HI/Prabhupada 0828 - जो अपने अधीनस्थ का ख्याल रखता है, वह गुरु है: Difference between revisions

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प्रद्युम्न: अनुवाद: "जो अपने अाश्रितों को जन्म अौर मृत्यु के चक्र से उभार नहीं सकता है उसे एक आध्यात्मिक गुरु, एक पिता, एक पति, एक माँ या एक पूजनीय देवता कभी नहीं बनना चाहिए। "  
प्रद्युम्न: अनुवाद: "जो अपने अाश्रितों को जन्म अौर मृत्यु के चक्र से उभार नहीं सकता है उसे एक आध्यात्मिक गुरु, एक पिता, एक पति, एक माँ या एक पूजनीय देवता कभी नहीं बनना चाहिए ।"  


प्रभुपाद:  
प्रभुपाद:  
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:गुरुर न स स्यात स्व जनो न स स्यात  
:गुरुर न स स्यात स्व जनो न स स्यात  
:पिता न स स्याज जननी न स स्यात  
:पिता न स स्याज जननी न स स्यात  
:दैवम् न तत स्यान न पतिश च स स्यान  
:दैवम न तत स्यान न पतिश च स स्यान  
:न मोचयेद य: समुपेत मृत्युम  
:न मोचयेद य: समुपेत मृत्युम  
:([[Vanisource:SB 5.5.18|श्री ब ५।५।१८]])
:([[Vanisource:SB 5.5.18|श्रीमद भागवतम ५.५.१८]])


तो पिछले श्लोक में यह वर्णित किया गया है कि कस तम् स्वयम् तदद अभिज्ञो विपश्चिद अभिभावक को अभिज्ञ: होना चाहिए, और विपश्चित बहुत विद्वान । सरकार, पिता, गुरु, शिक्षक, या यहां तक ​​कि पति ... क्यों हम निर्देशित हैं, हर कोई किसी न किसी के द्वारा निर्देशित है । यही समाज है । बिल्लि और कुत्ते नहीं । जैसे बिल्लि और कुत्ते, वे बच्चों को जन्म देते हैं और फिर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। कुत्तों गली में घूम रहे हैं; किसी को परवाह नहीं है। लेकिन मानव समाज को एसा नहीं होना चाहिए । जिम्मेदार अभिभावक होना ही चाहिए। कुछ जिम्मेदार अभिभावक यहाँ वर्णित हैं। सब से पहले, गुरु। या तो तुम स्कूल या कॉलेज का साधारण शिक्षक ले लो, वे भी गुरु कहे जाते हैं, और उदात्त गुरू आध्यात्मिक गुरू है । आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, लेकिन जिसने दूसरों को सिखाने के लिए गुरु बनने का पद ले लिया है, उसे बहुत ही जिम्मेदार, बहुत विद्वान होना चाहिए, विपश्चित, अभिज्ञ: । अभिज्ञत: यह भगवान की योग्यता है। जैसे कि श्रीमद-भागवतम के शुरुअात में कहा जाता है अभिज्ञ: । जन्मादि अस्य यत" अन्वयाद इतरतश च अर्थेषु अभिज्ञ: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्री भ १।१।१]]) नियंत्रक को अभिज्ञ: होना ही चाहिए। वही बात यहाँ है। बेशक, हम भगवान की तरह अभिज्ञ: नहीं हो सकते हैं - यह संभव नहीं है - लेकिन की छोटी मात्रा में अभिज्ञत: होना चाहिए। अन्यथा बनने का उपयोग क्या है ...?
तो पिछले श्लोक में यह वर्णित किया गया है, कि कस तम स्वयम तद अभिज्ञो विपश्चिद | अभिभावक को अभिज्ञ: होना चाहिए, और विपश्चित, बहुत विद्वान । सरकार, पिता, गुरु, शिक्षक, या यहां तक ​​कि पति... क्यों हम निर्देशित हैं, हर कोई किसी न किसी के द्वारा निर्देशित है । यही समाज है । बिल्लि और कुत्ते नहीं । जैसे बिल्लि और कुत्ते, वे बच्चों को जन्म देते हैं और फिर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है । कुत्ते गली में घूम रहे हैं; किसी को परवाह नहीं है । लेकिन मानव समाज को एसा नहीं होना चाहिए ।  


सबसे पहले, यह गुरु के बारे में कहा जाता है, जो अपने अधीनस्थ का ख्याल रखता है, वह गुरु है । पहला निषेध यह है कि तुम्हे एक गुरु नहीं बनना चाहिए जब तक तुम जागरूक नहीं हो कि कैसे जन्म और मृत्यु के चक्र से अपने आश्रित को बचाया जा सकता है। पहला सवाल यह है। यह नहीं कि "मैं तुम्हारा गुरु हूँ। मैं तुम्हारे पेट के दर्द का इलाज कर सकता हूँ ।" वे इस उद्देश्य से भी गुरु के पास जाते हैं । लोग आम तौर पर गुरु के पास जाते हैं, धूर्त गुरु के पास जाते हैं, एक और धूर्त । वो क्या है ? "श्रीमन, मुझे कुछ दर्द है। मुझे कुछ आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरा दर्द ठीक हो जाए ।" "लेकिन तुम पेट के अपने दर्द के इलाज के लिए, धूर्त, यहाँ क्यों आए हो? तुम किसी चिकित्सक के पास जाअो, या तुम कोई गोली लो । क्या यह गुरु के पास आने का प्रयोजन है? " लेकिन आम तौर पर वे गुरु के पास आते हैं और कुछ भौतिक लाभ के लिए आशीर्वाद पूछते हैं । वे धूर्त हैं, और इसलिए श्री कृष्ण भी उन्हें एक धूर्त गुरु देते हैं । वे धोखा खाना चाहते हैं। वे जानते नहीं है कि गुरु के पास जाने का उद्देश्य क्या है । वे नहीं जानते। वे नहीं जानते हैं कि मेरे जीवन की समस्या क्या है और क्यों मैं गुरु के पास जाऊँ । वे नहीं जानते । और तथाकथित गुरु भी जनता की इस अज्ञानता का लाभ लेते हैं, और वे एक गुरु बन जाते हैं । यह चल रहा है। गुरु नहीं जानता है कि उसकी जिम्मेदारी क्या है और धूर्त जनता, वे नहीं जानते हैं कि किसके लिए हमें गुरु के पास जाना चाहिए । यही कठिनाई है।
जिम्मेदार अभिभावक होना ही चाहिए । कुछ जिम्मेदार अभिभावक यहाँ वर्णित हैं । सब से पहले, गुरु । या तो तुम स्कूल या कॉलेज के साधारण शिक्षक ले लो, वे भी गुरु कहे जाते हैं, और उदात्त गुरू आध्यात्मिक गुरू है । आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, लेकिन जिसने दूसरों को सिखाने के लिए गुरु बनने का पद ले लिया है, उसे बहुत ही जिम्मेदार, बहुत विद्वान होना चाहिए, विपश्चित, अभिज्ञ: । अभिज्ञत: यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की योग्यता है । जैसे कि श्रीमद-भागवतम के शुरुअात में कहा जाता है अभिज्ञ: ।
 
जन्मादि अस्य यत: अन्वयाद इतरतश च अर्थेषु अभिज्ञ: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) | नियंत्रक को अभिज्ञ: होना ही चाहिए । वही बात यहाँ है । बेशक, हम भगवान की तरह अभिज्ञ: नहीं हो सकते हैं - यह संभव नहीं है - लेकिन छोटी मात्रा में अभिज्ञत: होना चाहिए । अन्यथा बनने का उपयोग क्या है...?
 
सबसे पहले, यह गुरु के बारे में कहा जाता है, जो अपने अधीनस्थ का ख्याल रखता है, वह गुरु है । पहला निषेध यह है कि तुम्हे एक गुरु नहीं बनना चाहिए जब तक तुम जागरूक नहीं हो कि कैसे जन्म और मृत्यु के चक्र से अपने आश्रित को बचाया जा सकता है । पहला सवाल यह है । यह नहीं की "मैं तुम्हारा गुरु हूँ । मैं तुम्हारे पेट के दर्द का इलाज कर सकता हूँ ।" वे इस उद्देश्य से भी गुरु के पास जाते हैं ।  
 
लोग आम तौर पर गुरु के पास जाते हैं, धूर्त गुरु के पास जाते हैं, एक और धूर्त । वो क्या है ? "श्रीमान, मुझे कुछ दर्द है । मुझे कुछ आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरा दर्द ठीक हो जाए ।" "लेकिन तुम पेट के अपने दर्द के इलाज के लिए, धूर्त, यहाँ क्यों आए हो ? तुम किसी चिकित्सक के पास जाअो, या तुम कोई गोली लो । क्या यह गुरु के पास आने का प्रयोजन है ?" लेकिन आम तौर पर वे गुरु के पास आते हैं और कुछ भौतिक लाभ के लिए आशीर्वाद माँगते हैं । वे धूर्त हैं, और इसलिए कृष्ण भी उन्हें एक धूर्त गुरु देते हैं । वे धोखा खाना चाहते हैं । वे जानते नहीं है कि गुरु के पास जाने का उद्देश्य क्या है । वे नहीं जानते । वे नहीं जानते हैं कि मेरे जीवन की समस्या क्या है और क्यों मैं गुरु के पास जाऊँ । वे नहीं जानते । और तथाकथित गुरु भी जनता की इस अज्ञानता का लाभ लेते हैं, और वे एक गुरु बन जाते हैं । यह चल रहा है । गुरु नहीं जानता है की उसकी जिम्मेदारी क्या है और धूर्त जनता, वे नहीं जानते हैं कि किसके लिए हमें गुरु के पास जाना चाहिए । यही कठिनाई है ।
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on SB 5.5.18 -- Vrndavana, November 6, 1976

प्रद्युम्न: अनुवाद: "जो अपने अाश्रितों को जन्म अौर मृत्यु के चक्र से उभार नहीं सकता है उसे एक आध्यात्मिक गुरु, एक पिता, एक पति, एक माँ या एक पूजनीय देवता कभी नहीं बनना चाहिए ।"

प्रभुपाद:

गुरुर न स स्यात स्व जनो न स स्यात
पिता न स स्याज जननी न स स्यात
दैवम न तत स्यान न पतिश च स स्यान
न मोचयेद य: समुपेत मृत्युम
(श्रीमद भागवतम ५.५.१८)

तो पिछले श्लोक में यह वर्णित किया गया है, कि कस तम स्वयम तद अभिज्ञो विपश्चिद | अभिभावक को अभिज्ञ: होना चाहिए, और विपश्चित, बहुत विद्वान । सरकार, पिता, गुरु, शिक्षक, या यहां तक ​​कि पति... क्यों हम निर्देशित हैं, हर कोई किसी न किसी के द्वारा निर्देशित है । यही समाज है । बिल्लि और कुत्ते नहीं । जैसे बिल्लि और कुत्ते, वे बच्चों को जन्म देते हैं और फिर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है । कुत्ते गली में घूम रहे हैं; किसी को परवाह नहीं है । लेकिन मानव समाज को एसा नहीं होना चाहिए ।

जिम्मेदार अभिभावक होना ही चाहिए । कुछ जिम्मेदार अभिभावक यहाँ वर्णित हैं । सब से पहले, गुरु । या तो तुम स्कूल या कॉलेज के साधारण शिक्षक ले लो, वे भी गुरु कहे जाते हैं, और उदात्त गुरू आध्यात्मिक गुरू है । आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, लेकिन जिसने दूसरों को सिखाने के लिए गुरु बनने का पद ले लिया है, उसे बहुत ही जिम्मेदार, बहुत विद्वान होना चाहिए, विपश्चित, अभिज्ञ: । अभिज्ञत: यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की योग्यता है । जैसे कि श्रीमद-भागवतम के शुरुअात में कहा जाता है अभिज्ञ: ।

जन्मादि अस्य यत: अन्वयाद इतरतश च अर्थेषु अभिज्ञ: (श्रीमद भागवतम १.१.१) | नियंत्रक को अभिज्ञ: होना ही चाहिए । वही बात यहाँ है । बेशक, हम भगवान की तरह अभिज्ञ: नहीं हो सकते हैं - यह संभव नहीं है - लेकिन छोटी मात्रा में अभिज्ञत: होना चाहिए । अन्यथा बनने का उपयोग क्या है...?

सबसे पहले, यह गुरु के बारे में कहा जाता है, जो अपने अधीनस्थ का ख्याल रखता है, वह गुरु है । पहला निषेध यह है कि तुम्हे एक गुरु नहीं बनना चाहिए जब तक तुम जागरूक नहीं हो कि कैसे जन्म और मृत्यु के चक्र से अपने आश्रित को बचाया जा सकता है । पहला सवाल यह है । यह नहीं की "मैं तुम्हारा गुरु हूँ । मैं तुम्हारे पेट के दर्द का इलाज कर सकता हूँ ।" वे इस उद्देश्य से भी गुरु के पास जाते हैं ।

लोग आम तौर पर गुरु के पास जाते हैं, धूर्त गुरु के पास जाते हैं, एक और धूर्त । वो क्या है ? "श्रीमान, मुझे कुछ दर्द है । मुझे कुछ आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरा दर्द ठीक हो जाए ।" "लेकिन तुम पेट के अपने दर्द के इलाज के लिए, धूर्त, यहाँ क्यों आए हो ? तुम किसी चिकित्सक के पास जाअो, या तुम कोई गोली लो । क्या यह गुरु के पास आने का प्रयोजन है ?" लेकिन आम तौर पर वे गुरु के पास आते हैं और कुछ भौतिक लाभ के लिए आशीर्वाद माँगते हैं । वे धूर्त हैं, और इसलिए कृष्ण भी उन्हें एक धूर्त गुरु देते हैं । वे धोखा खाना चाहते हैं । वे जानते नहीं है कि गुरु के पास जाने का उद्देश्य क्या है । वे नहीं जानते । वे नहीं जानते हैं कि मेरे जीवन की समस्या क्या है और क्यों मैं गुरु के पास जाऊँ । वे नहीं जानते । और तथाकथित गुरु भी जनता की इस अज्ञानता का लाभ लेते हैं, और वे एक गुरु बन जाते हैं । यह चल रहा है । गुरु नहीं जानता है की उसकी जिम्मेदारी क्या है और धूर्त जनता, वे नहीं जानते हैं कि किसके लिए हमें गुरु के पास जाना चाहिए । यही कठिनाई है ।