HI/Prabhupada 0688 - माया पर धावा बोलना: Difference between revisions

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प्रभुपाद: जहॉ तक योगाभ्यास का संबंध है, यह समझाया गया है, श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद । अब, मान लीजिए मैं योगाभ्यास करता हूँ- मेरा मतलब है कि असली योग, यह छद्म योग नहीं । और अगर मैं इसे ठीक से नहीं कर सका, मैं असफल हुअा । तो परिणाम क्या है? मान लो मैंने अपने व्यवसाय को छोड दिया, मैंने अपने साधारण व्यवसाय को छोड दिया, और मैं योग का अभ्यास करने में लगा । लेकिन किसी वजह से यह पूरा नहीं हो सका, यह विफलता है । तो परिणाम क्या है? यह अर्जुन द्वारा प्रशन है । इसका श्री कृष्ण के द्वारा जवाब दिया जाएगा । वह क्या है ? अागे पढो । "अर्जुन ने कहा ..."  
प्रभुपाद: जहॉ तक योगाभ्यास का संबंध है, यह समझाया गया है, श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद । अब, मान लीजिए मैं योगाभ्यास करता हूँ - मेरा मतलब है कि असली योग, यह नकली योग नहीं । और अगर मैं इसे ठीक से नहीं कर सका, मैं असफल हुअा । तो परिणाम क्या है? मान लो मैंने अपने व्यवसाय को छोड दिया, मैंने अपने साधारण व्यवसाय को छोड दिया, और मैं योग का अभ्यास करने में लगा । लेकिन किसी वजह से यह पूरा नहीं हो सका, यह विफलता है । तो परिणाम क्या है? यह अर्जुन द्वारा प्रश्न है । इसका श्री कृष्ण के द्वारा जवाब दिया जाएगा । वह क्या है ? अागे पढो । "अर्जुन ने कहा..."  


भक्त: "अर्जुन ने कहा: 'उस असफल योगी की गती क्या है ? जो अारम्भ में श्रद्धापूर्वक अात्म-साक्षात्कार की विधि को गर्हण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विजलित हो जाता है अौर योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ? ([[Vanisource:BG 6.37|भ गी ६।३७]])" तात्पर्य: "मार्ग ....आत्म-साक्षात्कार का मार्ग, या योग मार्ग, भगवद गीता में वर्णित है । आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है अौर उसका सुख शाश्वत जीवन, अानन्द तथा ज्ञान में निहित है। "  
भक्त: "अर्जुन ने कहा: 'उस असफल योगी की गति क्या है ? जो अारम्भ में श्रद्धापूर्वक अात्म-साक्षात्कार की विधि को गर्हण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है अौर योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?' ([[HI/BG 6.37|भ.गी. ६.३७]])"  


प्रभुपाद: अब, आत्म-साक्षात्कार के इस स्तर पर आने से पहले, हमें यह मान लेना चाहिए कि - भगवद गीता के अारंभ में, कि वह यह शरीर नहीं है कि जीव यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु वह इसे से भिन्न है और उसका सुख शाश्वत जीवन में है । यह जीवन शाश्वत नहीं है । योग की सि्द्धि का अर्थ है शाश्वत जीवन, आनंदमय जीवन, और ज्ञान से भरा जीवन पाना । यही सिद्धि है । तो हमें कोई भी योग करना चाहिए उस उद्देश्य के साथ । एसा नहीं कि मैं मोटापे को कम करने के लिए किसी योग कक्षा में जाऊँ या इन्द्िय संतुष्टि के लिए अपने शरीर को फिट रखूँ । यह योग का उद्देश्य नहीं है । लेकिन लोगों को एसा सिखाया जाता है । "ओह, अगर अाप इस योग का अभ्यास करेंगे ..." तुम एसा कर सकते हो, अगर तुम कोई भी व्यायाम की प्रक्रिया करते हो तो तुम्हारा शरीर स्वस्थ रहेगा । इतने सारे शारीरिक व्यायाम की प्रणालियॉ है, सेंडो प्रणाली, यह वजन उठाने की प्रणाली, यह... कई खेल प्रणाली हैं, वे भी शरीर को बहुत स्वस्थ रखती हैं। वे बहुत अच्छी तरह से खाद्य पदार्थों को पचाती हैं, वे मोटापे को कम करती हैं । इस उद्देश्य से योग का अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है । असली उद्देश्य यहॉ है - बोध होना कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं शाश्वत सुख चाहता हूँ; मैं पूर्ण ज्ञान चाहता हूँ; मैं अनन्त जीवन भी चाहता हूँ । यह योग का अंतिम उद्देश्य है । अागे पढो ।
तात्पर्य: "मार्ग....आत्म-साक्षात्कार का मार्ग, या योग मार्ग, भगवद गीता में वर्णित है । आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है अौर उसका सुख शाश्वत जीवन, अानन्द तथा ज्ञान में निहित है। "  


भक्त: "ये दिव्य है, शरीर तथा मन दोनों से परे । आत्म-साक्षात्कार की खोझ ज्ञान द्वारा की जाती है, अष्टांग विधि से या भक्तियोग के अभ्यास करने से होता है । इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अनुभूति प्राप्त करनी होती है अपनी स्वाभाविक स्थित की, भगवान से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों को जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड सके और कृष्ण भावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सके । इन तीन विधियों में से किसी एक का भी पालन करके मनुष्य देर सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है । भगवान ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है । भक्ति योग के दिव्य मार्ग में थोड़े से प्रयास से भी जो इस युग के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है अत: अर्जुन पुन: अाश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है । भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे । लेकिन ज्ञान की अनुशीलन विधि तय़ा अष्टांग योग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यता कठिन है अत: निरंतर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है । पहला कारण तो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये । दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसे है ।"
प्रभुपाद: अब, आत्म-साक्षात्कार के इस स्तर पर आने से पहले, हमें यह मान लेना चाहिए कि - भगवद गीता के अारंभ में, कि वह यह शरीर नहीं है । कि जीव यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु वह इसे से भिन्न है, और उसका सुख शाश्वत जीवन में है । यह जीवन शाश्वत नहीं है । योग की सि्द्धि का अर्थ है शाश्वत जीवन, आनंदमय जीवन, और ज्ञान से भरा जीवन पाना यही सिद्धि है । तो हमें कोई भी योग करना चाहिए उस उद्देश्य के साथ । एसा नहीं कि मैं मोटापे को कम करने के लिए किसी योग कक्षा में जाऊँ या इन्द्रिय संतुष्टि के लिए अपने शरीर को फिट रखूँ । यह योग का उद्देश्य नहीं है ।  


प्रभुपाद: जब हम किसी भी आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, यह व्यावहारिक रूप से माया पर धावा बोलना है, माया तो जब वहाँ माया का सवाल है, या लड़ाई या युद्ध का सवाल है तो कई कठिनाई होंगी माया द्वारा लागू , यह तय है इसलिए असफलता की संभावना है, लेकिन हमें बहुत ही स्थिर होना होगा । अागे पढो ।  
लेकिन लोगों को एसा सिखाया जाता है । "ओह, अगर अाप इस योग का अभ्यास करेंगे..." तुम एसा कर सकते हो, अगर तुम कोई भी व्यायाम की प्रक्रिया करते हो तो तुम्हारा शरीर स्वस्थ रहेगा । इतने सारे शारीरिक व्यायाम की प्रणालियॉ है, सेंडो प्रणाली, यह वजन उठाने की प्रणाली, यह... कई खेल प्रणाली हैं, वे भी शरीर को बहुत स्वस्थ रखती हैं। वे बहुत अच्छी तरह से खाद्य पदार्थों को पचाती हैं, वे मोटापे को कम करती हैं इस उद्देश्य से योग का अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है । असली उद्देश्य यहॉ है - बोध होना कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं शाश्वत सुख चाहता हूँ; मैं पूर्ण ज्ञान चाहता हूँ; मैं अनन्त जीवन भी चाहता हूँ यह योग का अंतिम उद्देश्य है । अागे पढो ।  


भक्त: "फलत: जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है । बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुन: मोहित होने की संभावना बनी रहती है । यही योगााच्चलितमानस कहा जाता है।।।"
भक्त: "ये दिव्य है, शरीर तथा मन दोनों से परे । आत्म-साक्षात्कार की खोझ की जाती है ज्ञान द्वारा, अष्टांग विधि से या भक्तियोग के अभ्यास से । इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अनुभूति प्राप्त करनी होती है अपनी स्वाभाविक स्थिति की, भगवान से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों को जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड सके और कृष्ण भावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सके । इन तीन विधियों में से किसी एक का भी पालन करके, मनुष्य देर सवेर निश्चय ही अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है ।  


प्रभुपाद : चलित-मानस: । चलित-मानस: का मतलब है योगाभ्यास से मन को हटाना योगााच्चलितमानस । योगात मतलब है योगाभ्यास से और चिलत का मतलब है हटना मानस: का मतलब है मन योगाच चलित मानस: तो संभावना तो है । हर कोई अनुभव करता है। तुम कुछ किताब,पढ़ने की कोशिश कर रहे हो, एकाग्रता से, लेकिन मन अनुमति नहीं दे रहा है, वह परेशान है । तो मन को नियंत्रित करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यही वास्तविक अभ्यास है। अागे पढो ।  
भगवान ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है । भक्ति योग के दिव्य मार्ग में थोड़े से प्रयास से भी जो इस युग के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि भगवद साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है । अत: अर्जुन पुन: अाश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे लेकिन ज्ञान की अनुशीलन विधि तय़ा अष्टांग योग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यत: कठिन है । अत: निरंतर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है । पहला कारण तो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये दिव्यमार्ग का अनुसरण वैसे तो माया के ऊपर धावा बोलना जैसे है "


भक्त: "... जो दिव्य पथ से विचलित हो जाता है । अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के संबंध में जिज्ञासा करता है ।"
प्रभुपाद: जब हम किसी भी आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, यह व्यावहारिक रूप से माया पर धावा बोलना है, माया । तो जब वहाँ माया का सवाल है, या लड़ाई या युद्ध का सवाल है, तो माया द्वारा लागू कई कठिनाई होंगी, यह तय है । इसलिए असफलता की संभावना है, लेकिन हमें बहुत ही स्थिर होना होगा । अागे पढो ।  


प्रभुपाद: हाँ, यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है। कि हम योग के किसी भी तरह का अभ्यास शुरू कर सकते हैं या तो अष्टअंग योग, या ज्ञानयोग, मतलब दार्शनिक अटकलें करना और भक्ति-योग, भक्ति सेवा । लेकिन अगर हम योग को पूरा करने में विफल होते हैं, तो परिणाम क्या है? यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, और यह अर्जुन द्वारा पूछा जाता है, और श्री कृष्ण जवाब देंगे ।
भक्त: "फलत: जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है । बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है, और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुन: मोहित होने की संभावना बनी रहती है । यही योगााच्चलितमानस: कहा जाता है ।"
 
प्रभुपाद: चलित-मानस: । चलित-मानस: का मतलब है  योगाभ्यास से मन को हटाना । योगााच्चलितमानस । योगात मतलब है योगाभ्यास से और चलित का मतलब है हटना । मानस: का मतलब है मन । योगाच चलित मानस: | तो संभावना तो है । हर कोई अनुभव करता है। तुम कुछ किताब,पढ़ने की कोशिश कर रहे हो, एकाग्रता से, लेकिन मन अनुमति नहीं दे रहा है, वह परेशान है । तो मन को नियंत्रित करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यही वास्तविक अभ्यास है । अागे पढो ।
 
भक्त: "...जो दिव्य पथ से विचलित हो जाता है । अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के संबंध में जिज्ञासा करता है ।"
 
प्रभुपाद: हाँ, यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है । कि हम योग के किसी भी तरह का अभ्यास शुरू कर सकते हैं, या तो अष्टांग योग, या ज्ञानयोग, मतलब तत्वज्ञानी अटकलें करना, और भक्ति-योग, भक्ति सेवा । लेकिन अगर हम योग को पूरा करने में विफल होते हैं, तो परिणाम क्या है? यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, और यह अर्जुन द्वारा पूछा जाता है, और कृष्ण जवाब देंगे ।  
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Latest revision as of 19:07, 17 September 2020



Lecture on BG 6.35-45 -- Los Angeles, February 20, 1969

प्रभुपाद: जहॉ तक योगाभ्यास का संबंध है, यह समझाया गया है, श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद । अब, मान लीजिए मैं योगाभ्यास करता हूँ - मेरा मतलब है कि असली योग, यह नकली योग नहीं । और अगर मैं इसे ठीक से नहीं कर सका, मैं असफल हुअा । तो परिणाम क्या है? मान लो मैंने अपने व्यवसाय को छोड दिया, मैंने अपने साधारण व्यवसाय को छोड दिया, और मैं योग का अभ्यास करने में लगा । लेकिन किसी वजह से यह पूरा नहीं हो सका, यह विफलता है । तो परिणाम क्या है? यह अर्जुन द्वारा प्रश्न है । इसका श्री कृष्ण के द्वारा जवाब दिया जाएगा । वह क्या है ? अागे पढो । "अर्जुन ने कहा..."

भक्त: "अर्जुन ने कहा: 'उस असफल योगी की गति क्या है ? जो अारम्भ में श्रद्धापूर्वक अात्म-साक्षात्कार की विधि को गर्हण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है अौर योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?' (भ.गी. ६.३७)"

तात्पर्य: "मार्ग....आत्म-साक्षात्कार का मार्ग, या योग मार्ग, भगवद गीता में वर्णित है । आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है अौर उसका सुख शाश्वत जीवन, अानन्द तथा ज्ञान में निहित है। "

प्रभुपाद: अब, आत्म-साक्षात्कार के इस स्तर पर आने से पहले, हमें यह मान लेना चाहिए कि - भगवद गीता के अारंभ में, कि वह यह शरीर नहीं है । कि जीव यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु वह इसे से भिन्न है, और उसका सुख शाश्वत जीवन में है । यह जीवन शाश्वत नहीं है । योग की सि्द्धि का अर्थ है शाश्वत जीवन, आनंदमय जीवन, और ज्ञान से भरा जीवन पाना । यही सिद्धि है । तो हमें कोई भी योग करना चाहिए उस उद्देश्य के साथ । एसा नहीं कि मैं मोटापे को कम करने के लिए किसी योग कक्षा में जाऊँ या इन्द्रिय संतुष्टि के लिए अपने शरीर को फिट रखूँ । यह योग का उद्देश्य नहीं है ।

लेकिन लोगों को एसा सिखाया जाता है । "ओह, अगर अाप इस योग का अभ्यास करेंगे..." तुम एसा कर सकते हो, अगर तुम कोई भी व्यायाम की प्रक्रिया करते हो तो तुम्हारा शरीर स्वस्थ रहेगा । इतने सारे शारीरिक व्यायाम की प्रणालियॉ है, सेंडो प्रणाली, यह वजन उठाने की प्रणाली, यह... कई खेल प्रणाली हैं, वे भी शरीर को बहुत स्वस्थ रखती हैं। वे बहुत अच्छी तरह से खाद्य पदार्थों को पचाती हैं, वे मोटापे को कम करती हैं । इस उद्देश्य से योग का अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है । असली उद्देश्य यहॉ है - बोध होना कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं शाश्वत सुख चाहता हूँ; मैं पूर्ण ज्ञान चाहता हूँ; मैं अनन्त जीवन भी चाहता हूँ । यह योग का अंतिम उद्देश्य है । अागे पढो ।

भक्त: "ये दिव्य है, शरीर तथा मन दोनों से परे । आत्म-साक्षात्कार की खोझ की जाती है ज्ञान द्वारा, अष्टांग विधि से या भक्तियोग के अभ्यास से । इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अनुभूति प्राप्त करनी होती है अपनी स्वाभाविक स्थिति की, भगवान से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों को जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड सके और कृष्ण भावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सके । इन तीन विधियों में से किसी एक का भी पालन करके, मनुष्य देर सवेर निश्चय ही अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है ।

भगवान ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है । भक्ति योग के दिव्य मार्ग में थोड़े से प्रयास से भी जो इस युग के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि भगवद साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है । अत: अर्जुन पुन: अाश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है । भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे । लेकिन ज्ञान की अनुशीलन विधि तय़ा अष्टांग योग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यत: कठिन है । अत: निरंतर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है । पहला कारण तो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये । दिव्यमार्ग का अनुसरण वैसे तो माया के ऊपर धावा बोलना जैसे है ।"

प्रभुपाद: जब हम किसी भी आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, यह व्यावहारिक रूप से माया पर धावा बोलना है, माया । तो जब वहाँ माया का सवाल है, या लड़ाई या युद्ध का सवाल है, तो माया द्वारा लागू कई कठिनाई होंगी, यह तय है । इसलिए असफलता की संभावना है, लेकिन हमें बहुत ही स्थिर होना होगा । अागे पढो ।

भक्त: "फलत: जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है । बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है, और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुन: मोहित होने की संभावना बनी रहती है । यही योगााच्चलितमानस: कहा जाता है ।"

प्रभुपाद: चलित-मानस: । चलित-मानस: का मतलब है योगाभ्यास से मन को हटाना । योगााच्चलितमानस । योगात मतलब है योगाभ्यास से और चलित का मतलब है हटना । मानस: का मतलब है मन । योगाच चलित मानस: | तो संभावना तो है । हर कोई अनुभव करता है। तुम कुछ किताब,पढ़ने की कोशिश कर रहे हो, एकाग्रता से, लेकिन मन अनुमति नहीं दे रहा है, वह परेशान है । तो मन को नियंत्रित करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यही वास्तविक अभ्यास है । अागे पढो ।

भक्त: "...जो दिव्य पथ से विचलित हो जाता है । अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के संबंध में जिज्ञासा करता है ।"

प्रभुपाद: हाँ, यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है । कि हम योग के किसी भी तरह का अभ्यास शुरू कर सकते हैं, या तो अष्टांग योग, या ज्ञानयोग, मतलब तत्वज्ञानी अटकलें करना, और भक्ति-योग, भक्ति सेवा । लेकिन अगर हम योग को पूरा करने में विफल होते हैं, तो परिणाम क्या है? यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, और यह अर्जुन द्वारा पूछा जाता है, और कृष्ण जवाब देंगे ।