HI/Prabhupada 0700 - सेवा मतलब तीन चीज़ें स्वामी, सेवक और सेवा: Difference between revisions

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प्रभुपाद: हाँ?  
प्रभुपाद: हाँ ?  


भक्त: फिर से, प्रभुपाद, आज सुबह के पठन में  
भक्त: फिर से, प्रभुपाद, आज सुबह के पठन में...


प्रभुपाद: नहीं । सुबह का कोई सवाल नहीं । ठीक है, तुम पूछ सकते हो । लेकिन सवाल और जवाब पढ़े हुए मामले में से होना चाहिए। अन्यथा सवाल जवाब का कोई अंत नहीं होगा अगर तुम सभी मामलों को लाते हो । समझ रहे हो । कोई बात नहीं, तुम खत्म कर सकते हो । हां, कोई सवाल?  
प्रभुपाद: नहीं । सुबह का कोई सवाल नहीं । ठीक है, तुम पूछ सकते हो । लेकिन सवाल और जवाब पढ़े हुए मामले में से होना चाहिए । अन्यथा सवाल जवाब का कोई अंत नहीं होगा अगर तुम सभी मामलों को लाते हो । समझ रहे हो । कोई बात नहीं, तुम खत्म कर सकते हो । हां, कोई सवाल?  


भक्त: आपने उल्लेख किया है कि गोपा श्री कृष्ण के दोस्त, उनके साथ खेल रहे हैं, और उन्होंने अपने पिछले जीवन में बहुत ज्यादा पवित्र कर्म किए हैं । मैं समझता हूँ कि वे अनन्त सहयोगी हैं ...  
भक्त: आपने उल्लेख किया है कि गोप, कृष्ण के दोस्त, उनके साथ खेल रहे हैं, और उन्होंने अपने पिछले जीवन में बहुत ज्यादा पवित्र कर्म किए हैं । मैं समझता हूँ कि वे शाश्वत संगी हैं...  


प्रभुपाद: नहीं, जो अनन्त सहयोगि होते हैं ... उनमें से कुछ अनन्त सहयोगि हैं; और कुछ को अनन्त संघ में पदोन्नत किया जाता है । मान लो कि तुम जाते हो और एक सहयोगी बन जाते हो, श्री कृष्ण के सखा । तो तुम्हारी स्थिति भी अब अनन्त बन जाती है । अगर केवल श्री कृष्ण के अनन्त सहयोगि ही उनके साथ खेल सकते हैं, दूसरे नहीं, तो फिर तुम्हारे कृष्ण भावनाभावित बनने का अर्थ क्या है ? तुम भी बन सकते हो । कैसे ? कई जन्मों के पवित्र कर्मों के द्वारा । तुम उस स्थिति को पदोन्नत भी किए जा सकते हो । कृत-पुण्य-पुन्जा: ([[Vanisource:SB 10.12.11|श्री भ १०।१२।११]]) असल में इस भौतिक वृन्दावन में इस भौतिक जगत में, वृन्दावन, ज्यादातर कृष्ण के सहयोगी शसर्त जीव हैं जो कृष्ण भावननामृत के पूर्णता चरण को पदोन्नत किए जाते हैं । उन्हें सब से पहले कृष्ण को देखने की अनुमति दी जाती है उस ग्रह में जहॉ श्री कृष्ण की लीलाऍ हो रही हैं । पर कहाँ जा रहा है। और फिर वे दिव्य वृन्दावन में पदोन्नत किए जाते हैं। इसलिए यह भागवत में कहा जाता है : कृत-पुण्य-पुन्जा: । वे सभी पदोन्नत किए जाते हैं। लेकिन पदोन्नत किए जाने पर भी वे अनन्त सहयोगी हैं । समझे ? हरे कृष्ण । तो ? कोई अन्य प्रश्न?  
प्रभुपाद: नहीं, जो शाश्वत संगी होते हैं... उनमें से कुछ शाश्वत संगी हैं; और कुछ को शाश्वत संग में पदोन्नत किया जाता है । मान लो कि तुम जाते हो और एक संगी बन जाते हो, कृष्ण के सखा । तो तुम्हारी स्थिति भी अब शाश्वत बन जाती है । अगर केवल कृष्ण के शाश्वत संगी ही उनके साथ खेल सकते हैं, दूसरे नहीं, तो फिर तुम्हारे कृष्ण भावनाभावित बनने का अर्थ क्या है ? तुम भी बन सकते हो । कैसे ? कई जन्मों के पवित्र कर्मों के द्वारा । तुम उस स्थिति को पदोन्नत भी किए जा सकते हो । कृत-पुण्य-पुन्जा: ([[Vanisource:SB 10.12.7-11|श्रीमद भागवतम १०.१२.११]]) | असल में इस भौतिक वृन्दावन में इस भौतिक जगत में, वृन्दावन में, ज्यादातर कृष्ण के सहयोगी बद्ध जीव हैं जो कृष्ण भावननामृत के पूर्ण चरण को पदोन्नत किए जाते हैं । उन्हें सब से पहले कृष्ण को देखने की अनुमति दी जाती है उस ग्रह में जहॉ कृष्ण की लीलाऍ हो रही हैं । और फिर वे दिव्य वृन्दावन में पदोन्नत किए जाते हैं। इसलिए यह भागवत में कहा जाता है: कृत-पुण्य-पुन्जा: । वे सभी पदोन्नत किए जाते हैं । लेकिन पदोन्नत किए जाने पर भी वे शाश्वत संगी हैं । समझे ? हरे कृष्ण । तो ? कोई अन्य प्रश्न?  


भक्त: प्रभुपाद? क्या यह संभव है, संभव है कि कोई भक्ति-योग में संलग्न हो श्री कृष्ण को सेवा प्रदान किए बिना? मान लिजिए जो ...  
भक्त: प्रभुपाद? क्या यह संभव है, संभव है की कोई भक्ति-योग में संलग्न हो कृष्ण को सेवा प्रदान किए बिना ? मान लिजिए जो...  


प्रभुपाद: श्री कृष्ण के बिना, भक्ति कहाँ है ?  
प्रभुपाद: कृष्ण के बिना, भक्ति कहाँ है ?  


भक्त: जैसे कि, कोई भगवान बुद्ध या प्रभु यीशु की पूजा कर रहा है ...  
भक्त: जैसे कि, कोई भगवान बुद्ध या प्रभु यीशु की पूजा कर रहा है...  


प्रभुपाद: यह भक्ति-योग नहीं है । भक्ति-योग है केवल श्री कृष्ण से संबंध । भक्ति-योग किसी अौर में लागू नहीं किया जा सकता है, कुछ और पे । कैसे बुद्ध दर्शन भक्ति-योग के साथ ताल मेल खाएगा ? भक्ति-योग का मतलब है भगवान को समझना । भक्त्या माम अभिजानाति । तुम भगवद गीता के अठारहवें अध्याय में पाअोगे । भक्ति-योग द्वारा तुम भगवान को समझ सकते हो, परमेश्वर । लेकिन बुद्ध के दर्शन में कोई भगवान नहीं है । यह तुम जानते हो ? तो कहां भक्ति-योग है ?  
प्रभुपाद: यह भक्ति-योग नहीं है । भक्ति-योग है केवल कृष्ण से संबंध । भक्ति-योग किसी अौर में लागू नहीं किया जा सकता है, कुछ और पे । कैसे बुद्ध तत्वज्ञान भक्ति-योग के साथ ताल मेल खाएगा ? भक्ति-योग का मतलब है भगवान को समझना । भक्त्या माम अभिजानाति ([[HI/BG 18.55|भ.गी. १८.५५]])) । तुम भगवद गीता के अठारहवें अध्याय में पाअोगे । भक्ति-योग द्वारा तुम भगवान को समझ सकते हो, परमेश्वर । लेकिन बुद्ध के तत्वज्ञान में कोई भगवान नहीं है । यह तुम जानते हो ? तो कहां भक्ति-योग है ?  


भक्त: ईसाइयों के मामले में, उनमें से कुछ यीशु मसीह की पूजा करते हैं ।  
भक्त: ईसाइयों के मामले में, उनमें से कुछ यीशु मसीह की पूजा करते हैं ।  


प्रभुपाद: यह भक्ति-योग है । क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं । जब तक तुम भगवान को स्वीकार नहीं करते, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । तो ईसाई धर्म भी वैश्णव धर्म है, क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं शायद, किसी स्तर पर, इस से अलग । भगवान प्राप्ति के विभिन्न चरणों होते हैं । ईसाई धर्म कहता है "ईश्वर महान हैं ।" स्वीकार करो ! यह बहुत अच्छा है । लेकिन भगवान कितने महान हैं, कि तुम भगवद गीता और श्रीमद-भागवतम से समझ सकते हो । लेकिन ईश्वर महान हैं, इसकि स्वीकृति है। यह है, इसलिए, भक्ति की शुरुआत । तुम वहाँ भक्ति कह सकते हो । यहां तक ​​कि मुसलमान धर्म । वह भी भक्ति-योग है । कोई भी धर्म जहां भगवान लक्ष्य है - वह है, वहॉ भक्ति कहा जा सकता है । कोई जब भगवान नहीं है, या मायावाद है, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । भक्ति-योग का मतलब है भज धातु, भज सेवया । सेवा । सेवा मतलब तीन चीज़ें - स्वामी, सेवक अौर सेवा । सेवा स्वीकार करने वाला होना चाहिए। और सेवा प्रदान करने वाला होना चाहिए। और माध्यम है, सेवा करने की प्रक्रिया । इसलिए भक्ति-योग का मतलब है सेवा । अगर सेवा स्वीकार करने के लिए कोई नहीं है, तो कहां है भक्ति-योग ? तो कोई भी दर्शन या धार्मिक सिद्धांत जहां भगवान की कोई स्वीकृति नहीं है भक्ति का कोई स्थान नहीं है ।
प्रभुपाद: यह भक्ति-योग है । क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं । जब तक तुम भगवान को स्वीकार नहीं करते, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । तो ईसाई धर्म भी वैष्णव धर्म है, क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं | शायद, किसी स्तर पर, इस से अलग । भगवद प्राप्ति के विभिन्न चरण होते हैं । ईसाई धर्म कहता है "ईश्वर महान हैं ।" स्वीकार करो ! यह बहुत अच्छा है । लेकिन भगवान कितने महान हैं, ये तुम भगवद गीता और श्रीमद-भागवतम से समझ सकते हो । लेकिन ईश्वर महान हैं, इसकि स्वीकृति है । यह है, इसलिए, भक्ति की शुरुआत । तुम वहाँ भक्ति कह सकते हो । यहां तक ​​कि मुसलमान धर्म । वह भी भक्ति-योग है । कोई भी धर्म जहां भगवान लक्ष्य है - वह है, वहॉ भक्ति कहा जा सकता है । कोई जब भगवान नहीं है, या मायावाद है, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । भक्ति-योग का मतलब है भज धातु, भज-सेवया । सेवा ।  
 
सेवा मतलब तीन चीज़ें - स्वामी, सेवक अौर सेवा । सेवा स्वीकार करने वाला होना चाहिए । और सेवा प्रदान करने वाला होना चाहिए । और माध्यम है, सेवा करने की प्रक्रिया । इसलिए भक्ति-योग का मतलब है सेवा । अगर सेवा स्वीकार करने के लिए कोई नहीं है, तो कहां है भक्ति-योग ? तो कोई भी तत्वज्ञान या धार्मिक सिद्धांत जहां भगवान की कोई स्वीकृति नहीं है, भक्ति का कोई स्थान नहीं है ।  
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Latest revision as of 19:08, 17 September 2020



Lecture on BG 6.46-47 -- Los Angeles, February 21, 1969

प्रभुपाद: हाँ ?

भक्त: फिर से, प्रभुपाद, आज सुबह के पठन में...

प्रभुपाद: नहीं । सुबह का कोई सवाल नहीं । ठीक है, तुम पूछ सकते हो । लेकिन सवाल और जवाब पढ़े हुए मामले में से होना चाहिए । अन्यथा सवाल जवाब का कोई अंत नहीं होगा अगर तुम सभी मामलों को लाते हो । समझ रहे हो । कोई बात नहीं, तुम खत्म कर सकते हो । हां, कोई सवाल?

भक्त: आपने उल्लेख किया है कि गोप, कृष्ण के दोस्त, उनके साथ खेल रहे हैं, और उन्होंने अपने पिछले जीवन में बहुत ज्यादा पवित्र कर्म किए हैं । मैं समझता हूँ कि वे शाश्वत संगी हैं...

प्रभुपाद: नहीं, जो शाश्वत संगी होते हैं... उनमें से कुछ शाश्वत संगी हैं; और कुछ को शाश्वत संग में पदोन्नत किया जाता है । मान लो कि तुम जाते हो और एक संगी बन जाते हो, कृष्ण के सखा । तो तुम्हारी स्थिति भी अब शाश्वत बन जाती है । अगर केवल कृष्ण के शाश्वत संगी ही उनके साथ खेल सकते हैं, दूसरे नहीं, तो फिर तुम्हारे कृष्ण भावनाभावित बनने का अर्थ क्या है ? तुम भी बन सकते हो । कैसे ? कई जन्मों के पवित्र कर्मों के द्वारा । तुम उस स्थिति को पदोन्नत भी किए जा सकते हो । कृत-पुण्य-पुन्जा: (श्रीमद भागवतम १०.१२.११) | असल में इस भौतिक वृन्दावन में इस भौतिक जगत में, वृन्दावन में, ज्यादातर कृष्ण के सहयोगी बद्ध जीव हैं जो कृष्ण भावननामृत के पूर्ण चरण को पदोन्नत किए जाते हैं । उन्हें सब से पहले कृष्ण को देखने की अनुमति दी जाती है उस ग्रह में जहॉ कृष्ण की लीलाऍ हो रही हैं । और फिर वे दिव्य वृन्दावन में पदोन्नत किए जाते हैं। इसलिए यह भागवत में कहा जाता है: कृत-पुण्य-पुन्जा: । वे सभी पदोन्नत किए जाते हैं । लेकिन पदोन्नत किए जाने पर भी वे शाश्वत संगी हैं । समझे ? हरे कृष्ण । तो ? कोई अन्य प्रश्न?

भक्त: प्रभुपाद? क्या यह संभव है, संभव है की कोई भक्ति-योग में संलग्न हो कृष्ण को सेवा प्रदान किए बिना ? मान लिजिए जो...

प्रभुपाद: कृष्ण के बिना, भक्ति कहाँ है ?

भक्त: जैसे कि, कोई भगवान बुद्ध या प्रभु यीशु की पूजा कर रहा है...

प्रभुपाद: यह भक्ति-योग नहीं है । भक्ति-योग है केवल कृष्ण से संबंध । भक्ति-योग किसी अौर में लागू नहीं किया जा सकता है, कुछ और पे । कैसे बुद्ध तत्वज्ञान भक्ति-योग के साथ ताल मेल खाएगा ? भक्ति-योग का मतलब है भगवान को समझना । भक्त्या माम अभिजानाति (भ.गी. १८.५५)) । तुम भगवद गीता के अठारहवें अध्याय में पाअोगे । भक्ति-योग द्वारा तुम भगवान को समझ सकते हो, परमेश्वर । लेकिन बुद्ध के तत्वज्ञान में कोई भगवान नहीं है । यह तुम जानते हो ? तो कहां भक्ति-योग है ?

भक्त: ईसाइयों के मामले में, उनमें से कुछ यीशु मसीह की पूजा करते हैं ।

प्रभुपाद: यह भक्ति-योग है । क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं । जब तक तुम भगवान को स्वीकार नहीं करते, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । तो ईसाई धर्म भी वैष्णव धर्म है, क्योंकि वे भगवान को स्वीकार करते हैं | शायद, किसी स्तर पर, इस से अलग । भगवद प्राप्ति के विभिन्न चरण होते हैं । ईसाई धर्म कहता है "ईश्वर महान हैं ।" स्वीकार करो ! यह बहुत अच्छा है । लेकिन भगवान कितने महान हैं, ये तुम भगवद गीता और श्रीमद-भागवतम से समझ सकते हो । लेकिन ईश्वर महान हैं, इसकि स्वीकृति है । यह है, इसलिए, भक्ति की शुरुआत । तुम वहाँ भक्ति कह सकते हो । यहां तक ​​कि मुसलमान धर्म । वह भी भक्ति-योग है । कोई भी धर्म जहां भगवान लक्ष्य है - वह है, वहॉ भक्ति कहा जा सकता है । कोई जब भगवान नहीं है, या मायावाद है, भक्ति-योग का कोई सवाल ही नहीं है । भक्ति-योग का मतलब है भज धातु, भज-सेवया । सेवा ।

सेवा मतलब तीन चीज़ें - स्वामी, सेवक अौर सेवा । सेवा स्वीकार करने वाला होना चाहिए । और सेवा प्रदान करने वाला होना चाहिए । और माध्यम है, सेवा करने की प्रक्रिया । इसलिए भक्ति-योग का मतलब है सेवा । अगर सेवा स्वीकार करने के लिए कोई नहीं है, तो कहां है भक्ति-योग ? तो कोई भी तत्वज्ञान या धार्मिक सिद्धांत जहां भगवान की कोई स्वीकृति नहीं है, भक्ति का कोई स्थान नहीं है ।