HI/Prabhupada 0686 - झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है: Difference between revisions

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विष्णुजन : श्लोक चौंतीस: "हे कृष्ण, चूँकि मन चंचल, उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है और मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है ([[Vanisource:BG 6.34|भ गी ६।३४]]) ।"  
विष्णुजन: श्लोक चौंतीस: "हे कृष्ण, चूँकि मन चंचल, उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है | और मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है ([[HI/BG 6.34|भ.गी. ६.३४]]) ।"  


प्रभुपाद: हाँ । अगर तुम वायु को वश में कर सकते हो... यह संभव नहीं है, कोई भी वायु को वश में नहीं कर सकता है । लेकिन एसा है भी तो, सैद्धांतिक रूप से यह मान लें कि तुम वायु को वश में कर सकते हो, लेकिन मन को वश में करना असंभव है । यह बहुत मुश्किल है । मन इतना चंचल और इतना उच्छृंखल है । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: हाँ । अगर तुम वायु को वश में कर सकते हो... यह संभव नहीं है, कोई भी वायु को वश में नहीं कर सकता है । लेकिन एसा है भी तो, सैद्धांतिक रूप से यह मान लें कि तुम वायु को वश में कर सकते हो, लेकिन मन को वश में करना असंभव है । यह बहुत मुश्किल है । मन इतना चंचल और इतना उच्छृंखल है । अागे पढो ।  


विष्णुजन : तात्पर्य : "मन इतना बलवान अौर दुराग्रही है, कि कभी कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है । इस व्यावहार जगत में जहॉ मनुष्य को अनेक विरोधि तत्वों से संघर्ष करना होता है, उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है । कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप से कोई भी सांसारी परुष ऐसा नहीं कर पाता है, क्योंकि एसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है । वैदिक साहित्य में यह कहा गया है: 'प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर अारूढ है अौर बुद्धि इसका सारथी है । मन लगाम है तथा इन्दियॉ घोड़े हैं । इस प्रकार मन तथा इंद्रियों की संगति से यह अात्मा सुख या दुख का भोक्ता है । एसा बड़े बड़े चिन्तकों का कहना है ।" यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए । किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है, जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता । एसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है । किन्तु एसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता । तो फिर अाधुनिक मनुष्य के संबन्ध मेख क्या कहा जा सकता है ? यहॉ पर प्रयुक्त उपमा अत्यन्त उपयुक्त है - " झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो अौर भी कठिन है ।"  
विष्णुजन: तात्पर्य: "मन इतना बलवान और दुराग्रही है, कि कभी कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है । इस व्यावहारिक जगत में जहॉ मनुष्य को अनेक विरोधि तत्वों से संघर्ष करना होता है, उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है । कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप से कोई भी सांसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता है, क्योंकि एसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है । वैदिक साहित्य में यह कहा गया है: 'प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर अारूढ है और बुद्धि इसका सारथी है । मन लगाम है तथा इन्दियॉ घोड़े हैं । इस प्रकार मन तथा इंद्रियों की संगति से यह अात्मा सुख या दुख का भोक्ता है । एसा बड़े बड़े चिन्तकों का कहना है ।" यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए । किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है, जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता । एसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है । किन्तु एसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता । तो फिर अाधुनिक मनुष्य के संबंध में क्या कहा जा सकता है ? यहाँ पर कठिनाई बहुत साफ़ तरीके से बताई है - "झंझावाती वायु को रोक पाना कठिन होता है |' और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है ।"  


प्रभुपाद: इसलिए यह प्रक्रिया, हरे कृष्ण का जाप, यह तुरंत मन को वश में करता है । केवल अगर तुम मंत्र का जाप करते हो "कृष्ण", और तुम सुनते हो, स्वचालित रूप से तुम्हारा मन कृष्ण में स्थिर हो जाता है । इसका मतलब है कि योग पद्धति तुरंत प्राप्त हो जाती है । क्योंखि पूरी योग पद्धति है विष्णु के रूप पर मन को स्थिर करने की । और कृष्ण मूल व्यक्तित्व हैं विष्णु रूपों के विस्तार के । कृष्ण हैं - जैसे यहाँ एक दीपक है । अब, इस चिराग से, इस मोमबत्ती से, तुम एक और मोमबत्ती ले अाअो तुम इसे जला सकते हो । फिर, एक और, एक और, एक और - हजारों मोमबत्ती को तुम जला सकते हो । प्रत्येक मोमबत्ती इस मोमबत्ती की तरह शक्तिशाली है । इस में कोई संदेह नहीं है । लेकिन एक मूल मोमबत्ती के रूप में इस मोमबत्ती को लिया जाना चाहिए । इसी तरह, कृष्ण लाखों विष्णु रूपों में विस्तार हो रहे हैं । प्रत्येक विष्णु रूप कृष्ण से कम नहीं, लेकिन कृष्ण मूल हैं, क्योंकि कृष्ण से सब कुछ प्रकट होता है । तो जिसने किसी न किसी तरह से अपने मन को कृष्ण में स्थिर किया है उसने योग की पर्णता को पहले से ही प्राप्त कर लिया है । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मूल सिद्धांत है । अागे पढो ( समाप्त) ।
प्रभुपाद: इसलिए यह प्रक्रिया, हरे कृष्ण का जप, यह तुरंत मन को वश में करता है । केवल अगर तुम मंत्र का जप करते हो "कृष्ण", और तुम सुनते हो, स्वचालित रूप से तुम्हारा मन कृष्ण में स्थिर हो जाता है । इसका मतलब है कि योग पद्धति तुरंत प्राप्त हो जाती है । क्योंकि पूरी योग पद्धति है विष्णु के रूप पर मन को स्थिर करने की । और कृष्ण मूल व्यक्तित्व हैं विष्णु रूपों के विस्तार के । कृष्ण हैं - जैसे यहाँ एक दीपक है । अब, इस चिराग से, इस मोमबत्ती से, तुम एक और मोमबत्ती ले अाअो तुम इसे जला सकते हो । फिर, एक और, एक और, एक और - हजारों मोमबत्ती को तुम जला सकते हो । प्रत्येक मोमबत्ती इस मोमबत्ती की तरह शक्तिशाली है । इस में कोई संदेह नहीं है । लेकिन एक मूल मोमबत्ती के रूप में इस मोमबत्ती को लिया जाना चाहिए । इसी तरह, कृष्ण लाखों विष्णु रूपों में विस्तार हो रहे हैं । प्रत्येक विष्णु रूप कृष्ण से कम नहीं, लेकिन कृष्ण मूल हैं, क्योंकि कृष्ण से सब कुछ प्रकट होता है । तो जिसने किसी न किसी तरह से अपने मन को कृष्ण में स्थिर किया है, उसने योग की पूर्णता को पहले से ही प्राप्त कर लिया है । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मूल सिद्धांत है । अागे पढो (समाप्त) ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 6.30-34 -- Los Angeles, February 19, 1969

विष्णुजन: श्लोक चौंतीस: "हे कृष्ण, चूँकि मन चंचल, उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है | और मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है (भ.गी. ६.३४) ।"

प्रभुपाद: हाँ । अगर तुम वायु को वश में कर सकते हो... यह संभव नहीं है, कोई भी वायु को वश में नहीं कर सकता है । लेकिन एसा है भी तो, सैद्धांतिक रूप से यह मान लें कि तुम वायु को वश में कर सकते हो, लेकिन मन को वश में करना असंभव है । यह बहुत मुश्किल है । मन इतना चंचल और इतना उच्छृंखल है । अागे पढो ।

विष्णुजन: तात्पर्य: "मन इतना बलवान और दुराग्रही है, कि कभी कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है । इस व्यावहारिक जगत में जहॉ मनुष्य को अनेक विरोधि तत्वों से संघर्ष करना होता है, उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है । कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप से कोई भी सांसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता है, क्योंकि एसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है । वैदिक साहित्य में यह कहा गया है: 'प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर अारूढ है और बुद्धि इसका सारथी है । मन लगाम है तथा इन्दियॉ घोड़े हैं । इस प्रकार मन तथा इंद्रियों की संगति से यह अात्मा सुख या दुख का भोक्ता है । एसा बड़े बड़े चिन्तकों का कहना है ।" यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए । किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है, जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता । एसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है । किन्तु एसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता । तो फिर अाधुनिक मनुष्य के संबंध में क्या कहा जा सकता है ? यहाँ पर कठिनाई बहुत साफ़ तरीके से बताई है - "झंझावाती वायु को रोक पाना कठिन होता है |' और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है ।"

प्रभुपाद: इसलिए यह प्रक्रिया, हरे कृष्ण का जप, यह तुरंत मन को वश में करता है । केवल अगर तुम मंत्र का जप करते हो "कृष्ण", और तुम सुनते हो, स्वचालित रूप से तुम्हारा मन कृष्ण में स्थिर हो जाता है । इसका मतलब है कि योग पद्धति तुरंत प्राप्त हो जाती है । क्योंकि पूरी योग पद्धति है विष्णु के रूप पर मन को स्थिर करने की । और कृष्ण मूल व्यक्तित्व हैं विष्णु रूपों के विस्तार के । कृष्ण हैं - जैसे यहाँ एक दीपक है । अब, इस चिराग से, इस मोमबत्ती से, तुम एक और मोमबत्ती ले अाअो तुम इसे जला सकते हो । फिर, एक और, एक और, एक और - हजारों मोमबत्ती को तुम जला सकते हो । प्रत्येक मोमबत्ती इस मोमबत्ती की तरह शक्तिशाली है । इस में कोई संदेह नहीं है । लेकिन एक मूल मोमबत्ती के रूप में इस मोमबत्ती को लिया जाना चाहिए । इसी तरह, कृष्ण लाखों विष्णु रूपों में विस्तार हो रहे हैं । प्रत्येक विष्णु रूप कृष्ण से कम नहीं, लेकिन कृष्ण मूल हैं, क्योंकि कृष्ण से सब कुछ प्रकट होता है । तो जिसने किसी न किसी तरह से अपने मन को कृष्ण में स्थिर किया है, उसने योग की पूर्णता को पहले से ही प्राप्त कर लिया है । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मूल सिद्धांत है । अागे पढो (समाप्त) ।