HI/Prabhupada 0658 - श्रीमद भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति योग है, संयुक्त: Difference between revisions

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भक्तों: श्रील प्रभुपाद कI जय ।
भक्त: श्रील प्रभुपाद कI जय ।  


प्रभुपाद: हरे कृष्ण । सांख्य-योग अष्टांग-योग है । यह आसन और ध्यान, इसे सांख्य-योग कहा जाता है । और ज्ञानयोग का मतलब है दार्शनिक प्रक्रिया के माध्यम से, विश्लेषणात्मक प्रक्रिया से, ब्रह्मन क्या है और क्या ब्रह्मन नहीं है । नेति नेति । यही ज्ञानयोग है । जैसे वेदांत-सूत्र, ज्ञानयोग । तुम वेदांत-सूत्र का अध्ययन करो, यह कहता है जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्री भ १।१।१]]) वे एक संकेत देते हैं कि परम ब्रह्रन परम सत्य वह है जिस से सब कुछ प्रकट होता है । अब हम समझने की कोशिश करते हैं कि वह क्या हो सकता है । यही श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । निरपेक्ष सत्य की प्रकृति क्या है । निरपेक्ष सत्य, श्रीमद-भागवतम के पहले श्लोक में यह कहा जाता है: जन्मादि अस्य यतो अन्वयाद इतरतश चार्थेषु अभिज्ञ स्वराट ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्री भ १।१।१]]) । अब निरपेक्ष सत्य, अगर वे परम कारण है हर उत्पत्ति के, तो लक्षण क्या हैं? भागवत कहता है, वे संज्ञान होने चाहिए । वे मरे नहीं हैं । वे संज्ञान होने चाहिए । और संज्ञान किस तरह का? अन्वयाद इतरतश चार्थेषु । जैसे मैं संज्ञान हूँ , तुम भी संज्ञान हो । लेकिन मैं अपने अाप को नहीं जानता, मेरे शरीर में कितने बाल हैं । मैं दावा कर रहा हूँ कि यह मेरा सिर है । लेकिन अगर मैं किसी से पूछता हूँ "क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारे शरीर में कितने बाल हैं ?" उस तरह का ज्ञान, ज्ञान नहीं है । लेकिन परमेश्वर, भागवत कहता है कि वे सब कुछ जानते हैं, परोक्ष रूप से और अपरोक्ष रूप से । मैं जानता हूँ कि मैं खा रहा हूँ, लेकिन मेरे खाने की प्रक्रिया रक्त की परिसंचरण में कैसे मदद कर रहा है, यह मैं नहीं जानता, कैसे यह तब्दील हो रहा है, कैसे यह काम कर रहा है, कैसे यह नसों के माध्यम से जा रहा है ।मुझे कुछ भी पता नहीं है । लेकिन भगवान वह होना चाहिए जो सब कुछ जानता है - सृष्टि के हर कोने में क्या हो रहा है उसे पता होना चाहिए । इसलिए भागवत समझाता है, कि परम सत्य, जिस से सब कुछ प्रकट हुअा है उसे सर्वोच्च संज्ञान होना चाहिए. संज्ञान । अभिज्ञ, अभिज्ञ का मतलब है संज्ञान । तुम सवाल कर सकते हो, "अगर वह इतना शक्तिशाली है, बुद्धिमान और संज्ञान है, तो उसने यह सब सीखा होगा किसी अपने जैसे व्यक्ति से.... नहीं । हम कहते हैं कि अगर उसने किसी और से ज्ञान सीख है, तो वह भगवान नहीं है । स्वराट । स्वचालित रूप से । वह स्वयं स्वतंत्र है । यह ज्ञानयोग है । अध्ययन, किस प्रकृति से ... विश्लेषण करो कि उस परमेश्वर का स्वभाव कैसे होगा जिससे सब कुछ प्रकट हुअाल हो रहा है । यह श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । इसलिए श्रीमद-भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति-योग है, संयुक्त । हाँ । ज्ञानयोग प्रक्रिया का मतलब है निरपेक्ष सत्य को खोजना, या उसके स्वभाव को समज्ञना तत्वज्ञान से । और इसे ज्ञानयोग कहा जाता है । और हमारा मार्ग भक्ति-योग है । भक्ति-योग का मतलब है, प्रक्रिया वही है, लक्ष्य वही है । एक तत्वज्ञान द्वार परम अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है एक परमेश्वर पर अपने मन को केंद्रित करने की कोशिश कर रहा है और, अन्य, भक्त वे केवल परमेश्वर की सेवा करने के लिए खुद को संलग्न करते हैं ताकी परमेश्वर खुद का अनुभव कराऍ । एक प्रक्रिया है आरोही प्रक्रिया से समझना । और एक अन्य प्रक्रिया अवरोही प्रक्रिया । जैसे अंधेरे में, तुम सूरज को समझने की कोशिश करते हो आरोही प्रक्रिया से अपने बहुत शक्तिशाली हवाई जहाज या स्फुटनिक उड़ान से, आकाश के चक्कर लगाना, तुम नहीं देख सकते हो । लेकिन अवरोही प्रक्रिया से, सूरज उगता है, तुम तुरंत समझ सकते हो । आरोही प्रक्रिया - मेरे प्रयास, प्रेरक प्रक्रिया कहा जाता है । प्रेरक प्रक्रिया । जैसे मेरे पिता कहते हैं आदमी नश्वर है । मैं यह स्वीकार करता हूँ । अब अगर तुम अध्ययन करना चाहो कि आदमी नश्वर है तो तुम करो । तुम कई हजारों अादमियों को देखो, कि वे अमर हैं या नश्वर हैं । इतना समय लगेगा । लेकि अगर तुम उत्तम अधिकारी से ज्ञान लेते हो, कि आदमी नश्वर है, तो तुम्हारा ज्ञान पूरा है । तो
प्रभुपाद: हरे कृष्ण । सांख्य-योग अष्टांग-योग है । यह आसन और ध्यान, इसे सांख्य-योग कहा जाता है । और ज्ञानयोग का मतलब है तत्वज्ञानी प्रक्रिया के माध्यम से, विश्लेषणात्मक प्रक्रिया से, ब्रह्म क्या है और ब्रह्म क्या नहीं है । नेति नेति । यही ज्ञानयोग है । जैसे वेदांत-सूत्र, ज्ञानयोग । तुम वेदांत-सूत्र का अध्ययन करो, यह कहता है जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) | वे एक संकेत देते हैं कि परम ब्रह्म, परम सत्य वह है जिस से सब कुछ प्रकट होता है । अब हम समझने की कोशिश करते हैं कि वह क्या हो सकता है । यही श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । निरपेक्ष सत्य की प्रकृति क्या है ।  


अथापि ते देव पदाम्भुज द्वय
निरपेक्ष सत्य, श्रीमद-भागवतम के पहले श्लोक में यह कहा जाता है: जन्मादि अस्य यतो अन्वयाद इतरतश चार्थेषु अभिज्ञ स्वराट ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) । अब निरपेक्ष सत्य, अगर वे परम कारण है हर उत्पत्ति के, तो लक्षण क्या हैं? भागवत कहता है, वे संज्ञान होने चाहिए । वे मृत नहीं हैं । वे संज्ञान होने चाहिए । और संज्ञान किस तरह का ? अन्वयाद इतरतश चार्थेषु । जैसे मैं संज्ञान हूँ, तुम भी संज्ञान हो । लेकिन मैं अपने अाप को नहीं जानता, मेरे शरीर में कितने बाल हैं । मैं दावा कर रहा हूँ कि यह मेरा सिर है । लेकिन अगर मैं किसी से पूछता हूँ "क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारे शरीर में कितने बाल हैं ?" उस तरह का ज्ञान, ज्ञान नहीं है ।
प्रसाद लेशानुगृतित एव हि
जानाति तत्वम भगवन महिम्नो
न चान्य एको अपि चिरम् विचिन्वन
:([[Vanisource:SB 10.14.29|श्री भ १०।१४।२९]])


इसलिए कहा जाता है, "मेरे प्रिय प्रभु, जिस व्यक्ति को अापका थोडा सा भी अनुग्रह प्राप्त है, वह बहुत जल्दी आपको समझ सकता है । और आरोही प्रक्रिया से जो आपको समझने की कोशिश कर रहे हैं वे साल लाखों सालों के लिए अटकलें करते रहें, वे कभी नहीं समझ पाऍगे ।" वे कभी नहीं समझ पाऍगे । वे हताशा और भ्रम में रहेंगे । "ओह, भगवान शून्य हैं ।" बस समाप्त हो गया । अगर भगवान शून्य हैं तो फिर शूण्य से कैसे इतने सारे, मेरे कहने का मतलब है, आंकड़े बाहर आ रहे हैं ? भगवान शून्य नहीं है । भागवत कहता है, वेदांत कहता है, जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्री भ १।१।१]]) सब कुछ परमेश्वर से उत्पन्न होता है । अब हमें अध्ययन करना है कि कैसे यह उत्पन्न होता है । वह भी समझाया गया है, प्रक्रिया क्या है, तरीाक क्या है, कैसे पता करें । यह वेदांत-सूत्र है । वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । वेद का मतलब है ज्ञान और अन्त का मतलब है परम । तो वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । परम ज्ञान है परमेश्वर ।
लेकिन परमेश्वर, भागवत कहता है कि वे सब कुछ जानते हैं, परोक्ष रूप से और अपरोक्ष रूप से । मैं जानता हूँ कि मैं खा रहा हूँ, लेकिन मेरे खाने की प्रक्रिया रक्त की परिसंचरण में कैसे मदद कर रहा है, यह मैं नहीं जानता, कैसे यह तब्दील हो रहा है, कैसे यह काम कर रहा है, कैसे यह नसों के माध्यम से जा रहा है । मुझे कुछ भी पता नहीं है । लेकिन भगवान वह होने चाहिए जो सब कुछ जानते है - सृष्टि के हर कोने में क्या हो रहा है उन्हें पता होना चाहिए । इसलिए भागवत समझाता है, कि परम सत्य, जिस से सब कुछ प्रकट हुअा है, उसे सर्वोच्च संज्ञान होना चाहिए | संज्ञान ।
 
अभिज्ञ, अभिज्ञ का मतलब है संज्ञान । तुम सवाल कर सकते हो, "अगर वे इतने शक्तिशाली है, बुद्धिमान और संज्ञान है, तो उन्हें यह सब सीखा होगा किसी अपने जैसे व्यक्ति से..." नहीं । हम कहते हैं कि अगर उसने किसी और से ज्ञान सीखा है, तो वह भगवान नहीं है । स्वराट । स्वचालित रूप से । वह स्वयं स्वतंत्र है । यह ज्ञानयोग है । अध्ययन, किस प्रकृति से... विश्लेषण करो कि उस परमेश्वर का स्वभाव कैसा होगा जिससे सब कुछ प्रकट हो रहा है । यह श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । इसलिए श्रीमद-भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति-योग है, संयुक्त । हाँ ।
 
ज्ञानयोग प्रक्रिया का मतलब है निरपेक्ष सत्य को खोजना, या उसके स्वभाव को समज्ञना तत्वज्ञान से । और इसे ज्ञानयोग कहा जाता है । और हमारा मार्ग भक्ति-योग है । भक्ति-योग का मतलब है, प्रक्रिया वही है, लक्ष्य वही है । एक तत्वज्ञान द्वार परम अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है, एक परमेश्वर पर अपने मन को केंद्रित करने की कोशिश कर रहा है, और, अन्य, भक्त, वे केवल परमेश्वर की सेवा करने के लिए खुद को संलग्न करते हैं ताकी परमेश्वर खुद का अनुभव कराऍ । एक प्रक्रिया है आरोही प्रक्रिया से समझना । और एक अन्य प्रक्रिया अवरोही प्रक्रिया ।
 
जैसे अंधेरे में, तुम सूर्य को समझने की कोशिश करते हो आरोही प्रक्रिया से, अपने बहुत शक्तिशाली हवाई जहाज या स्फुटनिक उड़ान से, आकाश के चक्कर लगाना, तुम नहीं देख सकते हो । लेकिन अवरोही प्रक्रिया से, सूर्य उगता है, तुम तुरंत समझ सकते हो । आरोही प्रक्रिया - मेरे प्रयास, प्रेरक प्रक्रिया कहा जाता है । प्रेरक प्रक्रिया । जैसे मेरे पिता कहते हैं आदमी नश्वर है । मैं यह स्वीकार करता हूँ । अब अगर तुम अध्ययन करना चाहो कि आदमी नश्वर है तो तुम करो । तुम कई हजारों अादमियों को देखो, कि वे अमर हैं या नश्वर हैं ।  इतना समय लगेगा । लेकि अगर तुम उत्तम अधिकारी से ज्ञान लेते हो, कि आदमी नश्वर है, तो तुम्हारा ज्ञान पूरा है । तो
 
:अथापि ते देव पदाम्भुज द्वय
:प्रसाद लेशानुगृहित एव हि
:जानाति तत्वम भगवन महिम्नो
:न चान्य एको अपि चिरम विचिन्वन
:([[Vanisource:SB 10.14.29|श्रीमद भागवतम १०.१४.२९]]) ।
 
इसलिए कहा जाता है, "मेरे प्रिय प्रभु, जिस व्यक्ति को अापका थोडा सा भी अनुग्रह प्राप्त है, वह बहुत जल्दी आपको समझ सकता है । और आरोही प्रक्रिया से जो आपको समझने की कोशिश कर रहे हैं वे साल लाखों सालों के लिए अटकलें करते रहें, वे कभी नहीं समझ पाऍगे ।" वे कभी नहीं समझ पाऍगे । वे हताशा और भ्रम में रहेंगे । "ओह, भगवान शून्य हैं ।" बस, समाप्त हो गया । अगर भगवान शून्य हैं तो फिर शून्य से कैसे इतने सारे, मेरे कहने का मतलब है, आंकड़े बाहर आ रहे हैं ? भगवान शून्य नहीं है । भागवत कहता है, वेदांत कहता है, जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) | सब कुछ परमेश्वर से उत्पन्न होता है । अब हमें अध्ययन करना है कि कैसे यह उत्पन्न होता है । वह भी समझाया गया है, प्रक्रिया क्या है, तरिका क्या है, कैसे पता करें । यह वेदांत-सूत्र है । वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । वेद का मतलब है ज्ञान और अन्त का मतलब है परम । तो वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । परम ज्ञान है परमेश्वर ।  
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Lecture on BG 6.13-15 -- Los Angeles, February 16, 1969

भक्त: श्रील प्रभुपाद कI जय ।

प्रभुपाद: हरे कृष्ण । सांख्य-योग अष्टांग-योग है । यह आसन और ध्यान, इसे सांख्य-योग कहा जाता है । और ज्ञानयोग का मतलब है तत्वज्ञानी प्रक्रिया के माध्यम से, विश्लेषणात्मक प्रक्रिया से, ब्रह्म क्या है और ब्रह्म क्या नहीं है । नेति नेति । यही ज्ञानयोग है । जैसे वेदांत-सूत्र, ज्ञानयोग । तुम वेदांत-सूत्र का अध्ययन करो, यह कहता है जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) | वे एक संकेत देते हैं कि परम ब्रह्म, परम सत्य वह है जिस से सब कुछ प्रकट होता है । अब हम समझने की कोशिश करते हैं कि वह क्या हो सकता है । यही श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । निरपेक्ष सत्य की प्रकृति क्या है ।

निरपेक्ष सत्य, श्रीमद-भागवतम के पहले श्लोक में यह कहा जाता है: जन्मादि अस्य यतो अन्वयाद इतरतश चार्थेषु अभिज्ञ स्वराट (श्रीमद भागवतम १.१.१) । अब निरपेक्ष सत्य, अगर वे परम कारण है हर उत्पत्ति के, तो लक्षण क्या हैं? भागवत कहता है, वे संज्ञान होने चाहिए । वे मृत नहीं हैं । वे संज्ञान होने चाहिए । और संज्ञान किस तरह का ? अन्वयाद इतरतश चार्थेषु । जैसे मैं संज्ञान हूँ, तुम भी संज्ञान हो । लेकिन मैं अपने अाप को नहीं जानता, मेरे शरीर में कितने बाल हैं । मैं दावा कर रहा हूँ कि यह मेरा सिर है । लेकिन अगर मैं किसी से पूछता हूँ "क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारे शरीर में कितने बाल हैं ?" उस तरह का ज्ञान, ज्ञान नहीं है ।

लेकिन परमेश्वर, भागवत कहता है कि वे सब कुछ जानते हैं, परोक्ष रूप से और अपरोक्ष रूप से । मैं जानता हूँ कि मैं खा रहा हूँ, लेकिन मेरे खाने की प्रक्रिया रक्त की परिसंचरण में कैसे मदद कर रहा है, यह मैं नहीं जानता, कैसे यह तब्दील हो रहा है, कैसे यह काम कर रहा है, कैसे यह नसों के माध्यम से जा रहा है । मुझे कुछ भी पता नहीं है । लेकिन भगवान वह होने चाहिए जो सब कुछ जानते है - सृष्टि के हर कोने में क्या हो रहा है उन्हें पता होना चाहिए । इसलिए भागवत समझाता है, कि परम सत्य, जिस से सब कुछ प्रकट हुअा है, उसे सर्वोच्च संज्ञान होना चाहिए | संज्ञान ।

अभिज्ञ, अभिज्ञ का मतलब है संज्ञान । तुम सवाल कर सकते हो, "अगर वे इतने शक्तिशाली है, बुद्धिमान और संज्ञान है, तो उन्हें यह सब सीखा होगा किसी अपने जैसे व्यक्ति से..." नहीं । हम कहते हैं कि अगर उसने किसी और से ज्ञान सीखा है, तो वह भगवान नहीं है । स्वराट । स्वचालित रूप से । वह स्वयं स्वतंत्र है । यह ज्ञानयोग है । अध्ययन, किस प्रकृति से... विश्लेषण करो कि उस परमेश्वर का स्वभाव कैसा होगा जिससे सब कुछ प्रकट हो रहा है । यह श्रीमद-भागवतम में विस्तार से बताया गया है । इसलिए श्रीमद-भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति-योग है, संयुक्त । हाँ ।

ज्ञानयोग प्रक्रिया का मतलब है निरपेक्ष सत्य को खोजना, या उसके स्वभाव को समज्ञना तत्वज्ञान से । और इसे ज्ञानयोग कहा जाता है । और हमारा मार्ग भक्ति-योग है । भक्ति-योग का मतलब है, प्रक्रिया वही है, लक्ष्य वही है । एक तत्वज्ञान द्वार परम अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है, एक परमेश्वर पर अपने मन को केंद्रित करने की कोशिश कर रहा है, और, अन्य, भक्त, वे केवल परमेश्वर की सेवा करने के लिए खुद को संलग्न करते हैं ताकी परमेश्वर खुद का अनुभव कराऍ । एक प्रक्रिया है आरोही प्रक्रिया से समझना । और एक अन्य प्रक्रिया अवरोही प्रक्रिया ।

जैसे अंधेरे में, तुम सूर्य को समझने की कोशिश करते हो आरोही प्रक्रिया से, अपने बहुत शक्तिशाली हवाई जहाज या स्फुटनिक उड़ान से, आकाश के चक्कर लगाना, तुम नहीं देख सकते हो । लेकिन अवरोही प्रक्रिया से, सूर्य उगता है, तुम तुरंत समझ सकते हो । आरोही प्रक्रिया - मेरे प्रयास, प्रेरक प्रक्रिया कहा जाता है । प्रेरक प्रक्रिया । जैसे मेरे पिता कहते हैं आदमी नश्वर है । मैं यह स्वीकार करता हूँ । अब अगर तुम अध्ययन करना चाहो कि आदमी नश्वर है तो तुम करो । तुम कई हजारों अादमियों को देखो, कि वे अमर हैं या नश्वर हैं । इतना समय लगेगा । लेकि अगर तुम उत्तम अधिकारी से ज्ञान लेते हो, कि आदमी नश्वर है, तो तुम्हारा ज्ञान पूरा है । तो

अथापि ते देव पदाम्भुज द्वय
प्रसाद लेशानुगृहित एव हि
जानाति तत्वम भगवन महिम्नो
न चान्य एको अपि चिरम विचिन्वन
(श्रीमद भागवतम १०.१४.२९) ।

इसलिए कहा जाता है, "मेरे प्रिय प्रभु, जिस व्यक्ति को अापका थोडा सा भी अनुग्रह प्राप्त है, वह बहुत जल्दी आपको समझ सकता है । और आरोही प्रक्रिया से जो आपको समझने की कोशिश कर रहे हैं वे साल लाखों सालों के लिए अटकलें करते रहें, वे कभी नहीं समझ पाऍगे ।" वे कभी नहीं समझ पाऍगे । वे हताशा और भ्रम में रहेंगे । "ओह, भगवान शून्य हैं ।" बस, समाप्त हो गया । अगर भगवान शून्य हैं तो फिर शून्य से कैसे इतने सारे, मेरे कहने का मतलब है, आंकड़े बाहर आ रहे हैं ? भगवान शून्य नहीं है । भागवत कहता है, वेदांत कहता है, जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) | सब कुछ परमेश्वर से उत्पन्न होता है । अब हमें अध्ययन करना है कि कैसे यह उत्पन्न होता है । वह भी समझाया गया है, प्रक्रिया क्या है, तरिका क्या है, कैसे पता करें । यह वेदांत-सूत्र है । वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । वेद का मतलब है ज्ञान और अन्त का मतलब है परम । तो वेदांत का मतलब है परम ज्ञान । परम ज्ञान है परमेश्वर ।