HI/Prabhupada 0684 - योगपद्धतिकी महत्वपूर्ण परीक्षा है अगर तुम विष्णुके रूप पर अपने मनको केंद्रित कर सकते हो: Difference between revisions

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विष्णुजन: श्लोक बत्तीस: "वह पूर्ण योगी है, जो, यह जानते हुए कि परमात्मा सबमें हैं, समस्त प्रांणियों में वास्तविक समानता का दर्शन कता है, उनके सुख तथा दुःख में, हे अर्जुन ([[Vanisource:BG 6.32 (1972)|भ.गी. ६.३२]]) ।"  
विष्णुजन: श्लोक बत्तीस: "वह पूर्ण योगी है, जो, यह जानते हुए कि परमात्मा सबमें हैं, समस्त प्रांणियों में वास्तविक समानता का दर्शन कता है, उनके सुख तथा दुःख में, हे अर्जुन ([[HI/BG 6.32|भ.गी. ६.३२]]) ।"  


प्रभुपाद: यह समान दृष्टि है । एसा नहीं है कि भगवान तुम्हारे हृदय में है और बिल्ली के हृदय या कुत्ते के हृदय या गाय के हृदय में नहीं बैठे हैं । वे हर किसी के हृदय में बैठे हैं । यह कहा जाता है सर्व-भूतानाम । सर्व-भूत का मतलब है सभी जीव । वे चींटी के हृदय में बैठे हैं, मानव के हृदय में बैठे हैं । वे कुत्ते के हृदय में बैठे हैं, वे हर किसी के हृदय में बैठ हैं । लेकिन बिल्लि और कुत्ते, वे अात्मसाक्षात्कार नहीं कर सकते हैं । यही फर्क है । लेकिन एक मनुष्य, अगर वह कोशिश करता है, अगर वह योग प्रणाली का अनुसरण करता है - सांख्य-योग प्रणाली, भक्ति-योग प्रणाली - तो वह पता लगाने में सक्षम है । यही जीवन के इस मानव रूप का विशेषाधिकार है । और अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, अगर हम पता नहीं लगाते हैं, अगर हम प्रभु के साथ हमारे अस्तित्व की पहचान नहीं करते हैं, तो हम इस अवसर से चूक रहे हैं ।  
प्रभुपाद: यह समान दृष्टि है । एसा नहीं है कि भगवान तुम्हारे हृदय में है और बिल्ली के हृदय या कुत्ते के हृदय या गाय के हृदय में नहीं बैठे हैं । वे हर किसी के हृदय में बैठे हैं । यह कहा जाता है सर्व-भूतानाम । सर्व-भूत का मतलब है सभी जीव । वे चींटी के हृदय में बैठे हैं, मानव के हृदय में बैठे हैं । वे कुत्ते के हृदय में बैठे हैं, वे हर किसी के हृदय में बैठ हैं । लेकिन बिल्लि और कुत्ते, वे अात्मसाक्षात्कार नहीं कर सकते हैं । यही फर्क है । लेकिन एक मनुष्य, अगर वह कोशिश करता है, अगर वह योग प्रणाली का अनुसरण करता है - सांख्य-योग प्रणाली, भक्ति-योग प्रणाली - तो वह पता लगाने में सक्षम है । यही जीवन के इस मानव रूप का विशेषाधिकार है । और अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, अगर हम पता नहीं लगाते हैं, अगर हम प्रभु के साथ हमारे अस्तित्व की पहचान नहीं करते हैं, तो हम इस अवसर से चूक रहे हैं ।  
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यह, उत्क्रांति की प्रक्रिया के बाद, जीवन के ८४,००,००० प्रजातियों में से अाते हुए, जब हम जीवन के इस मानव रूप को प्राप्त करते हैं, अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, तो कितना नुकसान हमें भुगतना पडेगा तुम नहीं जानते । तो हमें उस के बारे में जागरूक होना चाहिए । हमें इस अवसर को खोना नहीं चाहिए । तुम्हे यह बहुत अच्छा शरीर, मानव शरीर, बुद्धि, और सभ्य जीवन मिला है । हम जानवरों की तरह नहीं हैं । हम शांति से सोच सकते हैं, जानवरों के जैसे इतना कठिन संघर्ष नहीं करना पड़ता है । तो हमें उपयोग करना चाहिए । यही भगवद-गीता में शिक्षा है । इस अवसर को खोना नहीं है । इसे ठीक से उपयोग करना है । अागे पढो ।  
यह, उत्क्रांति की प्रक्रिया के बाद, जीवन के ८४,००,००० प्रजातियों में से अाते हुए, जब हम जीवन के इस मानव रूप को प्राप्त करते हैं, अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, तो कितना नुकसान हमें भुगतना पडेगा तुम नहीं जानते । तो हमें उस के बारे में जागरूक होना चाहिए । हमें इस अवसर को खोना नहीं चाहिए । तुम्हे यह बहुत अच्छा शरीर, मानव शरीर, बुद्धि, और सभ्य जीवन मिला है । हम जानवरों की तरह नहीं हैं । हम शांति से सोच सकते हैं, जानवरों के जैसे इतना कठिन संघर्ष नहीं करना पड़ता है । तो हमें उपयोग करना चाहिए । यही भगवद-गीता में शिक्षा है । इस अवसर को खोना नहीं है । इसे ठीक से उपयोग करना है । अागे पढो ।  


विष्णुजन: श्लोक तैंतीस | "अर्जुन ने कहा: हे मधुसूदन, आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, यह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है ([[Vanisource:BG 6.33 (1972)|भ.गी. ६.३३]]) ।  
विष्णुजन: श्लोक तैंतीस | "अर्जुन ने कहा: हे मधुसूदन, आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, यह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है ([[HI/BG 6.33|भ.गी. ६.३३]]) ।  


प्रभुपाद: अब, यहां योगपद्धति की महत्वपूर्ण परीक्षा है - अगर तुम विष्णु के रूप पर अपने मन को केंद्रित कर सकते हो । प्रक्रिया पहले से वर्णित की गई है कि तुम्हे इस तरह से बैठना होगा, तुम्हे इस तरह से देखना होगा, तुम्हे इस तरह से जीना होगा, कई बातों की चर्चा हमने की है । लेकिन अर्जुन कहता हैं कि "यह मेरे लिए बहुत मुश्किल है ।" हमें इस बात को समझना है । उसने कहा, "हे मधुसूदन, जिस योगपद्धति का संक्षेप में अापने वर्णन किया है..." इस पद्धति को अष्टांग योग कहते हैं । अष्टांग योग, आठ विभिन्न भाग । यम, नियम । सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करना, नियमों और विनियमनों का पालन करना, फिर बैठने के आसन का अभ्यास । फिर श्वास प्रक्रिया का अभ्यास । फिर अपने मन को केंद्रित करना । फिर रूप में अवशोषित होना । आठ प्रक्रियाऍ हैं, अष्टांग-योग ।  
प्रभुपाद: अब, यहां योगपद्धति की महत्वपूर्ण परीक्षा है - अगर तुम विष्णु के रूप पर अपने मन को केंद्रित कर सकते हो । प्रक्रिया पहले से वर्णित की गई है कि तुम्हे इस तरह से बैठना होगा, तुम्हे इस तरह से देखना होगा, तुम्हे इस तरह से जीना होगा, कई बातों की चर्चा हमने की है । लेकिन अर्जुन कहता हैं कि "यह मेरे लिए बहुत मुश्किल है ।" हमें इस बात को समझना है । उसने कहा, "हे मधुसूदन, जिस योगपद्धति का संक्षेप में अापने वर्णन किया है..." इस पद्धति को अष्टांग योग कहते हैं । अष्टांग योग, आठ विभिन्न भाग । यम, नियम । सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करना, नियमों और विनियमनों का पालन करना, फिर बैठने के आसन का अभ्यास । फिर श्वास प्रक्रिया का अभ्यास । फिर अपने मन को केंद्रित करना । फिर रूप में अवशोषित होना । आठ प्रक्रियाऍ हैं, अष्टांग-योग ।  

Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 6.30-34 -- Los Angeles, February 19, 1969

विष्णुजन: श्लोक बत्तीस: "वह पूर्ण योगी है, जो, यह जानते हुए कि परमात्मा सबमें हैं, समस्त प्रांणियों में वास्तविक समानता का दर्शन कता है, उनके सुख तथा दुःख में, हे अर्जुन (भ.गी. ६.३२) ।"

प्रभुपाद: यह समान दृष्टि है । एसा नहीं है कि भगवान तुम्हारे हृदय में है और बिल्ली के हृदय या कुत्ते के हृदय या गाय के हृदय में नहीं बैठे हैं । वे हर किसी के हृदय में बैठे हैं । यह कहा जाता है सर्व-भूतानाम । सर्व-भूत का मतलब है सभी जीव । वे चींटी के हृदय में बैठे हैं, मानव के हृदय में बैठे हैं । वे कुत्ते के हृदय में बैठे हैं, वे हर किसी के हृदय में बैठ हैं । लेकिन बिल्लि और कुत्ते, वे अात्मसाक्षात्कार नहीं कर सकते हैं । यही फर्क है । लेकिन एक मनुष्य, अगर वह कोशिश करता है, अगर वह योग प्रणाली का अनुसरण करता है - सांख्य-योग प्रणाली, भक्ति-योग प्रणाली - तो वह पता लगाने में सक्षम है । यही जीवन के इस मानव रूप का विशेषाधिकार है । और अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, अगर हम पता नहीं लगाते हैं, अगर हम प्रभु के साथ हमारे अस्तित्व की पहचान नहीं करते हैं, तो हम इस अवसर से चूक रहे हैं ।

यह, उत्क्रांति की प्रक्रिया के बाद, जीवन के ८४,००,००० प्रजातियों में से अाते हुए, जब हम जीवन के इस मानव रूप को प्राप्त करते हैं, अगर हम इस अवसर से चूक जाते हैं, तो कितना नुकसान हमें भुगतना पडेगा तुम नहीं जानते । तो हमें उस के बारे में जागरूक होना चाहिए । हमें इस अवसर को खोना नहीं चाहिए । तुम्हे यह बहुत अच्छा शरीर, मानव शरीर, बुद्धि, और सभ्य जीवन मिला है । हम जानवरों की तरह नहीं हैं । हम शांति से सोच सकते हैं, जानवरों के जैसे इतना कठिन संघर्ष नहीं करना पड़ता है । तो हमें उपयोग करना चाहिए । यही भगवद-गीता में शिक्षा है । इस अवसर को खोना नहीं है । इसे ठीक से उपयोग करना है । अागे पढो ।

विष्णुजन: श्लोक तैंतीस | "अर्जुन ने कहा: हे मधुसूदन, आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, यह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है (भ.गी. ६.३३) ।

प्रभुपाद: अब, यहां योगपद्धति की महत्वपूर्ण परीक्षा है - अगर तुम विष्णु के रूप पर अपने मन को केंद्रित कर सकते हो । प्रक्रिया पहले से वर्णित की गई है कि तुम्हे इस तरह से बैठना होगा, तुम्हे इस तरह से देखना होगा, तुम्हे इस तरह से जीना होगा, कई बातों की चर्चा हमने की है । लेकिन अर्जुन कहता हैं कि "यह मेरे लिए बहुत मुश्किल है ।" हमें इस बात को समझना है । उसने कहा, "हे मधुसूदन, जिस योगपद्धति का संक्षेप में अापने वर्णन किया है..." इस पद्धति को अष्टांग योग कहते हैं । अष्टांग योग, आठ विभिन्न भाग । यम, नियम । सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करना, नियमों और विनियमनों का पालन करना, फिर बैठने के आसन का अभ्यास । फिर श्वास प्रक्रिया का अभ्यास । फिर अपने मन को केंद्रित करना । फिर रूप में अवशोषित होना । आठ प्रक्रियाऍ हैं, अष्टांग-योग ।

तो अर्जुन कहता हैं "यह अष्टांग-योग पद्धति बहुत मुश्किल है ।" वो कहता हैं कि, "अव्यावहारिक ।" "लगता है," अव्यावहारिक है नहीं । उसके लिए । जैसे, वो अव्यावहारिक नहीं है । अगर वो अव्यावहारिक होता तो कृष्ण वर्णन नहीं करते और इतनी परेशानी नहीं उठाते । वो अव्यावहारिक नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है । क्या... एक बात मेरे लिए अव्यावहारिक हो सकती है, लेकिन तुम्हारे लिए व्यावहारिक हो सकती है, यह एक अलग बात है । लेकिन आम तौर पर यह पद्धति साधारण आम आदमी के लिए अव्यावहारिक है । अर्जुन एक आम आदमी के रूप में खुद को प्रस्तुत कर रहा हैं, इस मतलब से कि वो एक भिक्षुक नहीं था, या उसने अपने परिवारिक जीवन का परित्याग कर दिया है, या उसकी अपनी रोटी की समस्या के साथ कोई संबंध नहीं है । क्योंकि वो राज्य के लिए लड़ने के लिए युद्ध क्षेत्र में था । तो वे एक साधारण आदमी माना जाता हैं ।

तो आम आदमी के लिए, जो इन सांसारिक गतिविधियों में लगे हुए हैं, आजीविका के लिए कमाई, पारिवारिक जीवन, बच्चे, पत्नी, इतनी सारी समस्याऍ, यह व्यावहारिक नहीं है । यही यहां मुद्दा है । यह व्यावहारिक है उसके लिए जिसने सब कुछ पहले से ही त्याग दिया है । एक एकांत पवित्र स्थान में, जैसे पहाड़ी में या पहाड़ी की गुफा में । अकेले, कोई जनता से अशांति नहीं । तो कहां है आम आदमी के लिए, हमारे लिए, एसा अवसर, विशेष रूप से इस युग में ? इसलिए यह योग पद्धति व्यावहारिक नहीं है । यह जो अर्जुन ने स्वीकार किया, जो एक महान योद्धा था । और वो इतनी उन्नत था । वे शाही परिवार से था, अौर इतनी सारी चीज़ो में निपुण । वो कहता हैं कि यह अव्यावहारिक है । समझने की कोशिश करो । और हम अर्जुन की तुलना में क्या हैं ? अगर हम इस पद्धति की कोशिश करते हैं, तो यह संभव नहीं है । असफलता सुनिश्चित है । तात्पर्य पढ़ो । विष्णुजन: "भगवान कृष्ण ने अर्जुन के लिए जिस योगपद्धति का वर्णन किया, उसे अर्जुन द्वारा अस्वीकार किया जा रहा है..." प्रभुपाद: हाँ, अर्जुन, अस्वीकार किया, हाँ ।

विष्णुजन: "...असमर्थता के कारण । इस कलियुग में सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह अपना घर छोड़कर किसी एकांत स्थान में जाकर, पर्वत या जंगल में जाकर योगाभ्यास करे । अाधुनिक युग की विशेषता है अल्पकालिक जीवन के लिए घोर संधर्ष ।"

प्रभुपाद: हाँ । सबसे पहले हमारे जीवन की अवधि बहुत ही कम है । अगर तुम आँकड़ों का अध्ययन करो तो तुम देखोगे कि तुम्हारे पूर्वज सौ साल या अस्सी साल, नब्बे साल के लिए जिए । अब साठ साल, सत्तर साल में लोग मर रहे हैं । धीरे-धीरे यह कम हो जाएगा । इस युग में स्मृति, जीवन की अवधि, दया, इतनी सारी चीज़ें कम होंगी । यही इस युग का लक्षण है । अागे पढो ।