृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में निरत रखा जाए । हि शब्द इस बात पर बल देने के लिए प्रयुक्त हुअा है अर्थात इसे अवश्य करना चाहिए । यह भी कहा गया है : मन ही मनुष्य के बन्‍धन का अौर मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है अौर विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है ।" अत: जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है ।"
भक्त: "इस जगत में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है । वास्तव में शुद्ध अात्मा इस संसार में इसलिए फँसा हुअा है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व चाहता है । अत: मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से अाकृष्ट न हो | अौर इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके । मनुष्य को इन्द्रिय विषयो में अाकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए । जो जितना ही इन्द्रियविष्यों के प्रति अाकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता जाता है । अपने को विरक्त करने का सर्वोकृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्ण भावनामृत में संलग्न रखा जाए । 'हि' शब्द इस बात पर बल देने के लिए प्रयुक्त हुअा है, अर्थात इसे अवश्य करना चाहिए । यह भी कहा गया है: मन ही मनुष्य के बन्‍धन का अौर मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रिय विषयों में लीन मन बन्धन का कारण है अौर विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है ।" अत: जो मन निरन्तर कृष्ण भावनामृत में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है ।"  


प्रभुपाद: हाँ । कोई संभावना नहीं है । मन का कृष्णभावनामृत में हमेशा लगे रहना, कोई संभावना नहीं है इसका माया भावनामृत में लगने की । जितना अधिक हम कृष्णभावनामृत में हमारे मन को संलग्न करते हैं, जितना अधीक हम अपने अाप को सूरज की रोशनी में रखते हैं अंधेरे में होने की कोई संभावना नहीं रहती है । यही प्रक्रिया है । अगर तुम चाहो, तो तुम स्वतंत्र हो । तुम अपने अाप को अंधेरे कमरे के भीतर रख सकते हो, और तुम दिन के उजाले में आ सकते हो । यही तुम्हारी पसंद पर निर्भर करता है । लेकिन जब तुम व्यापक सूर्य के प्रकाश में आते हो तब अंधेरे की कोई संभावना नहीं है । अंधेरा प्रकाश द्वारा नाश किया जा सकता है, लेकिन प्रकाश अंधेरे से ढका नहीं जा सकता है । मान लो तुम एक अंधेरे कमरे में हो । तुम एक चिराग लाअो । अंधेरा खतम । लेकिन तुम कुछ अंधेरा लो और सूर्य के प्रकाश में जाअो, वह खत्म हो जाएगा । इसलिए कृष्ण सूर्या-सम माया अंधकार कृष्ण सूरज की रोशनी की तरह हैं । और माया अंधकार की तरह है । तो अंधेरा धूप में क्या करेगा ? तुम खुद को सूरज की रोशनी में रखो । अंधेरा तुम पर असर करने में असफल हो जायेगा । यह कृष्णभावनामृत का पूरा तत्वज्ञान है । अपने आप को कृष्णभावनामृत गतिविधियों में हमेशा संलग्न रखो । माया तुम्हे छूने में सक्षम नहीं होगी । क्योंकि अंधकार के प्रभावशाली बनने की कोई संभावना नहीं है प्रकाश में । यह श्रीमद-भागवतम में कहा गया है । कि जब व्यासदेव, अपने आध्यात्मिक गुरु, नारद के निर्देश के तहत, भक्ति योग के द्वारा : भक्ति योगेन प्रणहिते सम्यक, प्रणहिते अमले । भक्ति योगेन मनसि ([[Vanisource:SB 1.7.4|श्री भ १।७।४]]) । वही मन, मानसी का मतलब है मन । जब भक्ति योग द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, भक्ति प्रकाश, भक्ति योगेन मनसि प्रणहिते अमले । जब मन पूरी तरह से सभी संदूषण से मुक्त हो जाता है । यह भक्ति योग के द्वारा किया जा सकता है । भक्ति योगेन मनसि प्रणहिते अमले अपश्यत पुरुषम् पूर्णम । उन्होंने देवत्व के परम व्यक्तित्व को देखा । मायाम च तद अपाश्रयम । और उन्होंने पृष्ठभूमि में इस माया को देखा । अपाश्रयम । प्रकाश और अंधेरा, साथ साथ । जैसे यहाँ प्रकाश है । अंधेरा भी यहां है, थोड़ा अंधेरा । तो अंधकार प्रकाश की शरण में रहता है । लेकिन प्रकाश अंधकार की शरण में नहीं रहता है । तो व्यासदेव नें कृष्ण, परम भगवान को देखा और इस माया, अंधकार, अपाश्रयम, उनकी शरण में । और यह माया कौन है? यह समझाया गया है । यया सम्मोहित जीव । वही माया, वही माया की शक्ति जिसने बद्धजीवों को ढका है और वे बद्धजीव कौन हैं ? यया सम्मोहित जीव अातमानम त्रि-गुणात्मकम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्री भ १।७।५]]) हालांकि यह अात्मा कृष्ण या भगवान की तरह उज्वल है, हालांकि अनु । लेकिन वह इस भौतिक दुनिया के साथ खुद की पहचान करता है । यया सम्मोहित, इसे भ्रम कहा जाता है । जब हम द्रव्य पदार्य़ के साथ अपनी पहचान करते हैं । यया सम्मोहित जीव अातमानम त्रि-गुणात्मकम, परो अपि मनुते अनर्थम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्री भ १।७।५]]) हालांकि वह दिव्य है, फिर भी वह अतर्कसंगत गतिविधियों में लगा हुए है । परो अपि मनुते अनर्थम तत-कृतम चाभिपद्यते । और वह इस माया के अधीन कार्य करता है । ये बहुत ही अच्छी तरह से श्रीमद-भागवतम में समझाया गया है प्रथम सर्ग, सातवें अध्याय में । तो हमारी स्थिति यह है । कि हम आध्यातमिक स्फुलिंग हैं, स्फुलिंग । लेकिन अब हम इस भ्रामक ऊर्जा, माया द्वारा ढके हैं । और हम माया द्वारा निर्देशित हैं और कर्म कर रहे हैं अौर अधिक से अधिक उलझते जा रहे हैं भौतिक शक्ति में । तुम्हे इस उलझन से बाहर निकलना होगा इस योग से, या कृष्णभावनामृत के पूर्ण योग । यही योग प्रणाली है ।
प्रभुपाद: हाँ । कोई संभावना नहीं है । मन का कृष्ण भावनामृत में हमेशा लगे रहना, कोई संभावना नहीं है इसका माया भावनामृत में लगने की । जितना अधिक हम कृष्ण भावनामृत में हमारे मन को संलग्न करते हैं, जितना अधीक हम अपने अाप को सूर्यप्रकाश में रखते हैं, अंधेरे में होने की कोई संभावना नहीं रहती है । यही प्रक्रिया है । अगर तुम चाहो, तो तुम स्वतंत्र हो । तुम अपने अाप को अंधेरे कमरे के भीतर रख सकते हो, और तुम दिन के उजाले में आ सकते हो । वो तुम्हारी पसंद पर निर्भर करता है । लेकिन जब तुम व्यापक सूर्य के प्रकाश में आते हो तब अंधेरे की कोई संभावना नहीं है । अंधेरा प्रकाश द्वारा नाश किया जा सकता है, लेकिन प्रकाश अंधेरे से ढका नहीं जा सकता है ।  
 
मान लो तुम एक अंधेरे कमरे में हो । तुम एक चिराग लाअो । अंधेरा खतम । लेकिन तुम कुछ अंधेरा लो और सूर्य के प्रकाश में जाअो, वह ख़ुद खत्म हो जाएगा । तो कृष्ण सूर्य-सम माया अंधकार | कृष्ण सूर्य की रोशनी की तरह हैं । और माया अंधकार की तरह है । तो अंधेरा सूर्यप्रकाश में क्या करेगा ? तुम खुद को सूर्य की रोशनी में रखो । अंधेरा तुम पर असर करने में असफल हो जायेगा । यह कृष्ण भावनामृत का पूरा तत्वज्ञान है । अपने आप को कृष्ण भावनामृत गतिविधियों में हमेशा संलग्न रखो । माया तुम्हे छूने में सक्षम नहीं होगी । क्योंकि अंधकार के प्रभावशाली बनने की कोई संभावना नहीं है प्रकाश में ।  
 
यह श्रीमद-भागवतम में कहा गया है । कि जब व्यासदेव, अपने आध्यात्मिक गुरु, नारद के निर्देश के तहत, भक्ति योग के द्वारा: भक्ति योगेन प्रणीहिते सम्यक, प्रणीहिते अमले । भक्ति योगेन मनसि ([[Vanisource:SB 1.7.4|श्रीमद भागवतम १.७.४]]) । वही मन, मनसी का मतलब है मन । जब भक्ति योग, भक्ति प्रकाश, द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, भक्ति योगेन मनसि प्रणीहिते अमले । जब मन पूरी तरह से सभी संदूषण से मुक्त हो जाता है । यह भक्ति योग के द्वारा किया जा सकता है । भक्ति योगेन मनसि सम्यक प्रणीहिते अमले अपश्यत पुरुषम पूर्णम । उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को देखा । मायाम च तद अपाश्रयम । और उन्होंने पृष्ठभूमि में इस माया को देखा । अपाश्रयम । प्रकाश और अंधेरा, साथ साथ । जैसे यहाँ प्रकाश है । अंधेरा भी यहां है, थोड़ा अंधेरा । तो अंधकार प्रकाश की शरण में रहता है । लेकिन प्रकाश अंधकार की शरण में नहीं रहता है ।  
 
तो व्यासदेव नें कृष्ण, परम भगवान, को देखा, और इस माया, अंधकार, अपाश्रयम, को उनकी शरण में । और यह माया कौन है? यह समझाया गया है । यया सम्मोहितो जीव । वही माया, वही माया की शक्ति जिसने बद्धजीवों को ढका है | और वे बद्धजीव कौन हैं ? यया सम्मोहितो जीव आत्मानम त्रि-गुणात्मकम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्रीमद भागवतम १.७.५]]) | हालांकि यह अात्मा कृष्ण या भगवान की तरह उज्वल है, हालांकि बहुत सूक्ष्म । लेकिन वह इस भौतिक दुनिया के साथ खुद की पहचान करता है । यया सम्मोहित:, इसे भ्रम कहा जाता है । जब हम पदार्थ के साथ अपनी पहचान करते हैं ।  
 
यया सम्मोहितो जीव आत्मानम त्रि-गुणात्मकम, परो अपि मनुते अनर्थम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्रीमद भागवतम १.७.५]]) | हालांकि वह दिव्य है, फिर भी वह अतर्कसंगत गतिविधियों में लगा हुआ है । परो अपि मनुते अनर्थम तत-कृतम चाभिपद्यते । और वह इस माया के अधीन कार्य करता है । ये बहुत ही अच्छी तरह से श्रीमद-भागवतम में समझाया गया है प्रथम सर्ग, सातवें अध्याय में । तो हमारी स्थिति यह है । कि हम आध्यातमिक चिंगारिआ हैं, चिंगारी । लेकिन अब हम इस भ्रामक ऊर्जा, माया द्वारा ढके हैं । और हम माया द्वारा निर्देशित हैं और कर्म कर रहे हैं अौर अधिक से अधिक उलझते जा रहे हैं भौतिक शक्ति में । तुम्हे इस उलझन से बाहर निकलना होगा इस योग से, या कृष्ण भावनामृत के पूर्ण योग से । यही योग प्रणाली है ।  
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020



Lecture on BG 6.2-5 -- Los Angeles, February 14, 1969

भक्त: "इस जगत में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है । वास्तव में शुद्ध अात्मा इस संसार में इसलिए फँसा हुअा है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व चाहता है । अत: मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से अाकृष्ट न हो | अौर इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके । मनुष्य को इन्द्रिय विषयो में अाकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए । जो जितना ही इन्द्रियविष्यों के प्रति अाकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता जाता है । अपने को विरक्त करने का सर्वोकृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्ण भावनामृत में संलग्न रखा जाए । 'हि' शब्द इस बात पर बल देने के लिए प्रयुक्त हुअा है, अर्थात इसे अवश्य करना चाहिए । यह भी कहा गया है: मन ही मनुष्य के बन्‍धन का अौर मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रिय विषयों में लीन मन बन्धन का कारण है अौर विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है ।" अत: जो मन निरन्तर कृष्ण भावनामृत में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है ।"

प्रभुपाद: हाँ । कोई संभावना नहीं है । मन का कृष्ण भावनामृत में हमेशा लगे रहना, कोई संभावना नहीं है इसका माया भावनामृत में लगने की । जितना अधिक हम कृष्ण भावनामृत में हमारे मन को संलग्न करते हैं, जितना अधीक हम अपने अाप को सूर्यप्रकाश में रखते हैं, अंधेरे में होने की कोई संभावना नहीं रहती है । यही प्रक्रिया है । अगर तुम चाहो, तो तुम स्वतंत्र हो । तुम अपने अाप को अंधेरे कमरे के भीतर रख सकते हो, और तुम दिन के उजाले में आ सकते हो । वो तुम्हारी पसंद पर निर्भर करता है । लेकिन जब तुम व्यापक सूर्य के प्रकाश में आते हो तब अंधेरे की कोई संभावना नहीं है । अंधेरा प्रकाश द्वारा नाश किया जा सकता है, लेकिन प्रकाश अंधेरे से ढका नहीं जा सकता है ।

मान लो तुम एक अंधेरे कमरे में हो । तुम एक चिराग लाअो । अंधेरा खतम । लेकिन तुम कुछ अंधेरा लो और सूर्य के प्रकाश में जाअो, वह ख़ुद खत्म हो जाएगा । तो कृष्ण सूर्य-सम माया अंधकार | कृष्ण सूर्य की रोशनी की तरह हैं । और माया अंधकार की तरह है । तो अंधेरा सूर्यप्रकाश में क्या करेगा ? तुम खुद को सूर्य की रोशनी में रखो । अंधेरा तुम पर असर करने में असफल हो जायेगा । यह कृष्ण भावनामृत का पूरा तत्वज्ञान है । अपने आप को कृष्ण भावनामृत गतिविधियों में हमेशा संलग्न रखो । माया तुम्हे छूने में सक्षम नहीं होगी । क्योंकि अंधकार के प्रभावशाली बनने की कोई संभावना नहीं है प्रकाश में ।

यह श्रीमद-भागवतम में कहा गया है । कि जब व्यासदेव, अपने आध्यात्मिक गुरु, नारद के निर्देश के तहत, भक्ति योग के द्वारा: भक्ति योगेन प्रणीहिते सम्यक, प्रणीहिते अमले । भक्ति योगेन मनसि (श्रीमद भागवतम १.७.४) । वही मन, मनसी का मतलब है मन । जब भक्ति योग, भक्ति प्रकाश, द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, भक्ति योगेन मनसि प्रणीहिते अमले । जब मन पूरी तरह से सभी संदूषण से मुक्त हो जाता है । यह भक्ति योग के द्वारा किया जा सकता है । भक्ति योगेन मनसि सम्यक प्रणीहिते अमले अपश्यत पुरुषम पूर्णम । उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को देखा । मायाम च तद अपाश्रयम । और उन्होंने पृष्ठभूमि में इस माया को देखा । अपाश्रयम । प्रकाश और अंधेरा, साथ साथ । जैसे यहाँ प्रकाश है । अंधेरा भी यहां है, थोड़ा अंधेरा । तो अंधकार प्रकाश की शरण में रहता है । लेकिन प्रकाश अंधकार की शरण में नहीं रहता है ।

तो व्यासदेव नें कृष्ण, परम भगवान, को देखा, और इस माया, अंधकार, अपाश्रयम, को उनकी शरण में । और यह माया कौन है? यह समझाया गया है । यया सम्मोहितो जीव । वही माया, वही माया की शक्ति जिसने बद्धजीवों को ढका है | और वे बद्धजीव कौन हैं ? यया सम्मोहितो जीव आत्मानम त्रि-गुणात्मकम (श्रीमद भागवतम १.७.५) | हालांकि यह अात्मा कृष्ण या भगवान की तरह उज्वल है, हालांकि बहुत सूक्ष्म । लेकिन वह इस भौतिक दुनिया के साथ खुद की पहचान करता है । यया सम्मोहित:, इसे भ्रम कहा जाता है । जब हम पदार्थ के साथ अपनी पहचान करते हैं ।

यया सम्मोहितो जीव आत्मानम त्रि-गुणात्मकम, परो अपि मनुते अनर्थम (श्रीमद भागवतम १.७.५) | हालांकि वह दिव्य है, फिर भी वह अतर्कसंगत गतिविधियों में लगा हुआ है । परो अपि मनुते अनर्थम तत-कृतम चाभिपद्यते । और वह इस माया के अधीन कार्य करता है । ये बहुत ही अच्छी तरह से श्रीमद-भागवतम में समझाया गया है प्रथम सर्ग, सातवें अध्याय में । तो हमारी स्थिति यह है । कि हम आध्यातमिक चिंगारिआ हैं, चिंगारी । लेकिन अब हम इस भ्रामक ऊर्जा, माया द्वारा ढके हैं । और हम माया द्वारा निर्देशित हैं और कर्म कर रहे हैं अौर अधिक से अधिक उलझते जा रहे हैं भौतिक शक्ति में । तुम्हे इस उलझन से बाहर निकलना होगा इस योग से, या कृष्ण भावनामृत के पूर्ण योग से । यही योग प्रणाली है ।