HI/Prabhupada 0655 - धर्म का उद्देश्य है भगवान को समझना । और भगवान से प्रेम करना सीखना

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Lecture on BG 6.6-12 -- Los Angeles, February 15, 1969

भक्त: "यह भगवद गीता कृष्णभावनामृत का विज्ञान है । मात्र संसारी विद्वत्ता से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो सकता ।"

प्रभुपाद: हाँ । क्योंकि तुम्हारे पास कुछ खिताब हैं : एम ए, पीएच डी, डी ए सी तुम भगवद गीता समझ जाअोगे, यह संभव नहीं है । यह दिव्य विज्ञान है । इसे समझने के लिए अलग प्रकार की इंद्रियों की आवश्यकता है । और इन इन्द्रियों को तुमने बनाना है, तुमने इन्हे शुद्ध करना है, सेवा प्रदान करके । अन्यथा, महान विद्वान भी, जैसे कई डॉक्टर और पी एच डी वे गलत धारणा रखते हैं कि कृष्ण क्या हैं । वे नहीं समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । इसलिए कृष्ण आते हैं यथार्थ । अजो अपि सन्न अव्ययात्मा (भ गी ४।६) । हालांकि वे अजन्मे हैं, वे अाते हैं हमें सिखाने के लिए कि भगवान कैसे हैं, तुम समझ रहे हो ? अागे पढो ।

भक्त: "उसे विशुद्ध चेतना वाले व्यक्ति का सानिध्य प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना चाहिए । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को भगवतकृपा से ज्ञान की अनुभुति होती है ।"

प्रभुपाद: हाँ, कृष्ण की कृपा से । शैक्षणिक योग्यता के आधार पर नहीं । तुम्हे ... हमें कृष्ण की कृपा प्राप्त करनी होगी, फिर हम कृष्ण को समझ सकते हैं । फिर हम कृष्ण को देख सकते हैं । फिर हम कृष्ण के साथ बात कर सकते हैं, फिर हम सब कुछ कर सकते हैं । वे एक व्यक्ति हैं । वे परम व्यक्ति हैं । यही वैदिक निषेधाज्ञा है । नित्यो नित्यानाम् चेतनश चेतनानाम ( कथा उपनिषद २।२।१३) । वे परम व्यक्ति हैं, या परम शाश्वत । हम सब अनन्त हैं । हमारी ... अब हम इस शरीर के भीतर कैद हैं । हम जन्म और मृत्यु प्राप्त कर रहे हैं । लेकिन वास्तव में हमारा कोई जन्म और मृत्यु नहीं है । हम शाश्वत आत्मा हैं । और मेरे कर्म के अनुसार, मेरी इच्छा के अनुसार, मैं एक तरह के शरीर से दूसरे में जा रहा हूँ, एक अौर शरीर, एक अौर शरीर । यह चल रहा है । असल में मेरा कोई जन्म और मृत्यु नहीं है । यह भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है, तुम्ने पढा है दूसरे अध्याय में: ना जायते ना मृयते वा । जीव न तो जन्म लेता है या मरता है । इसी तरह, भगवान भी शाश्वत हैं, तुम भी अनन्त हो । जब तुम अपना शाश्वत संबंध स्थापित करते हो, अनन्त, पूर्ण अनन्त के साथ ... नित्यो नित्यानाम् चेतनश चेतनानाम । वे जीवों में परम जीव हैं । वे अन्नत जीवों में परम अनन्त हैं । तो, कृष्ण भावनामृत से, अपने इन्द्रियों को शुद्ध करके, यह ज्ञान आ जाएगा और तुम भगवान का दर्शन कर पाअोगे । अागे पढो ।

भक्त: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को भगवतकृपा से ज्ञान की अनुभूति होती है क्योंकि वह विशुद्ध भक्ति से तुष्ट रहता है । अनुभूत ज्ञान से वह पुर्ण बनता है । अाध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य अपने संकल्पों में दृढ रह सकता है किन्तु मात्र शैक्षिक ज्ञानस से वह बाह्म विरोधाभासों द्वारा मोहित अौर भ्रमित होता रहता है । केवल अनुभवी अात्मा ही अात्मसंयमी होता है, क्योंकि वह कृष्ण की शरण में जा चुका होता है । वह दिव्य होता है क्योंकि उसे संसारी विद्वत्ता से कुछ लेना-देना नहीं रहता ।

प्रभुपाद: हाँ । चाहे कोई अनपढ़ है । चाहे वह एबीसीडी नहीं जानता है वह भगवान का अनुभव कर सकता है, अगर वह नम्रता से दिव्य सेवा में लगा है । और कोई व्यक्ति उच्च विद्वान हो सकता है, लेकिन वह भगवान का अनुभव नहीं कर सकता है । भगवान किसी भी भौतिक शर्त के अधीन नहीं हैं । वे परम आत्मा हैं । इसी तरह, भगवान को अनुभव करने की प्रक्रिया भी किसी भी भौतिक शर्त के अधीन नहीं है । एसा नहीं है कि क्योंकि तुम गरीब आदमी हो, तुम भगवान का अनुभव नहीं कर सकते हो । या तुम बहुत अमीर आदमी हो, इसलिए तुम्हे भगवान का अनुभव होगा । नहीं । क्योंकि तुम अशिक्षित हो, इसलिए तुम भगवान का अनुभव नहीं कर सकते हो, नहीं, एसा नहीं है । क्योकि तुम उच्च शिक्षित हो, इसलिए तुम भगवान का अनुभव कर सकते हो । नहीं, एसा नहीं है । वे बिना शर्त के हैं । अप्रतिहता । स वै पुम्साम परो धर्म: भागवत में यह कहा गया है कि वह प्रथम श्रेणी के धार्मिक सिद्धांत है, भागवत यह उल्लेख नहीं करता है कि हिन्दू धर्म प्रथम श्रेणी का है या ईसाई धर्म प्रथम श्रेणी का है, या मुसलमान धर्म प्रथम श्रेणी का है, या कोई अन्य धर्म । हमने इतने सारे धर्म बनाए हैं । लेकिन भागवत कहता है, वह धार्मिक सिद्धांत प्रथम श्रेणी का है कौन सा ? स वै पुम्साम् परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्शजे (श्री भ १।२।६) वह धर्म जो तुम्हारी मदद करता है भक्ति सेवा में और भगवान के प्रेम में अग्रिम होने के लिए बस इतना ही । यही प्रथम श्रेणी के धर्म की परिभाषा है । हम विश्लेषण नहीं करते हैं कि यह धर्म प्रथम श्रेणी का है , वह धर्म अाखरी श्रेणी का है. । बेशक, जैसे मैने तुम्हे बताया है, भौतिक संसार में तीन गुण हैं । तो गुणवत्ता के अनुसार, धार्मिक धारणा बनाई जाती है । लेकिन धर्म का उद्देश्य है भगवान को समझना । और भगवान से प्रेम करने के लिए सीखने के लिए । यही उद्देश्य है । कोई भी धार्मिक प्रणाली अगर वह तुम्हे भगवान से कैसे प्रेम करना है सिखाती है, तो यह प्रथम श्रेणी का है । अन्यथा यह बेकार है । तुम बहुत अच्छी तरह से बहुत सख्ती से अपने धार्मिक सिद्धांतों का निर्वाह कर सकते हो लेकिन भगवान के लिए तुम्हारा प्रेम शुण्य है। तुम्हारा प्रेम भौतिक पदार्थों के लिए बढ रहा है, तो यह कोई धर्म नहीं है । भागवत के फैसले के अनुसार: स वै पुम्साम् परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्शजे (श्री भ १।२।६) अप्रतिहता अहैतुकि अप्रतिहता । उस धार्मिक प्रणाली का कोई उद्देश्य नहीं है । और किसी भी बाधा के बिना । अगर तुम एसे धार्मिक सिद्धांत के प्रणाली तक पहुँच सकते हो, तो हम पाऍगे कि तुम सभी मामलों में सुखी हो । अन्यथा कोई संभावना नहीं है ।

स वै पुम्साम् परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्शजे (श्री भ १।२।६) । अधोक्शजे । भगवान का दूसरा नाम अधोक्शज है । अधोक्शज का मतलब है सभी भौतिकवादी प्रयास से भगवान के दर्शन करने पर विजय प्राप्त करना । अधोक्शज । अक्षज का मतलब है प्रयोगात्मक ज्ञान । तुम प्रयोगात्मक ज्ञान से ही केवल भगवान को नहीं समझ सकते हो । तुम्हे एक अलग तरीके से सीखना होगा । इसका मतलब है विनम्रता से सुनना और दिव्य सेवा करना । तो फिर तुम भगवान को समझ सकते हो । तो कोई भी धार्मिक सिद्धांत जो सिखाता है और तुम्हारी मदद करता है, देवत्व के लिए बिना किसी शर्त के प्रेम को विकसित करने के लिए ... "मैं भगवान से प्रेम करता हूँ क्योंकि वे मेरी इन्द्रिय संतुष्टि के लिए बहुत अच्छी चीजों की आपूर्ति करते हैं ।" वह प्रेम नहीं है । अहैतुकि । बिना किसी ... ईश्वर महान हैं । भगवान मेरे पिता हैं । उनसे प्यार करना मेरा कर्तव्य है । बस इतना ही । कोई कारोबार नहीं । "ओह, भगवान मुझे रोटी देते हैं इसलिए मैं भगवान से प्रेम करता हूँ ।"" नहीं । दैनिक रोटी भगवान जानवर, बिल्लियों, और कुत्तों को भी देते हैं । यह तो, भगवान हर किसी के पिता हैं । वे हर किसी को भोजन की आपूर्ति करते हैं । तो यह प्रेम नहीं है । प्रेम बिना कारण के होता है । यहां तक ​​कि अगर भगवान मुझे दैनिक रोटी की आपूर्ति नहीं करते हैं, तो भी मैं भगवान से प्रेम करूँगा । यही प्रेम है । यही प्रेम है ।

चैतन्य महाप्रभु इस तरह से कहते हैं: अाश्लिष्य वा पाद-रताम पिनष्तु माम (चै च अंत्य २०।४७) "या अाप मुझे गले लगाअो या आप अपने पैरों से मुझे रौंद दो । या अाप मुझे कभी दर्शन मत दो । मेरा दिल टूट जाता है अापके देर्शन के बिना । फिर भी मैं आपसे प्रेम करता हूँ ।" यह भगवान के लिए शुद्ध प्रेम है । जब हम भगवान से प्रेम के उस मंच पर आते हैं, तो हम पाते हैं, ओह, खुशी से भरा । जैसे भगवान सुख से भरे हैं, तुम भी सुख से भरे हो । यही पर्णता है । अागे पढो ।