HI/Prabhupada 0656 - जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0656 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1969 Category:HI-Quotes - Lec...")
 
m (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
 
Line 8: Line 8:
[[Category:Hindi Pages - Yoga System]]
[[Category:Hindi Pages - Yoga System]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0655 - धर्म का उद्देश्य है भगवान को समझना । और भगवान से प्रेम करना सीखना|0655|HI/Prabhupada 0657 - मंदिर इस युग के लिए एक मात्र एकांत जगह है|0657}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 16: Line 19:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|pkOrBD_Q_lw|जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं - Prabhupāda 0656}}
{{youtube_right|TsnnfezGkpY|जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं - Prabhupāda 0656}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<mp3player>http://vaniquotes.org/w/images/690215BG-LA_Clip6.MP3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/690215BG-LA_Clip6.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 28: Line 31:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
भक्त: "वह मनुष्य अौर भी उन्नत माना जाता है जब वह निष्कपट हितैशीयों, प्रिय मित्रों, ईर्ष्ालुअों, शत्रुअों, पुण्यअात्माअों, पापियों अौर तटस्थों अौर मध्यस्थों -को समान भाव से देखता है ([[Vanisource:BG 6.9|भ गी ६।९]]) ।"
भक्त: "व्यक्ति अौर भी उन्नत माना जाता है जब वह - निष्कपट हितैशीयों, प्रिय मित्रों, ईर्षालुओ, शत्रुअों, पुण्यअात्माअों, पापियों अौर तटस्थों अौर मध्यस्थों - को समान भाव से देखता है ([[HI/BG 6.9|भ.गी. ६.९]]) ।"  


प्रभुपाद: हाँ । यह उन्नति का संकेत है । क्योंकि यहाँ इस भौतिक दुनिया में, दोस्त और दुश्मन की गणना, सब कुछ इस शरीर के साथ, या इन्द्रिय संतुष्टि के संबंध में है । लेकिन भगवान या निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति में, ऐसा कोई भौतिक विचार नहीं है । एक और बात यहाँ है, सभी सशर्त आत्माऍ, वे भ्रम में हैं । एक चिकित्सक मान लीजिए, एक चिकित्सक एक मरीज के पास जाता है । वह होश में नहीं है, वह बकवास कर रहा है । इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसका इलाज करने से मना कर देगा । वह दोस्त के रूप में उससे व्यवहार करता है । हालांकि वह मरीज उसे बुरे भले नाम कहता है, बुरे नाम, फिर भी वह उसे दवा देता है । वैसे ही जैसे प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि "तुम पाप से नफरत करो, पापी से नहीं । " पापी से नहीं । यह बहुत अच्छा है । क्योंकि पापी भ्रम में है । वह पागल है । अगर तुम उससे नफरत करोगे, तो तुम उसका भला कैसे करोगे? इसलिए जो लोग भक्त हैं, वास्तव में जो भगवान के दास हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं । प्रभु यीशु मसीह की तरह, जब उन्हें सूली पर चढ़ाया जा रहा था, वे भगवान से अनुरोध कर रहे थे : "मेरे भगवान, उन्हें माफ कर दीजिये । वे जानते नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं । यह भक्त की स्थिति है । हाँ । क्योंकि वे भौतिकवादी सोच के पीछे पागल हो रहे हैं, इसलिए उनसे नफरत नहीं किया जा सकता है । कोई भी । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है कि नफरत का कोई सवाल ही नहीं है । हर किसी का स्वागत है । यहाँ अाइए । हरे कृष्ण मंत्र का जाप कीजिए । कृष्ण प्रसाद लीजिए और भगवद-गीता से कुछ अच्छा तत्वज्ञान सुनिए, और अपनी भौतिक सशर्त जीवन को सुधारने के लिए प्रयास करें । यह कार्यक्रम है - कृष्ण भावनामृत । भगवान चैतन्य नें इस आंदोलन की शुरुआत की । यारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश ([[Vanisource:CC Madhya 7.128|चै च मध्य ७।१२८]]) "जिससे तुम मिलो, जहाँ भी तुम मिलो , केवल उसे यह कृष्ण भावनामृत सिखाने के लिए प्रयास करो ।" कृष्ण-कथा । भगवान श्री कृष्ण से शब्द । तुम खुश हो जाअोगे और वे खुश हो जाऍगे । अागे पढो
प्रभुपाद: हाँ । यह उन्नति का संकेत है । क्योंकि यहाँ इस भौतिक दुनिया में, दोस्त और दुश्मन की गणना, सब कुछ इस शरीर के साथ, या इन्द्रिय संतुष्टि के संबंध में है । लेकिन भगवान या निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति में, ऐसा कोई भौतिक विचार नहीं है । एक और बात यहाँ है, सभी बद्ध आत्माऍ, वे भ्रम में हैं । एक चिकित्सक मान लीजिए, एक चिकित्सक एक मरीज के पास जाता है । वह होश में नहीं है, वह बकवास कर रहा है । इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसका इलाज करने से मना कर देगा । वह दोस्त के रूप में उससे व्यवहार करता है । हालांकि वह मरीज उसे बुरे भले नाम कहता है, बुरे नाम, फिर भी वह उसे दवा देता है ।  


भक्त: योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाए उसे एकान्त स्थान में रहना चाहिए अौर बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करना चाहिए उसे समस्त अाकांक्षाअों तथा संग्रहभाव की इच्छाअों से मुक्त होना चाहिए "
वैसे ही जैसे प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि "तुम पाप से नफरत करो, पापी से नहीं । " पापी से नहीं । यह बहुत अच्छा है । क्योंकि पापी भ्रम में है । वह पागल है अगर तुम उससे नफरत करोगे, तो तुम उसका भला कैसे करोगे? इसलिए जो लोग भक्त हैं, वास्तव में जो भगवान के दास हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं प्रभु यीशु मसीह की तरह, जब उन्हें सूली पर चढ़ाया जा रहा था, वे भगवान से अनुरोध कर रहे थे: "मेरे भगवान, उन्हें माफ कर दीजिये । वे जानते नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं । यह भक्त की स्थिति है । हाँ । क्योंकि वे भौतिकवादी सोच के पीछे पागल हो रहे हैं, इसलिए उनसे नफरत नहीं की जा सकती । कोई भी ।  


प्रभुपाद: हाँ । यह दिव्य जीवन की शुरुआत है । यह, इस अध्याय में, भगवान श्री कृष्ण योग प्रणाली के सिद्धांतों को सिखाने की कोशिश करेंगे । तो यहाँ वे शुरू कर रहे हैं । एक योगी को सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाना चाहिए । परमेश्वर का मतलब है है भगवान या कृष्ण । वे परमेश्वर हैं, जैसा कि मैने अभी समझाया, नित्यो नित्यानाम् चेतनश चेतनानाम (कथा उपनिषद २।२।१३) वे परम शाश्वत हैं । वे परम जीव हैं । तो पूरी योग प्रणाली परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए है । हम परमेश्वर नहीं हैं । तुम समझ सकते हो । परमेश्वर भगवान हैं । यह द्वैत-वाद है । द्वंद्व । द्वंद्व का मतलब है भगवान मुझ से अलग हैं वे सर्वोच्च हैं मैं अधीनस्थ हूँ वे महान हैं, मैं छोटा हूं । वे अनंत हैं, मैं अत्यल्प हूँ । यह संबंध है । तो क्योंकि हम अत्यल्प हैं , हमें अपने मान को केंद्रित करना चाहिए अनंत पर, परमेश्चर । फिर, उसे अकेले रहना चाहिए । अकेली । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है । अकेले रहने का मतलब है उन लोगों के साथ न रहने जो कृष्ण भावनाभावित नहीं है या भगवान भावनाभावित नहीं हैं यही अकेले रहने का मतलब है । उसे एकांत जगह में अकेले रहना चाहिए । एकांत जगह, जहाँ हो, जंगल में । जंगल में । यह बहुत एकांत जगह है लेकिन इस युग में जंगल में जाकर एक एकांत जगह का पता लगाना बहुत मुश्किल है एकांत जगह वह है जहाँ केवल भगवान भावनामृत सिखाया जाता है वह एकांत जगह है । वह एकांत जगह है । तो फिर? और हमेशा ध्यान से अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए कैसे मन को नियंत्रित करें ? बस सर्वोच्च परमेश्वर या कृष्ण पर अपने मन को केंद्रित करें । किसी अौर पर नहीं
तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है कि नफरत का कोई सवाल ही नहीं है । हर किसी का स्वागत है । यहाँ अाइए हरे कृष्ण मंत्र का जप कीजिए कृष्ण प्रसाद लीजिए और भगवद-गीता से कुछ अच्छा तत्वज्ञान सुनिए, और अपने भौतिक बद्ध जीवन को सुधारने के लिए प्रयास करें । यह कार्यक्रम है - कृष्ण भावनामृत । भगवान चैतन्य नें इस आंदोलन की शुरुआत की यारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश ([[Vanisource:CC Madhya 7.128|चैतन्य चरितामृत मध्य ७.१२८]]) | "जिससे तुम मिलो, जहाँ भी तुम मिलो, केवल उसे यह कृष्ण भावनामृत सिखाने के लिए प्रयास करो " कृष्ण-कथा । भगवान कृष्ण के शब्द तुम खुश हो जाअोगे और वे खुश हो जाऍगे अागे पढो ।  


स वै मन: कृष्ण-पदारविंदयो: ([[Vanisource:SB 9.4.18|श्री भ ९।४।१८]]) फिर तुम्हारा...... उस दिन मैने समझाया था, अगर तुम अपने मन को हमेशा कृष्ण में केंद्रित करो .... कृष्ण सूरज की तरह हैं, प्रकाश । तो मन पर अंधेरा होने का कोई सवाल नहीं है । कोई संभावना नहीं रहेगी । जैसे सूरज की रोशनी में, अंधकार की कोई संभावना नहीं है । इसी तरह, अगर तुम हमेशा अपने मन में कृष्ण को रखोगे, यह माया या भ्रम वहाँ तक नहीं पहुँच सकता । वह वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ हो जाएगा । यही प्रक्रिया है । उसे अाकांक्षाअों और संग्रहभाव की भावना से मुक्त होना चाहिए । पूरा भौतिक रोग यही है कि मैं संग्रह करना चाहता हूँ - अौर अाकांक्षा । और जो भी खो जाता है, मैं उसके लिए विलाप करता हूँ । अौर जो कुछ भी है, जो नहीं हैं हम, उसके लिए इच्छा करना । तो, ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा ([[Vanisource:SB 9.4.18|श्री भ ९।४।१८]]) - जो वास्तव मेंमभगवान के प्रति सजग है ,कृष्ण भावनाभावित, उसे भौतिक संग्रह की कोई इच्छा नहीं है । उसकी एकमात्र इच्छा है कृष्ण की सेवा करना । इसका मतलब है कि उसकी इच्छा शुद्ध है । यह इच्छा है, तुम इच्छा नहीं त्याग सकते हो । यह संभव नहीं है । तुम जीव हो, तुम्हे इच्छा होनी चाहिए । लेकिन हमारी इच्छा, वर्तमान क्षण में, दूषित है । "मैं चाहता हूँ, मैं भौतिक संग्रह से अपने इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहता हूँ ।" लेकिन अगर तुम श्री कृष्ण की इच्छा करते हो, भौतिक संग्रह की यह इच्छा स्वत: ही गायब हो जाएगी । अागे पढो ।
भक्त: "योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाए । उसे एकान्त स्थान में रहना चाहिए अौर बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करना चाहिए । उसे समस्त अाकांक्षाअों तथा संग्रहभाव की इच्छाअों से मुक्त होना चाहिए ।"
 
प्रभुपाद: हाँ । यह दिव्य जीवन की शुरुआत है । यह, इस अध्याय में, भगवान श्री कृष्ण योग प्रणाली के सिद्धांतों को सिखाने की कोशिश करेंगे । तो यहाँ वे शुरू कर रहे हैं । एक योगी को सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाना चाहिए । परमेश्वर का  मतलब है है भगवान या कृष्ण । वे परमेश्वर हैं, जैसा कि मैने अभी समझाया, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | वे परम शाश्वत हैं । वे परम जीव हैं ।
 
तो पूरी योग प्रणाली परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए है । हम परमेश्वर नहीं हैं । ये तुम समझ सकते हो । परमेश्वर भगवान हैं । यह द्वैत-वाद है । द्वंद्व ।  द्वंद्व का मतलब है भगवान मुझ से अलग हैं । वे सर्वोच्च हैं । मैं अधीनस्थ हूँ । वे महान हैं, मैं छोटा हूं । वे अनंत हैं, मैं अत्यल्प हूँ । यह संबंध है । तो क्योंकि हम अत्यल्प हैं, हमें अपने मन को केंद्रित करना चाहिए अनंत पर, परमेश्चर पर । फिर, उसे अकेले रहना चाहिए । अकेले । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ।
 
अकेले रहने का मतलब है उन लोगों के साथ न रहना जो कृष्ण भावनाभावित नहीं है या भगवद भावनाभावित नहीं हैं । यही अकेले रहने का मतलब है । उसे एकांत जगह में अकेले रहना चाहिए । एकांत जगह, जहाँ हो, जंगल में । जंगल में । यह बहुत एकांत जगह है । लेकिन इस युग में जंगल में जाकर एक एकांत जगह का पता लगाना बहुत मुश्किल है । एकांत जगह वह है जहाँ केवल भगवद भावनामृत सिखाया जाता है । वह एकांत जगह है । वह एकांत जगह है । तो फिर? और हमेशा ध्यान से अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए । कैसे मन को नियंत्रित करें ? बस सर्वोच्च परमेश्वर या कृष्ण पर अपने मन को केंद्रित करें । किसी अौर पर नहीं ।
 
स वै मन: कृष्ण-पदारविंदयो: ([[Vanisource:SB 9.4.18-20|श्रीमद भागवतम ९.४.१८]]) | फिर तुम्हारा... उस दिन मैने समझाया था, अगर तुम अपने मन को हमेशा कृष्ण में केंद्रित करो... कृष्ण सूर्य की तरह हैं, प्रकाश की तरह । तो मन पर अंधेरा होने का कोई सवाल नहीं है । कोई संभावना नहीं रहेगी । जैसे सूर्यप्रकाश में, अंधकार की कोई संभावना नहीं है । इसी तरह, अगर तुम हमेशा अपने मन में कृष्ण को रखोगे, यह माया या भ्रम वहाँ तक नहीं पहुँच सकता । वह वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ हो जाएगा । यही प्रक्रिया है । उसे अाकांक्षाअों और संग्रहभाव की भावना से मुक्त होना चाहिए । पूरा भौतिक रोग यही है कि मैं संग्रह करना चाहता हूँ - अौर अाकांक्षा । और जो भी खो जाता है, मैं उसके लिए विलाप करता हूँ । अौर जो कुछ भी है, जो नहीं हैं हम, उसके लिए इच्छा करना ।  
 
तो, ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा ([[Vanisource:SB 9.4.18-20|श्रीमद भागवतम ९.४.१८]]) - जो वास्तव में भगवद भावनाभावित, कृष्ण भावनाभावित, है, उसे भौतिक संग्रह की कोई इच्छा नहीं है । उसकी एकमात्र इच्छा है कृष्ण की सेवा करना । इसका मतलब है कि उसकी इच्छा शुद्ध है । यह इच्छा है, तुम इच्छा नहीं त्याग सकते हो । यह संभव नहीं है । तुम जीव हो, तुम्हे इच्छा होनी चाहिए । लेकिन हमारी इच्छा, वर्तमान क्षण में, दूषित है । "मैं चाहता हूँ, मैं भौतिक संग्रह से अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहता हूँ ।" लेकिन अगर तुम कृष्ण के लिए इच्छा करते हो, भौतिक संग्रह की यह इच्छा स्वत: ही गायब हो जाएगी । अागे पढो ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 17:45, 1 October 2020



Lecture on BG 6.6-12 -- Los Angeles, February 15, 1969

भक्त: "व्यक्ति अौर भी उन्नत माना जाता है जब वह - निष्कपट हितैशीयों, प्रिय मित्रों, ईर्षालुओ, शत्रुअों, पुण्यअात्माअों, पापियों अौर तटस्थों अौर मध्यस्थों - को समान भाव से देखता है (भ.गी. ६.९) ।"

प्रभुपाद: हाँ । यह उन्नति का संकेत है । क्योंकि यहाँ इस भौतिक दुनिया में, दोस्त और दुश्मन की गणना, सब कुछ इस शरीर के साथ, या इन्द्रिय संतुष्टि के संबंध में है । लेकिन भगवान या निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति में, ऐसा कोई भौतिक विचार नहीं है । एक और बात यहाँ है, सभी बद्ध आत्माऍ, वे भ्रम में हैं । एक चिकित्सक मान लीजिए, एक चिकित्सक एक मरीज के पास जाता है । वह होश में नहीं है, वह बकवास कर रहा है । इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसका इलाज करने से मना कर देगा । वह दोस्त के रूप में उससे व्यवहार करता है । हालांकि वह मरीज उसे बुरे भले नाम कहता है, बुरे नाम, फिर भी वह उसे दवा देता है ।

वैसे ही जैसे प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि "तुम पाप से नफरत करो, पापी से नहीं । " पापी से नहीं । यह बहुत अच्छा है । क्योंकि पापी भ्रम में है । वह पागल है । अगर तुम उससे नफरत करोगे, तो तुम उसका भला कैसे करोगे? इसलिए जो लोग भक्त हैं, वास्तव में जो भगवान के दास हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं । प्रभु यीशु मसीह की तरह, जब उन्हें सूली पर चढ़ाया जा रहा था, वे भगवान से अनुरोध कर रहे थे: "मेरे भगवान, उन्हें माफ कर दीजिये । वे जानते नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं । यह भक्त की स्थिति है । हाँ । क्योंकि वे भौतिकवादी सोच के पीछे पागल हो रहे हैं, इसलिए उनसे नफरत नहीं की जा सकती । कोई भी ।

तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है कि नफरत का कोई सवाल ही नहीं है । हर किसी का स्वागत है । यहाँ अाइए । हरे कृष्ण मंत्र का जप कीजिए । कृष्ण प्रसाद लीजिए और भगवद-गीता से कुछ अच्छा तत्वज्ञान सुनिए, और अपने भौतिक बद्ध जीवन को सुधारने के लिए प्रयास करें । यह कार्यक्रम है - कृष्ण भावनामृत । भगवान चैतन्य नें इस आंदोलन की शुरुआत की । यारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश (चैतन्य चरितामृत मध्य ७.१२८) | "जिससे तुम मिलो, जहाँ भी तुम मिलो, केवल उसे यह कृष्ण भावनामृत सिखाने के लिए प्रयास करो ।" कृष्ण-कथा । भगवान कृष्ण के शब्द । तुम खुश हो जाअोगे और वे खुश हो जाऍगे । अागे पढो ।

भक्त: "योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाए । उसे एकान्त स्थान में रहना चाहिए अौर बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करना चाहिए । उसे समस्त अाकांक्षाअों तथा संग्रहभाव की इच्छाअों से मुक्त होना चाहिए ।"

प्रभुपाद: हाँ । यह दिव्य जीवन की शुरुआत है । यह, इस अध्याय में, भगवान श्री कृष्ण योग प्रणाली के सिद्धांतों को सिखाने की कोशिश करेंगे । तो यहाँ वे शुरू कर रहे हैं । एक योगी को सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाना चाहिए । परमेश्वर का मतलब है है भगवान या कृष्ण । वे परमेश्वर हैं, जैसा कि मैने अभी समझाया, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | वे परम शाश्वत हैं । वे परम जीव हैं ।

तो पूरी योग प्रणाली परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए है । हम परमेश्वर नहीं हैं । ये तुम समझ सकते हो । परमेश्वर भगवान हैं । यह द्वैत-वाद है । द्वंद्व । द्वंद्व का मतलब है भगवान मुझ से अलग हैं । वे सर्वोच्च हैं । मैं अधीनस्थ हूँ । वे महान हैं, मैं छोटा हूं । वे अनंत हैं, मैं अत्यल्प हूँ । यह संबंध है । तो क्योंकि हम अत्यल्प हैं, हमें अपने मन को केंद्रित करना चाहिए अनंत पर, परमेश्चर पर । फिर, उसे अकेले रहना चाहिए । अकेले । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है ।

अकेले रहने का मतलब है उन लोगों के साथ न रहना जो कृष्ण भावनाभावित नहीं है या भगवद भावनाभावित नहीं हैं । यही अकेले रहने का मतलब है । उसे एकांत जगह में अकेले रहना चाहिए । एकांत जगह, जहाँ हो, जंगल में । जंगल में । यह बहुत एकांत जगह है । लेकिन इस युग में जंगल में जाकर एक एकांत जगह का पता लगाना बहुत मुश्किल है । एकांत जगह वह है जहाँ केवल भगवद भावनामृत सिखाया जाता है । वह एकांत जगह है । वह एकांत जगह है । तो फिर? और हमेशा ध्यान से अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए । कैसे मन को नियंत्रित करें ? बस सर्वोच्च परमेश्वर या कृष्ण पर अपने मन को केंद्रित करें । किसी अौर पर नहीं ।

स वै मन: कृष्ण-पदारविंदयो: (श्रीमद भागवतम ९.४.१८) | फिर तुम्हारा... उस दिन मैने समझाया था, अगर तुम अपने मन को हमेशा कृष्ण में केंद्रित करो... कृष्ण सूर्य की तरह हैं, प्रकाश की तरह । तो मन पर अंधेरा होने का कोई सवाल नहीं है । कोई संभावना नहीं रहेगी । जैसे सूर्यप्रकाश में, अंधकार की कोई संभावना नहीं है । इसी तरह, अगर तुम हमेशा अपने मन में कृष्ण को रखोगे, यह माया या भ्रम वहाँ तक नहीं पहुँच सकता । वह वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ हो जाएगा । यही प्रक्रिया है । उसे अाकांक्षाअों और संग्रहभाव की भावना से मुक्त होना चाहिए । पूरा भौतिक रोग यही है कि मैं संग्रह करना चाहता हूँ - अौर अाकांक्षा । और जो भी खो जाता है, मैं उसके लिए विलाप करता हूँ । अौर जो कुछ भी है, जो नहीं हैं हम, उसके लिए इच्छा करना ।

तो, ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा (श्रीमद भागवतम ९.४.१८) - जो वास्तव में भगवद भावनाभावित, कृष्ण भावनाभावित, है, उसे भौतिक संग्रह की कोई इच्छा नहीं है । उसकी एकमात्र इच्छा है कृष्ण की सेवा करना । इसका मतलब है कि उसकी इच्छा शुद्ध है । यह इच्छा है, तुम इच्छा नहीं त्याग सकते हो । यह संभव नहीं है । तुम जीव हो, तुम्हे इच्छा होनी चाहिए । लेकिन हमारी इच्छा, वर्तमान क्षण में, दूषित है । "मैं चाहता हूँ, मैं भौतिक संग्रह से अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहता हूँ ।" लेकिन अगर तुम कृष्ण के लिए इच्छा करते हो, भौतिक संग्रह की यह इच्छा स्वत: ही गायब हो जाएगी । अागे पढो ।