HI/Prabhupada 0671 - आनंद का मतलब है दो, कृष्ण और तुम

Revision as of 03:51, 12 August 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0671 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1969 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid URL, must be MP3

Lecture on BG 6.16-24 -- Los Angeles, February 17, 1969

भक्त: "इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है अौर अपने अापमें अानन्द ..."

प्रभुपाद: शुद्ध मन । यह शुद्ध मन है । शुद्ध मन का मतलब है अपने आप को समझना कि "मैं कृष्ण का हूँ ।" यही शुद्ध मन है मन, वर्तमान क्षण में मेरा मन दूषित है । क्यों ? मैं सोच रहा हूँ कि मैं इसका हूँ, मैं उसका हूँ, मैं इसका हूँ । लेकिन जब मेरे मन दृढ होत जाता है "मैं कृष्ण का हूँ ।" यही मेरी पूर्णता है । हां ।

भक्त: "... अौर अपने अापमें अानन्द उठा सकता है । उस अानन्दमयी स्थिति में वह असीं दिव्यसुख में स्थित रहता है ...."

प्रभुपाद: यह अानन्दमयी स्थिति अपने अाप में का मतलब है कृष्ण, परमात्मा हैं योग अभ्यास । मैं व्यक्तिगत अात्मा हूँ । जब मैं समाधि में हूँ विष्णू के साथ, परमात्मा, यह मेरे मन की स्थिरता है । तो अात्मा अौर परमात्मा जब वे आनंद लेते हैं । अानंद अकेले नहीं किया जा सकता । दो का होना ज़रूरी है । तुम्हे अकेले आनंद लेने का कोई भी अनुभव है? नहीं । तो अकेले आनंद संभव नहीं है । आनंद का मतलब है दो - कृष्ण और तुम । परमात्मा अौर आत्मा । यही तरीका है । तुम अकेले आनंद नहीं उठा सकते हो, तुम्हारी यह स्थिति नहीं है । हॉ, अागे पढो ।

भक्त: ...वह असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है अौर अानन्दमयी सुख का अनुभव करता है दिव्य इन्द्रियों से । इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता है, अौर इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता । ऐसी स्थिति को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता । यह......

प्रभुपाद: सबसे बड़ी मुश्किल में । अगर तुम आश्वस्त हो, कि "मैं कृष्ण का अभिन्न अंग हूँ" फिर तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी मुश्किल स्थिति में भी, यही आत्मसमर्पण है । तुम्हे विश्वास है कि कृष्ण तुम्हारा संरक्षण करेंगे । तुम पूरी कोशिश करते हो, अपनी बुद्धि का उपयोग करते हो, लेकिन कृष्ण में विश्वास करते हो । बालस्य नेह पितरौ नृसिंह (श्री भ ७।९।२९) । अगर कृष्ण अंदेखा करते हैं, तो कोई अन्य उपाय तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती है । कोई अन्य उपाय तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती ही । मत सोचो ... मान लो कोई बिमार है । उसका इलाज कई विशेषज्ञ चिकित्सक करते हैं । अच्छि दवा दी जाती है । क्या है उसके जीवन की गारंटी है ? नहीं । यह गारंटी नहीं है । अगर कृष्ण अंदेखा है, इन सभी अच्छे चिकित्सकों और दवाओं के बावजूद वह मर जाएगा । अौर कृष्ण उसे बचाता हैं, कोई विशेषज्ञ इलाज न हो तो भी, वह फिर भी जीवित रहेगा । तो जो कृष्ण में स्थिर है, पूरी तरह से आत्मसमर्पित... और समर्पण के अंक में से एक है कि कृष्ण मेरी रक्षा करेंगे । तो फिर तुम खुश हो । जैसे बच्चे की तरह । वह पूरी तरह से माता-पिता की शरण में है अौर वह आश्वसत है कि "मेरे पिता हैं, मेरी मां है ।" तो वह खुश है । कदाहम ऐकात्तिक नित्य किंकर: (स्तोत्र रत्न ४३ / CC Madhya 1.206) अगर तुम जानते हो कि कोई है जो मेरा रक्षक है, मेरे संरक्षक है, तो क्या तुम बहुत खुश नहीं हो ? लेकिन अगर तुम सब कुछ अपनी जिम्मेदारी पर करते हो, अपने स्वयं के खाते पर, तुम खुश हो ? इसी प्रकार, अगर तुम कृष्ण भावनामृत में आश्वस्त हो कि "कृष्ण मुझे संरक्षण देंगे " अौर अगर तुम कृष्ण के प्रति सच्चे हो, तो वह खुशी का मानक है । अन्यथा तुम खुश नहीं हो सकते । यह संभव नहीं है । एको बहुनाम विदधाति कामान (कथा उपनिषद २।२।१३) । यह तथ्य है । यहां तक ​​कि तुम्हारे विद्रोह करने की स्थित में भी कृष्ण तुम्हे संरक्षण दे रहे हैं । कृष्ण के संरक्षण के बिना तुम एक पल के लिए भी नहीं जी सकते हो । वे बहुत दयालु हैं । लेकिन जब तुम ये स्वीकार करते हो, तुम इसे पहचानते हो, तो तुम खुश हो जाते हो । अब कृष्ण तुम्हे संरक्षण दे रहे हैं, लेकिन तुम यह नहीं जानते क्योंकि तुम खुद के जोखिम पर अपना जीवन जी रहे हो । इसलिए उन्होंने तुम्हे स्वतंत्रता दी है, "ठीक है, तुम जो चाहे करो । जहां तक ​​संभव होगा मैं तुम्हें संरक्षण दूँगा ।" लकिन जब तुम पूरी तरह से आत्मसमर्पण करते हो, पूरी ज़िम्मेदारी कृष्ण की है । यह विशेष है । यह विशेष संरक्षण है । जैसे एक पिता की तरह । बच्चा जो बड़ा हो गया है, पिता की परवाह नहीं करता है, वह स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहा है पिता क्या कर सकता है ? "ठीक है, तुम जो चाहो वो करो ।" लेकिन वह बच्चा जो पिता की संरक्षण के तहत पूरी तरह से है, उसका वह अधिक ध्यान रखता है । यह भगवद-गीता में कहा गया है, तुम पाअोगे, समो अहम् सर्व भूतेष्ु (भ गी ९।२९) "मैं हर किसी के साथ समान हूँ ।" न मे द्वेष्य: "कोई भी मेरी दुश्मन नहीं है ।" कैसे वे दुश्मन हो सकते हैं ? हर कोई कृष्ण का पुत्र है । कैसे वह कृष्ण का दुश्मन बन सकता है ? वह बेटा है । यह संभव नहीं है । वे हर किसी के मित्र हैं । लेकिन हम उनकी दोस्ती का लाभ नहीं ले रहे हैं । यही हमारा रोग है । यही हमारी रोग है । वे हर किसी के मित्र हैं । समो अहम् सर्व भूतेषु लेकिन जो पहचान रहा है, वह समझ सकता है कि, " कृष्ण इस तरह से मुझे संरक्षण दे रहे हैं । यह खुशी का पथ है । अागे पढो ।