HI/Prabhupada 0830 - यह वैष्णव तत्त्वज्ञान है । हम दास बनने की कोशिश कर रहे हैं: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0830 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1972 Category:HI-Quotes - Lec...")
 
m (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
 
Line 7: Line 7:
[[Category:HI-Quotes - in India, Vrndavana]]
[[Category:HI-Quotes - in India, Vrndavana]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0829 - चार दीवार तुम्हे सुनेंगे । यह पर्याप्त है। निराश मत होना । जप करते रहो|0829|HI/Prabhupada 0831 - हम असाधु मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते । हमें साधु मार्ग का अनुसरण करना चाहिए|0831}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 15: Line 18:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|9i09SisknZ8|This is the Vaisnava Philosophy. We Are Trying To Be Servant <br/>- Prabhupāda 0830}}
{{youtube_right|LtPI5_UqXxk|यह वैष्णव तत्त्वज्ञान है । हम दास बनने की कोशिश कर रहे हैं<br/>- Prabhupāda 0830}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<mp3player>File:721109SB-VRNDAVANA_clip1.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/721109SB-VRNDAVANA_clip1.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 27: Line 30:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
तो श्री कृष्ण विभु हैं; हम अनु हैं । कभी नहीं यह विचार रखना कि हम श्री कृष्ण के बराबर हैं । यह एक महान अपराध है। यही माया कहा जाता है। यही माया का अंतिम जाल है। दरअसल, हम श्री कृष्ण के साथ एक होने के लिए इस भौतिक दुनिया में आए हैं। हमने सोचा कि हम श्री कृष्ण की तरह हो जाएंगे ।  
तो कृष्ण विभु हैं; हम अणु हैं । यह कभी नहीं सोचना की हम कृष्ण के बराबर हैं । यह एक महान अपराध है । यही माया कहा जाता है । यही माया का अंतिम जाल है । दरअसल, हम कृष्ण के साथ एक होने के लिए इस भौतिक दुनिया में आए हैं । हमने सोचा की हम कृष्ण की तरह हो जाएंगे ।  


:कृष्ण-भुलिया जीव भोग वांछा करे  
:कृष्ण-भुलिया जीव भोग वांछा करे  
:पाशेते माया तारे जापटिया धरे  
:पाशेते माया तारे जापटिया धरे  
:( प्रेम विवर्त)  
:(प्रेम विवर्त) |


क्योंकि हम श्री कृष्ण के साथ एक बनना चाहते थे, प्रतिस्पर्धा करने के लिए श्री कृष्ण के साथ । इसलिए हमें इस भोतिक दुनिया में डाला जाता है । माया तारे जापटिया धरे । और यहाँ, इस भौतिक दुनिया में, यह चल रहा है। हर कोई श्री कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है। यही माया है। हर कोई । "सबसे पहले, मुझे एक बहुत, बड़ा आदमी बनने दो ; फिर मुझे मंत्री बनने दो, मुझे राष्ट्रपति बनने दो । " इस तरह, जब सब कुछ विफल हो जाता है, फिर "मुझे भगवान के अस्तित्व में विलय होने दो ।" मतलब "मुझे भगवान बनने दो ।" यह चल रहा है । यह भौतिक संघर्ष अस्तित्व के लिए । हर कोई श्री कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हमारा दर्शन अलग है । हम श्री कृष्ण बनना नहीं चाहते हैं । हम श्री कृष्ण के सेवक बनने की कोशिश कर रहे हैं । यही मायावाद दर्शन और वैष्णव दर्शन के बीच अंतर है। चैतन्य महाप्रभु हमें सिखाते हैं कैसे बनना है श्री कृष्ण के दास के दास के दास का दास गोपी-भर्तु: पद कमलयोर दास दास दासानुदास: ([[Vanisource:CC Madhya 13.80|चै च मध्य १३।८०]]) । जो, जो व्यक्ति श्री कृष्ण का निम्न सेवक है, वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है। वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है। श्री चैतन्य महाप्रभु इसलिए हमें सिखाते हैं :
क्योंकि हम कृष्ण के साथ एक बनना चाहते थे, प्रतिस्पर्धा करने के लिए कृष्ण के साथ । इसलिए हमें इस भोतिक दुनिया में डाला जाता है । माया तारे जापटिया धरे । और यहाँ, इस भौतिक दुनिया में, यह चल रहा है । हर कोई कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है । यही माया है । हर कोई । "सबसे पहले, मुझे एक बहुत, बड़ा आदमी बनने दो; फिर मुझे मंत्री बनने दो, मुझे राष्ट्रपति बनने दो ।" इस तरह, जब सब कुछ विफल हो जाता है, फिर "मुझे भगवान के अस्तित्व में विलीन होने दो ।" मतलब "मुझे भगवान बनने दो ।" यह चल रहा है । यह भौतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष है ।  


तृनाद अपि सुनिचेन
हर कोई कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है । लेकिन हमारा तत्वज्ञान अलग है । हम कृष्ण बनना नहीं चाहते हैं । हम कृष्ण के सेवक बनने की कोशिश कर रहे हैं । यही मायावाद तत्वज्ञान और वैष्णव तत्वज्ञान के बीच अंतर है । चैतन्य महाप्रभु हमें सिखाते हैं कैसे कृष्ण के दास के दास के दास का दास बनना है । गोपी-भर्तु: पद कमलयोर दास दास दासानुदास: ([[Vanisource:CC Madhya 13.80|चैतन्य चरितामृत मध्य १३.८०]]) । जो, जो व्यक्ति कृष्ण का सबसे निम्न सेवक है, वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है । वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है । श्री चैतन्य महाप्रभु इसलिए हमें सिखाते हैं:
तरोर अपि सहिष्नुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीय: सदा हरि:
:([[Vanisource:CC Adi 17.31|चै च अादि १७।३१]])


यह वैष्णव दर्शन है। हम दास बनने की कोशिश कर रहे हैं। हम कुछ भी भौतिक के साथ पहचान नहीं करते हैं । जैसे ही हम कुछ भी भौतिक के साथ की पहचान करें, हम माया के चंगुल के तहत अा जाते हैं। श्री कृष्ण-भुलिया । क्योंकि जैसे ही मैं श्री कृष्ण के साथ अपने रिश्ते को भूल जाता हूँ मैं श्री कृष्ण का अनन्त दास हूं। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास ([[Vanisource:CC Madhya 20.108-109|चै च मध्य २०।१०८-१०८]]) यही शाश्वत पहचान है जीव की, श्री कृष्ण का दास बने रहने की । जैसे ही हम यह भूल जाते हैं, यह माया है। जैसे ही मुझे लगता है कि "मैं श्री कृष्ण हूँ", यह माया है । वह माया मतलब यह माया, भ्रम, ज्ञान की उन्नति के द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है । यही ज्ञानी है। ज्ञानी मतलब वास्तविक ज्ञान, अपनी वास्तविक स्थिति को समझना । यह ज्ञान नहीं है कि "मैं भगवान के बराबर हूँ। मैं भगवान हूँ।" यह ज्ञान नहीं है। मैं भगवान हूँ, लेकिन मैं भगवान का प्रतिरूप हूँ। लेकिन परम भगवान श्री कृष्ण हैं । ईष्वर: परम: कृष्ण: ( ब्र स ५।१)
:तृणाद अपि सुनिचेन
:तरोर अपि सहिष्णुना
:अमानिना मानदेन
:कीर्तनीय: सदा हरि:
:([[Vanisource:CC Adi 17.31|चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१]])
 
यह वैष्णव तत्वज्ञान है । हम दास बनने की कोशिश कर रहे हैं । हम कुछ भी भौतिक के साथ पहचान नहीं करते हैं । जैसे ही हम कुछ भी भौतिक के साथ की पहचान करें, हम माया के चंगुल के तहत अा जाते हैं । कृष्ण-भुलिया । क्योंकि जैसे ही मैं कृष्ण के साथ अपने रिश्ते को भूल जाता हूँ... मैं कृष्ण का अनन्त दास हूं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास ([[Vanisource:CC Madhya 20.108-109|चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८-१०९]]) | यही शाश्वत पहचान है जीव की, कृष्ण का दास बने रहने की । जैसे ही हम यह भूल जाते हैं, यह माया है । जैसे ही मुझे लगता है की "मैं कृष्ण हूँ," यह माया है । वह माया मतलब यह माया, भ्रम, ज्ञान की उन्नति के द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है । यही ज्ञानी है । ज्ञानी मतलब वास्तविक ज्ञान, अपनी वास्तविक स्थिति को समझना । यह ज्ञान नहीं है की "मैं भगवान के बराबर हूँ । मैं भगवान हूँ ।" यह ज्ञान नहीं है । मैं भगवान हूँ, लेकिन मैं भगवान का प्रतिरूप हूँ । लेकिन परम भगवान कृष्ण हैं । ईश्वर: परम: कृष्ण: (ब्रह्मसंहिता ५.१) |
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on SB 1.2.30 -- Vrndavana, November 9, 1972

तो कृष्ण विभु हैं; हम अणु हैं । यह कभी नहीं सोचना की हम कृष्ण के बराबर हैं । यह एक महान अपराध है । यही माया कहा जाता है । यही माया का अंतिम जाल है । दरअसल, हम कृष्ण के साथ एक होने के लिए इस भौतिक दुनिया में आए हैं । हमने सोचा की हम कृष्ण की तरह हो जाएंगे ।

कृष्ण-भुलिया जीव भोग वांछा करे
पाशेते माया तारे जापटिया धरे
(प्रेम विवर्त) |

क्योंकि हम कृष्ण के साथ एक बनना चाहते थे, प्रतिस्पर्धा करने के लिए कृष्ण के साथ । इसलिए हमें इस भोतिक दुनिया में डाला जाता है । माया तारे जापटिया धरे । और यहाँ, इस भौतिक दुनिया में, यह चल रहा है । हर कोई कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है । यही माया है । हर कोई । "सबसे पहले, मुझे एक बहुत, बड़ा आदमी बनने दो; फिर मुझे मंत्री बनने दो, मुझे राष्ट्रपति बनने दो ।" इस तरह, जब सब कुछ विफल हो जाता है, फिर "मुझे भगवान के अस्तित्व में विलीन होने दो ।" मतलब "मुझे भगवान बनने दो ।" यह चल रहा है । यह भौतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष है ।

हर कोई कृष्ण बनने की कोशिश कर रहा है । लेकिन हमारा तत्वज्ञान अलग है । हम कृष्ण बनना नहीं चाहते हैं । हम कृष्ण के सेवक बनने की कोशिश कर रहे हैं । यही मायावाद तत्वज्ञान और वैष्णव तत्वज्ञान के बीच अंतर है । चैतन्य महाप्रभु हमें सिखाते हैं कैसे कृष्ण के दास के दास के दास का दास बनना है । गोपी-भर्तु: पद कमलयोर दास दास दासानुदास: (चैतन्य चरितामृत मध्य १३.८०) । जो, जो व्यक्ति कृष्ण का सबसे निम्न सेवक है, वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है । वह प्रथम श्रेणी का वैष्णव है । श्री चैतन्य महाप्रभु इसलिए हमें सिखाते हैं:

तृणाद अपि सुनिचेन
तरोर अपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीय: सदा हरि:
(चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१)

यह वैष्णव तत्वज्ञान है । हम दास बनने की कोशिश कर रहे हैं । हम कुछ भी भौतिक के साथ पहचान नहीं करते हैं । जैसे ही हम कुछ भी भौतिक के साथ की पहचान करें, हम माया के चंगुल के तहत अा जाते हैं । कृष्ण-भुलिया । क्योंकि जैसे ही मैं कृष्ण के साथ अपने रिश्ते को भूल जाता हूँ... मैं कृष्ण का अनन्त दास हूं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, जीवेर स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास (चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०८-१०९) | यही शाश्वत पहचान है जीव की, कृष्ण का दास बने रहने की । जैसे ही हम यह भूल जाते हैं, यह माया है । जैसे ही मुझे लगता है की "मैं कृष्ण हूँ," यह माया है । वह माया मतलब यह माया, भ्रम, ज्ञान की उन्नति के द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है । यही ज्ञानी है । ज्ञानी मतलब वास्तविक ज्ञान, अपनी वास्तविक स्थिति को समझना । यह ज्ञान नहीं है की "मैं भगवान के बराबर हूँ । मैं भगवान हूँ ।" यह ज्ञान नहीं है । मैं भगवान हूँ, लेकिन मैं भगवान का प्रतिरूप हूँ । लेकिन परम भगवान कृष्ण हैं । ईश्वर: परम: कृष्ण: (ब्रह्मसंहिता ५.१) |