HI/Prabhupada 0656 - जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं

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Lecture on BG 6.6-12 -- Los Angeles, February 15, 1969

भक्त: "वह मनुष्य अौर भी उन्नत माना जाता है जब वह निष्कपट हितैशीयों, प्रिय मित्रों, ईर्ष्ालुअों, शत्रुअों, पुण्यअात्माअों, पापियों अौर तटस्थों अौर मध्यस्थों -को समान भाव से देखता है (भ गी ६।९) ।"

प्रभुपाद: हाँ । यह उन्नति का संकेत है । क्योंकि यहाँ इस भौतिक दुनिया में, दोस्त और दुश्मन की गणना, सब कुछ इस शरीर के साथ, या इन्द्रिय संतुष्टि के संबंध में है । लेकिन भगवान या निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति में, ऐसा कोई भौतिक विचार नहीं है । एक और बात यहाँ है, सभी सशर्त आत्माऍ, वे भ्रम में हैं । एक चिकित्सक मान लीजिए, एक चिकित्सक एक मरीज के पास जाता है । वह होश में नहीं है, वह बकवास कर रहा है । इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसका इलाज करने से मना कर देगा । वह दोस्त के रूप में उससे व्यवहार करता है । हालांकि वह मरीज उसे बुरे भले नाम कहता है, बुरे नाम, फिर भी वह उसे दवा देता है । वैसे ही जैसे प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि "तुम पाप से नफरत करो, पापी से नहीं । " पापी से नहीं । यह बहुत अच्छा है । क्योंकि पापी भ्रम में है । वह पागल है । अगर तुम उससे नफरत करोगे, तो तुम उसका भला कैसे करोगे? इसलिए जो लोग भक्त हैं, वास्तव में जो भगवान के दास हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं । प्रभु यीशु मसीह की तरह, जब उन्हें सूली पर चढ़ाया जा रहा था, वे भगवान से अनुरोध कर रहे थे : "मेरे भगवान, उन्हें माफ कर दीजिये । वे जानते नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं । यह भक्त की स्थिति है । हाँ । क्योंकि वे भौतिकवादी सोच के पीछे पागल हो रहे हैं, इसलिए उनसे नफरत नहीं किया जा सकता है । कोई भी । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है कि नफरत का कोई सवाल ही नहीं है । हर किसी का स्वागत है । यहाँ अाइए । हरे कृष्ण मंत्र का जाप कीजिए । कृष्ण प्रसाद लीजिए और भगवद-गीता से कुछ अच्छा तत्वज्ञान सुनिए, और अपनी भौतिक सशर्त जीवन को सुधारने के लिए प्रयास करें । यह कार्यक्रम है - कृष्ण भावनामृत । भगवान चैतन्य नें इस आंदोलन की शुरुआत की । यारे देख, तारे कह कृष्ण उपदेश (चै च मध्य ७।१२८) "जिससे तुम मिलो, जहाँ भी तुम मिलो , केवल उसे यह कृष्ण भावनामृत सिखाने के लिए प्रयास करो ।" कृष्ण-कथा । भगवान श्री कृष्ण से शब्द । तुम खुश हो जाअोगे और वे खुश हो जाऍगे । अागे पढो ।

भक्त: योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाए । उसे एकान्त स्थान में रहना चाहिए अौर बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करना चाहिए । उसे समस्त अाकांक्षाअों तथा संग्रहभाव की इच्छाअों से मुक्त होना चाहिए ।"

प्रभुपाद: हाँ । यह दिव्य जीवन की शुरुआत है । यह, इस अध्याय में, भगवान श्री कृष्ण योग प्रणाली के सिद्धांतों को सिखाने की कोशिश करेंगे । तो यहाँ वे शुरू कर रहे हैं । एक योगी को सदैव अपने मन को परमेश्वर में लगाना चाहिए । परमेश्वर का मतलब है है भगवान या कृष्ण । वे परमेश्वर हैं, जैसा कि मैने अभी समझाया, नित्यो नित्यानाम् चेतनश चेतनानाम (कथा उपनिषद २।२।१३) वे परम शाश्वत हैं । वे परम जीव हैं । तो पूरी योग प्रणाली परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए है । हम परमेश्वर नहीं हैं । तुम समझ सकते हो । परमेश्वर भगवान हैं । यह द्वैत-वाद है । द्वंद्व । द्वंद्व का मतलब है भगवान मुझ से अलग हैं । वे सर्वोच्च हैं । मैं अधीनस्थ हूँ । वे महान हैं, मैं छोटा हूं । वे अनंत हैं, मैं अत्यल्प हूँ । यह संबंध है । तो क्योंकि हम अत्यल्प हैं , हमें अपने मान को केंद्रित करना चाहिए अनंत पर, परमेश्चर । फिर, उसे अकेले रहना चाहिए । अकेली । यह सबसे महत्वपूर्ण बात है । अकेले रहने का मतलब है उन लोगों के साथ न रहने जो कृष्ण भावनाभावित नहीं है या भगवान भावनाभावित नहीं हैं । यही अकेले रहने का मतलब है । उसे एकांत जगह में अकेले रहना चाहिए । एकांत जगह, जहाँ हो, जंगल में । जंगल में । यह बहुत एकांत जगह है । लेकिन इस युग में जंगल में जाकर एक एकांत जगह का पता लगाना बहुत मुश्किल है । एकांत जगह वह है जहाँ केवल भगवान भावनामृत सिखाया जाता है । वह एकांत जगह है । वह एकांत जगह है । तो फिर? और हमेशा ध्यान से अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए । कैसे मन को नियंत्रित करें ? बस सर्वोच्च परमेश्वर या कृष्ण पर अपने मन को केंद्रित करें । किसी अौर पर नहीं ।

स वै मन: कृष्ण-पदारविंदयो: (श्री भ ९।४।१८) फिर तुम्हारा...... उस दिन मैने समझाया था, अगर तुम अपने मन को हमेशा कृष्ण में केंद्रित करो .... कृष्ण सूरज की तरह हैं, प्रकाश । तो मन पर अंधेरा होने का कोई सवाल नहीं है । कोई संभावना नहीं रहेगी । जैसे सूरज की रोशनी में, अंधकार की कोई संभावना नहीं है । इसी तरह, अगर तुम हमेशा अपने मन में कृष्ण को रखोगे, यह माया या भ्रम वहाँ तक नहीं पहुँच सकता । वह वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ हो जाएगा । यही प्रक्रिया है । उसे अाकांक्षाअों और संग्रहभाव की भावना से मुक्त होना चाहिए । पूरा भौतिक रोग यही है कि मैं संग्रह करना चाहता हूँ - अौर अाकांक्षा । और जो भी खो जाता है, मैं उसके लिए विलाप करता हूँ । अौर जो कुछ भी है, जो नहीं हैं हम, उसके लिए इच्छा करना । तो, ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा (श्री भ ९।४।१८) - जो वास्तव मेंमभगवान के प्रति सजग है ,कृष्ण भावनाभावित, उसे भौतिक संग्रह की कोई इच्छा नहीं है । उसकी एकमात्र इच्छा है कृष्ण की सेवा करना । इसका मतलब है कि उसकी इच्छा शुद्ध है । यह इच्छा है, तुम इच्छा नहीं त्याग सकते हो । यह संभव नहीं है । तुम जीव हो, तुम्हे इच्छा होनी चाहिए । लेकिन हमारी इच्छा, वर्तमान क्षण में, दूषित है । "मैं चाहता हूँ, मैं भौतिक संग्रह से अपने इन्द्रियों को संतुष्ट करना चाहता हूँ ।" लेकिन अगर तुम श्री कृष्ण की इच्छा करते हो, भौतिक संग्रह की यह इच्छा स्वत: ही गायब हो जाएगी । अागे पढो ।