HI/Prabhupada 0677 - गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है: Difference between revisions

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प्रभुपाद: तो जो इंद्रियों के नियंत्रण में है, वह गो-दास है । गो का मतलब है और दास का मतलब है नौकर । और जो इंद्रियों का स्वामी है , वह गोस्वामी है । स्वामी का मतलब मालिक, अौर गो का मतलब है इन्द्रियॉ । तुमने गोस्वामी का शीर्षक देखा है । गोस्वामी के शीर्षक का मतलब है जो इन्द्रियों का मालिक है । जो इन्द्रियों का नौकर नहीं है । जब तक कोई इंद्रियों का दास है, वह एक गोस्वामी या स्वामी नहीं कहा जा सकता । स्वामी या गोस्वामी, एक ही बात है, मतलब जो इंद्रियों का स्वामी है । तो जब तक कोई इन्द्रियों का मालिक नहीं है, उसका शीर्षक घारण करना स्वामी अौर गोस्वामी का धोखा देना है । मनुष्य को इंद्रियों का मालिक होना चाहिए । यह रूप गोस्वामी, गोस्वामी, रूप गोस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे मंत्रि थे । जब वे मंत्रि थे वे गोस्वामी नहीं थे । लेकिन जब वे प्रभु चैतन्य के शिष्य बने, सनातन गोस्वामी और रूप गोस्वामी, और उनके द्वारा प्रशिक्षित किए गए थे, वे गोस्वामी बन गए । तो गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है । आध्यात्मिक गुरु के निर्देशन में । जो इंद्रियों को नियंत्रित करने में पूर्णता को पा लेता है, वह स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है । तो स्वामी, गोस्वामी बनना ज़रूरी है । फिर वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । स्वामी या इंद्रियों का मालिक हुए बिना, एक आध्यात्मिक गुरु बनना फर्जी है । वह भी रूप गस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे कहते हैं:
प्रभुपाद: तो जो इंद्रियों के नियंत्रण में है, वह गो-दास है । गो का मतलब है इन्द्रिया और दास का मतलब है नौकर । और जो इंद्रियों का स्वामी है, वह गोस्वामी है । स्वामी का मतलब मालिक, अौर गो का मतलब है इन्द्रियॉ । तुमने गोस्वामी का शीर्षक देखा है । गोस्वामी के शीर्षक का मतलब है जो इन्द्रियों का मालिक है । जो इन्द्रियों का नौकर नहीं है । जब तक कोई इंद्रियों का दास है, वह एक गोस्वामी या स्वामी नहीं कहा जा सकता ।  


:वाचो वेगम, क्रोध-वेगम, मनस:-वेगम, जिह्वा-वेगम उदरो-वेगम, उपस्थ-वेगम एतान वेगान विषहेता धीर: पृथिवीं स शीष्यात ([[Vanisource:NOI 1|एन अो अाइ १]])
स्वामी या गोस्वामी, एक ही बात है, मतलब जो इंद्रियों का स्वामी है । तो जब तक कोई इन्द्रियों का मालिक नहीं है, उसका स्वामी अौर गोस्वामी का शीर्षक घारण करना धोखा देना है । मनुष्य को इंद्रियों का मालिक होना चाहिए । यह रूप गोस्वामी, गोस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे मंत्रि थे । जब वे मंत्रि थे वे गोस्वामी नहीं थे । लेकिन जब वे प्रभु चैतन्य के शिष्य बने, सनातन गोस्वामी और रूप गोस्वामी, और उनके द्वारा प्रशिक्षित किए गए थे, वे गोस्वामी बन गए । तो गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है । आध्यात्मिक गुरु के निर्देशन में । जो इंद्रियों को नियंत्रित करने में पूर्णता को पा लेता है, वह स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है । तो स्वामी, गोस्वामी बनना ज़रूरी है । फिर वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । स्वामी या इंद्रियों का मालिक हुए बिना, एक आध्यात्मिक गुरु बनना फर्जी है । वह भी रूप गस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे कहते हैं:  


वे कहते हैं कि छह प्रोत्साहन, खिंचाव हैं, वेगम । खिंचाव । वेगम, तुम समझ रहे हो, जैसे शौच अाता है, तुम्हे शौचालय जाना ही होगा । तुम रोक नहीं सकते हो । तुम्हे जाना होगा । यही वेगम कहा जाता है, खिंचाव । तो वेगम छह प्रकार के हैं, खिंचाव । वो क्या हैं ? वाचो वेगम । वेगम, बात करने का खिंचाव । अनावश्यक रूप से बात करना । यही बातों का खिंचाव कहा जाता है । क्रोध-वेगम । कभी कभी गुस्से का जोर होता है । अगर मैं बहुत ज्यादा गुस्सा में हूँ तो मैं अपने आप की रोक नहीं सकता । मैं वो करता हूँ जो मुझे करना नहीं चाहिए । कभी कभी गुस्से में, अपने ही आदमियों को मारता है । इसे वेगम कहा जाता है, खिंचाव । तो, बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, और ... इसी प्रकार मन का खिंचाव । मन अादेश देता है "तुम्हे तुरंत जाना चाहिए ।" तुरंत । बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, मन का खिंचाव । फिर जिह्वा -वेगम । जिह्वा-वेगम का मतलब है जीभ । मैं अच्छी चीज़ों का स्वाद चाहता हूँ । कभी गुलाबजामुन, या कुछ अौर जो मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ । तो इस पर नियंत्रण करना होगा । अनावश्यक रूप से बात करने पर नियंत्रिण करना होगा । अपने मन पर, मन की अादेशों पर नियंत्रिण करना होगा । योग अभ्यास केवल मन पर होता है । लेकिन हमारे कृष्ण भावनामृत अभ्यास में.......मन के अलावा कई अन्य बातें हैं । जैसे क्रोध, जीभ । फिर जिह्वा-वेगम । फिर उदर-वेगम जीभ से थोड़ा नीचे आअो उदर का मतलब है पेट । पेट पहले से ही भरा है, फिर भी मैं और अधिक इसे भरना चाहता हूँ । इसे वेगम कहा जाता है, पेट का खिंचाव । अौर जब इतना खिंचाव है, जीभ और पेट का फिर इनके नीचे, जननांग, जननांग का बल है । तब मुझे कुछ सेक्स की आवश्यकता होती है । अगर मैं अधिक खाता हूँ, अगर मैं अनावश्यक रूप से अपनी जीभ का उपयोग करता हूँ अगर मैं अपने मन को कुछ भी करने की अनुमति देता हूँ, तो मैं अपने जननांग को भी रोक नहीं सकता हूँ । मुझे सेक्स की अावश्यक्ता होगी जो मैं नहीं रोक सकूँगा । इस तरह से कई खिंचाव हैं । रूप गोस्वामी कहते हैं, जिसका अपने खिंचाव पर नियंत्रण है, वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । ये नहीं कि आध्यात्मिक गुरु मनगढ़ंत है । यह सीखना चाहिए । कैसे इन बातों का खिंचाव रोकें । एतान वेगान यो विषहेत धीर: ([[Vanisource:NOI 1|एन अो अाइ १]]) जिसका इन खिंचावों पर नियंत्रण है और धीर: रहता है, स्थिर, पृथिवीम स शिष्यात । वह पूरी दुनिया में शिषय बना सकता है । खुले तरीके से । हां । तो सब कुछ प्रशिक्षण पर निर्भर करता है । यह योग प्रणाली है । योग का मतलब है, पूरी योग प्रणाली का मतलब है प्रशिक्षण । हमारी इन्द्रियॉ, हमारा मन, हमारा, यह, इतनी सारी चीजें । तो फिर हम अात्मा में स्थिर रहते हैं । तुम्हे लगता है कि केवल पंद्रह मिनट के ध्यान के द्वारा हम अात्म साक्षात्कार कर सकते हैं ? और पूरे दिन सब बकवास करते रहो ? नहीं । प्रशिक्षण की आवश्यकता है । तुम जीवन की समस्याओं का हल करने जा रहे हो और तुम इसे बहुत सस्ते से करना चाहते हो ? नहीं, तो तुम को धोखा मिलेगा । तुम्हे कीमत चुकानी पड़गी । अगर तुम सबसे अच्छी चीज़ चाहते हैं तो तुम्हे इसके लिए कीमत देनी पड़ेगी । लेकिन प्रभु चैतन्य की कृपा से, कीमत देना बहुत आसान बना दिया गया है । हरे कृष्ण मंत्र का जप करो । सब कुछ बहुत आसान हो जाता है । यह सब नियंत्रण प्रणाली, योग प्रणाली की पूर्णता, बहुत आसान हो जाती है । यही भगवान चैतन्य की दया है । इहा हौते सर्व सिद्धि हौबे तोमार ( चै भ मध्य २३।७८) भगवान चैतन्य नें अाशिर्वाद दिया है कि अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो तो तुम्हे आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता मिलेगी । यह एक तथ्य है । तो इस युग के लिए, जब लोग इतने गिर हुए हैं, कोई अन्य प्रक्रिया सफल नहीं हो पाएगी । यह प्रक्रिया ही एकमात्र प्रक्रिया है । यह बहुत आसान और उदात्त और प्रभावी और व्यावहारिक है और हम अपने आप महसूस कर सकते हैं । प्रत्यक्षावगमम् ध्रम्यम ([[Vanisource:BG 9.2|भ गी ९।२]]) भगवद-गीता में कहा जाता है कि तुम इसे व्यावहारिक रूप से अनुभव कर सकते हो । अन्य प्रणाली में, तुम व्यावहारिक रूप से अनुभव नहीं कर सकते हो कि तुमने कितनी प्रगति की है ।. लेकिन इस प्रणाली में, अगर तुम पालन करते हो, कुछ दिनों के लिए, तुम्हे एहसास होता है "हाँ, मैं प्रगति कर रहा हूँ ।" जैसे अगर तुम खाते हो, तुम समझते हो कि तुम्हारी भूख संतुष्ट हो गई है । इसी प्रकार वास्तव में अगर तुम कृष्ण भावनामृत आंदोलन के इस सिद्धांत का पालन करते हो तुम पाअोगे कि तुम आत्म-साक्षात्कार के पथ पर आगे बढ़ रहे हो । अागे पढो । विष्णुजन: "जो मन को तथा इन्द्रियों को भी वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है । अौर जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात इन्द्रियों का सेवक कहलाता है । गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक से भिज्ञ होता है । दिव्य इन्द्रियसुख बह है जिसमें इन्द्रियॉ ह्रषीकेश की सेवा में लगी रहती हैं अर्थात इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण शुद्ध इंद्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्ण चेतना या कृष्ण भावनामृत कहा जाता है । इन्द्रियों को पूर्णवश में लाने की यही विधी है इससे भी बढकर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धी भी है ।"
वाचो वेगम, क्रोध-वेगम, मनस:-वेगम, जिह्वा-वेगम, उदरो-वेगम, उपस्थ-वेगम एतान वेगान विषहेत धीर: पृथ्वीम स शीष्यात ([[Vanisource:NOI 1|उपदेशामृत १]])
 
वे कहते हैं कि छह प्रोत्साहन, खिंचाव हैं, वेगम । खिंचाव । वेगम, तुम समझ रहे हो, जैसे शौच अाता है, तुम्हे शौचालय जाना ही होगा । तुम रोक नहीं सकते हो । तुम्हे जाना होगा । यही वेगम कहा जाता है, खिंचाव । तो वेगम छह प्रकार के हैं, खिंचाव । वो क्या हैं ? वाचो वेगम । वेगम, बात करने का खिंचाव । अनावश्यक रूप से बात करना । यही बातों का खिंचाव कहा जाता है । क्रोध-वेगम । कभी कभी गुस्से का जोर होता है । अगर मैं बहुत ज्यादा गुस्से में हूँ तो मैं अपने आप को रोक नहीं सकता । मैं वो करता हूँ जो मुझे करना नहीं चाहिए । कभी कभी गुस्सा अपने ही आदमियों को मारता है । इसे वेगम कहा जाता है, खिंचाव ।  
 
तो, बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, और... इसी प्रकार मन का खिंचाव । मन अादेश देता है "तुम्हे तुरंत जाना चाहिए ।" तुरंत । बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, मन का खिंचाव । फिर जिह्वा-वेगम । जिह्वा-वेगम का मतलब है जीभ । मैं अच्छी चीज़ों का स्वाद चाहता हूँ । कभी गुलाबजामुन, या कुछ अौर जो मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ । तो इस पर नियंत्रण करना होगा । अनावश्यक रूप से बात करने पर नियंत्रिण करना होगा । अपने मन पर, मन के अादेशों पर नियंत्रिण करना होगा । योग अभ्यास केवल मन पर होता है । लेकिन हमारे कृष्ण भावनामृत अभ्यास में... मन के अलावा कई अन्य बातें हैं । जैसे क्रोध, जीभ ।  
 
फिर जिह्वा-वेगम । फिर उदर-वेगम | जीभ से थोड़ा नीचे आअो | उदर का मतलब है पेट । पेट पहले से ही भरा है, फिर भी मैं और अधिक इसे भरना चाहता हूँ । इसे वेगम कहा जाता है, पेट का खिंचाव । अौर जब इतना खिंचाव है, जीभ और पेट का, फिर इनके नीचे, जननांग, जननांग का बल है । फिर मुझे कुछ यौन जीवन की आवश्यकता होती है । अगर मैं अधिक खाता हूँ, अगर मैं अनावश्यक रूप से अपनी जीभ का उपयोग करता हूँ अगर मैं अपने मन को कुछ भी करने की अनुमति देता हूँ, तो मैं अपने जननांग को भी रोक नहीं सकता हूँ । मुझे यौन जीवन की अावश्यक्ता होगी जो मैं नहीं रोक सकूँगा । इस तरह से कई खिंचाव हैं ।  
 
रूप गोस्वामी कहते हैं, जिसका अपने खिंचाव पर नियंत्रण है, वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । ये नहीं कि आध्यात्मिक गुरु मनगढ़ंत है । यह सीखना चाहिए । कैसे इन बातों के खिंचाव को रोकें । एतान वेगान यो विषहेत धीर: ([[Vanisource:NOI 1|उपदेशामृत १]]) | जिसका इन खिंचावों पर नियंत्रण है और धीर: रहता है, स्थिर, पृथ्वीम स शिष्यात । वह पूरी दुनिया में शिष्य बना सकता है । खुले तरीके से । हां । तो सब कुछ प्रशिक्षण पर निर्भर करता है । यह योग प्रणाली है । योग का मतलब है, पूरी योग प्रणाली का मतलब है प्रशिक्षण ।  
 
हमारी इन्द्रियॉ, हमारा मन, हमारा, यह, इतनी सारी चीजें । तो फिर हम अात्मा में स्थिर रहते हैं । तुम्हे लगता है कि केवल पंद्रह मिनट के ध्यान के द्वारा हम अात्म साक्षात्कार कर सकते हैं ? और पूरे दिन सब बकवास करते रहो ? नहीं । प्रशिक्षण की आवश्यकता है । तुम जीवन की समस्याओं का हल करने जा रहे हो और तुम इसे बहुत सस्ते से करना चाहते हो ? नहीं, तो तुम को धोखा मिलेगा । तुम्हे कीमत चुकानी पड़गी । अगर तुम सबसे अच्छी चीज़ चाहते हैं तो तुम्हे इसके लिए कीमत देनी पड़ेगी । लेकिन प्रभु चैतन्य की कृपा से, कीमत देना बहुत आसान बना दिया गया है । हरे कृष्ण मंत्र का जप करो । सब कुछ बहुत आसान हो जाता है । यह सब नियंत्रण प्रणाली, योग प्रणाली की पूर्णता, बहुत आसान हो जाती है ।  
 
यही भगवान चैतन्य की दया है । इहा हौते सर्व सिद्धि हौबे तोमार (चैतन्य भागवत मध्य २३.७८) | भगवान चैतन्य नें अाशिर्वाद दिया है कि अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम्हे आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता मिलेगी । यह एक तथ्य है । तो इस युग के लिए, जब लोग इतने गिरे हुए हैं, कोई अन्य प्रक्रिया सफल नहीं हो पाएगी । यह प्रक्रिया ही एकमात्र प्रक्रिया है । यह बहुत आसान और उदात्त और प्रभावी और व्यावहारिक है, और हम आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं । प्रत्यक्षावगमम धर्म्यम ([[HI/BG 9.2|भ.गी. ९.२]]) | भगवद-गीता में कहा जाता है कि तुम इसे व्यावहारिक रूप से अनुभव कर सकते हो ।  
 
अन्य प्रणाली में, तुम व्यावहारिक रूप से अनुभव नहीं कर सकते हो कि तुमने कितनी प्रगति की है । लेकिन इस प्रणाली में, अगर तुम पालन करते हो, कुछ दिनों के लिए, तुम्हे एहसास होता है "हाँ, मैं प्रगति कर रहा हूँ ।" जैसे अगर तुम खाते हो, तुम समझते हो कि तुम्हारी भूख संतुष्ट हो गई है । इसी प्रकार वास्तव में अगर तुम कृष्ण भावनामृत आंदोलन के इस सिद्धांत का पालन करते हो, तुम पाअोगे कि तुम आत्म-साक्षात्कार के पथ पर आगे बढ़ रहे हो । अागे पढो ।  
 
विष्णुजन: "जो मन को तथा इन्द्रियों को भी वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है । अौर जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात इन्द्रियों का सेवक कहलाता है । गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक को जानता है । दिव्य इन्द्रियसुख वह है जिसमें इन्द्रियॉ ऋषिकेश की सेवा में लगी रहती हैं अर्थात इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की सेवा में | शुद्ध इंद्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्ण भावनामृत कहा जाता है । इन्द्रियों को पूर्ण नियंत्रण में लाने की यही विधी है | इससे भी बढकर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है ।"  
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Latest revision as of 19:05, 17 September 2020



Lecture on BG 6.25-29 -- Los Angeles, February 18, 1969

प्रभुपाद: तो जो इंद्रियों के नियंत्रण में है, वह गो-दास है । गो का मतलब है इन्द्रिया और दास का मतलब है नौकर । और जो इंद्रियों का स्वामी है, वह गोस्वामी है । स्वामी का मतलब मालिक, अौर गो का मतलब है इन्द्रियॉ । तुमने गोस्वामी का शीर्षक देखा है । गोस्वामी के शीर्षक का मतलब है जो इन्द्रियों का मालिक है । जो इन्द्रियों का नौकर नहीं है । जब तक कोई इंद्रियों का दास है, वह एक गोस्वामी या स्वामी नहीं कहा जा सकता ।

स्वामी या गोस्वामी, एक ही बात है, मतलब जो इंद्रियों का स्वामी है । तो जब तक कोई इन्द्रियों का मालिक नहीं है, उसका स्वामी अौर गोस्वामी का शीर्षक घारण करना धोखा देना है । मनुष्य को इंद्रियों का मालिक होना चाहिए । यह रूप गोस्वामी, गोस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे मंत्रि थे । जब वे मंत्रि थे वे गोस्वामी नहीं थे । लेकिन जब वे प्रभु चैतन्य के शिष्य बने, सनातन गोस्वामी और रूप गोस्वामी, और उनके द्वारा प्रशिक्षित किए गए थे, वे गोस्वामी बन गए । तो गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है । आध्यात्मिक गुरु के निर्देशन में । जो इंद्रियों को नियंत्रित करने में पूर्णता को पा लेता है, वह स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है । तो स्वामी, गोस्वामी बनना ज़रूरी है । फिर वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । स्वामी या इंद्रियों का मालिक हुए बिना, एक आध्यात्मिक गुरु बनना फर्जी है । वह भी रूप गस्वामी द्वारा परिभाषित किया गया है । वे कहते हैं:

वाचो वेगम, क्रोध-वेगम, मनस:-वेगम, जिह्वा-वेगम, उदरो-वेगम, उपस्थ-वेगम एतान वेगान विषहेत धीर: पृथ्वीम स शीष्यात (उपदेशामृत १)

वे कहते हैं कि छह प्रोत्साहन, खिंचाव हैं, वेगम । खिंचाव । वेगम, तुम समझ रहे हो, जैसे शौच अाता है, तुम्हे शौचालय जाना ही होगा । तुम रोक नहीं सकते हो । तुम्हे जाना होगा । यही वेगम कहा जाता है, खिंचाव । तो वेगम छह प्रकार के हैं, खिंचाव । वो क्या हैं ? वाचो वेगम । वेगम, बात करने का खिंचाव । अनावश्यक रूप से बात करना । यही बातों का खिंचाव कहा जाता है । क्रोध-वेगम । कभी कभी गुस्से का जोर होता है । अगर मैं बहुत ज्यादा गुस्से में हूँ तो मैं अपने आप को रोक नहीं सकता । मैं वो करता हूँ जो मुझे करना नहीं चाहिए । कभी कभी गुस्सा अपने ही आदमियों को मारता है । इसे वेगम कहा जाता है, खिंचाव ।

तो, बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, और... इसी प्रकार मन का खिंचाव । मन अादेश देता है "तुम्हे तुरंत जाना चाहिए ।" तुरंत । बात करने का खिंचाव, गुस्से का खिंचाव, मन का खिंचाव । फिर जिह्वा-वेगम । जिह्वा-वेगम का मतलब है जीभ । मैं अच्छी चीज़ों का स्वाद चाहता हूँ । कभी गुलाबजामुन, या कुछ अौर जो मैं बहुत ज्यादा पसंद करता हूँ । तो इस पर नियंत्रण करना होगा । अनावश्यक रूप से बात करने पर नियंत्रिण करना होगा । अपने मन पर, मन के अादेशों पर नियंत्रिण करना होगा । योग अभ्यास केवल मन पर होता है । लेकिन हमारे कृष्ण भावनामृत अभ्यास में... मन के अलावा कई अन्य बातें हैं । जैसे क्रोध, जीभ ।

फिर जिह्वा-वेगम । फिर उदर-वेगम | जीभ से थोड़ा नीचे आअो | उदर का मतलब है पेट । पेट पहले से ही भरा है, फिर भी मैं और अधिक इसे भरना चाहता हूँ । इसे वेगम कहा जाता है, पेट का खिंचाव । अौर जब इतना खिंचाव है, जीभ और पेट का, फिर इनके नीचे, जननांग, जननांग का बल है । फिर मुझे कुछ यौन जीवन की आवश्यकता होती है । अगर मैं अधिक खाता हूँ, अगर मैं अनावश्यक रूप से अपनी जीभ का उपयोग करता हूँ अगर मैं अपने मन को कुछ भी करने की अनुमति देता हूँ, तो मैं अपने जननांग को भी रोक नहीं सकता हूँ । मुझे यौन जीवन की अावश्यक्ता होगी जो मैं नहीं रोक सकूँगा । इस तरह से कई खिंचाव हैं ।

रूप गोस्वामी कहते हैं, जिसका अपने खिंचाव पर नियंत्रण है, वह आध्यात्मिक गुरु बन सकता है । ये नहीं कि आध्यात्मिक गुरु मनगढ़ंत है । यह सीखना चाहिए । कैसे इन बातों के खिंचाव को रोकें । एतान वेगान यो विषहेत धीर: (उपदेशामृत १) | जिसका इन खिंचावों पर नियंत्रण है और धीर: रहता है, स्थिर, पृथ्वीम स शिष्यात । वह पूरी दुनिया में शिष्य बना सकता है । खुले तरीके से । हां । तो सब कुछ प्रशिक्षण पर निर्भर करता है । यह योग प्रणाली है । योग का मतलब है, पूरी योग प्रणाली का मतलब है प्रशिक्षण ।

हमारी इन्द्रियॉ, हमारा मन, हमारा, यह, इतनी सारी चीजें । तो फिर हम अात्मा में स्थिर रहते हैं । तुम्हे लगता है कि केवल पंद्रह मिनट के ध्यान के द्वारा हम अात्म साक्षात्कार कर सकते हैं ? और पूरे दिन सब बकवास करते रहो ? नहीं । प्रशिक्षण की आवश्यकता है । तुम जीवन की समस्याओं का हल करने जा रहे हो और तुम इसे बहुत सस्ते से करना चाहते हो ? नहीं, तो तुम को धोखा मिलेगा । तुम्हे कीमत चुकानी पड़गी । अगर तुम सबसे अच्छी चीज़ चाहते हैं तो तुम्हे इसके लिए कीमत देनी पड़ेगी । लेकिन प्रभु चैतन्य की कृपा से, कीमत देना बहुत आसान बना दिया गया है । हरे कृष्ण मंत्र का जप करो । सब कुछ बहुत आसान हो जाता है । यह सब नियंत्रण प्रणाली, योग प्रणाली की पूर्णता, बहुत आसान हो जाती है ।

यही भगवान चैतन्य की दया है । इहा हौते सर्व सिद्धि हौबे तोमार (चैतन्य भागवत मध्य २३.७८) | भगवान चैतन्य नें अाशिर्वाद दिया है कि अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम्हे आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता मिलेगी । यह एक तथ्य है । तो इस युग के लिए, जब लोग इतने गिरे हुए हैं, कोई अन्य प्रक्रिया सफल नहीं हो पाएगी । यह प्रक्रिया ही एकमात्र प्रक्रिया है । यह बहुत आसान और उदात्त और प्रभावी और व्यावहारिक है, और हम आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं । प्रत्यक्षावगमम धर्म्यम (भ.गी. ९.२) | भगवद-गीता में कहा जाता है कि तुम इसे व्यावहारिक रूप से अनुभव कर सकते हो ।

अन्य प्रणाली में, तुम व्यावहारिक रूप से अनुभव नहीं कर सकते हो कि तुमने कितनी प्रगति की है । लेकिन इस प्रणाली में, अगर तुम पालन करते हो, कुछ दिनों के लिए, तुम्हे एहसास होता है "हाँ, मैं प्रगति कर रहा हूँ ।" जैसे अगर तुम खाते हो, तुम समझते हो कि तुम्हारी भूख संतुष्ट हो गई है । इसी प्रकार वास्तव में अगर तुम कृष्ण भावनामृत आंदोलन के इस सिद्धांत का पालन करते हो, तुम पाअोगे कि तुम आत्म-साक्षात्कार के पथ पर आगे बढ़ रहे हो । अागे पढो ।

विष्णुजन: "जो मन को तथा इन्द्रियों को भी वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है । अौर जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात इन्द्रियों का सेवक कहलाता है । गोस्वामी इन्द्रियसुख के मानक को जानता है । दिव्य इन्द्रियसुख वह है जिसमें इन्द्रियॉ ऋषिकेश की सेवा में लगी रहती हैं अर्थात इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की सेवा में | शुद्ध इंद्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्ण भावनामृत कहा जाता है । इन्द्रियों को पूर्ण नियंत्रण में लाने की यही विधी है | इससे भी बढकर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है ।"