HI/Prabhupada 0836 - हमें मानव जीवन की पूर्णता के लिए कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए: Difference between revisions

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एक साधु, एक ऋषि या एक भक्त, हालांकि वे सब कुछ जानते हैं, फिर भी, वह खुद को एसे दिखाता है कि उसे कुछ पता नहीं । वह कभी नहीं कहेगा कि, "मुझे सब कुछ पता है।" लेकिन वास्तव में, सब कुछ पता होना संभव नहीं है। यह संभव नहीं है। लेकिन एक ... जैसे सर आइजैक न्यूटन, वे इससे सहमत हैं कि "लोग कहते हैं कि मैं बहुत विद्वान हूँ लेकिन मुझे पता नहीं है कि मैं कितना विद्वान हूँ । मैं केवल समुद्र तट पर कुछ कंकड़ एकत्रित कर रहा हूँ। " तो यह स्थिति है । तो अगर एक आदमी वास्तव में विद्वान है, वह कभी नहीं कहेगा कि "मैं विद्वान हूँ ।" वह केवल कहेगा "मैं अव्वल दर्जे का मूर्ख हूँ। मुझे नहीं पता ।" तो चैतन्य महाप्रभु नें उसकी विनम्रता की सराहना की क्योंकि वास्तव में, वह विद्वान था अौर समाज में स्थान था । तो विनिमय में, आदान-प्रदान, मेरे कहने का मतलब, शिष्टाचार, उन्होंने स्वीकार किया, "नहीं तुम गिरे नहीं हो । तुम निराश न हो । केवल एक विद्वान का कर्तव्य है अपने अाप को एसे रखना । लेकिन तुम बेवकूफ नहीं हो । " कृष्ण शक्ति धर तुमि ([[Vanisource:CC Madhya 20.105|चै च मध्य २०।१०५]]) " क्योंकि तुम पहले से ही भक्त हो ।" सेवानिवृत्ति से पहले, और चैतन्य महाप्रभु के पास अाने से पहले, ये गोस्वामी, जैसा कि मैंने तुम्हे बताया, वे संस्कृत के विद्वान हैं। वे भागवत पढ़ते थे । जब उन्होंने नवाब शाह को झूठी रिपोर्ट दे दी, कि "मैं अस्वस्त हूँ । मैं कार्यालय में उपस्थित नहीं हो सकता ।"" तब नवाब शाह उसके घर गए एक दिन व्यक्तिगत रूप से कि "यह सज्जन केवल बीमार रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहा है अौर कार्यालय में नहीं अा रहा है। यह क्या है? " तो जब वे गए और नवाब शाह नें देखा कि वह श्रीमद-भागवतम पढ़ने में विद्वानों के साथ लगा हुअा है फिर वे समझ गए "ओह, यह तम्हारी बीमारी है। अब तुमने श्रीमद-भागवतम को पढना शुरू कर दिया है ।" तो वास्तव में वह बहुत विद्वान थे, लेकिन अपने विनम्र व्यवहार के कारण वह सौम्य तरीके से भगवान चैतन्य के सामने खुद को प्रस्तुत कर रहे थे । तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि,
एक साधु, एक ऋषि या एक भक्त, हालांकि वे सब कुछ जानते हैं, फिर भी, वह खुद को एसे दिखाता है कि उसे कुछ पता नहीं । वह कभी नहीं कहेगा की, "मुझे सब कुछ पता है ।" लेकिन वास्तव में, सब कुछ पता होना संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । लेकिन एक... जैसे सर आइजैक न्यूटन, वे इससे सहमत हैं की "लोग कहते हैं कि मैं बहुत विद्वान हूँ लेकिन मुझे पता नहीं है कि मैं कितना विद्वान हूँ । मैं केवल समुद्र तट पर कुछ कंकड़ एकत्रित कर रहा हूँ।" तो यह स्थिति है ।  


:सद धर्मस्यावबोधया
तो अगर एक आदमी वास्तव में विद्वान है, वह कभी नहीं कहेगा की "मैं विद्वान हूँ ।" वह केवल कहेगा "मैं अव्वल दर्जे का मूर्ख हूँ । मुझे नहीं पता ।" तो चैतन्य महाप्रभु नें उसकी विनम्रता की सराहना की, क्योंकि वास्तव में, वह विद्वान था अौर समाज में स्थान था । तो विनिमय में, आदान-प्रदान, मेरे कहने का मतलब, शिष्टाचार, उन्होंने स्वीकार किया, "नहीं तुम पतित नहीं हो । तुम निराश न हो । केवल एक विद्वान का कर्तव्य है अपने अाप को एसे रखना । लेकिन तुम बेवकूफ नहीं हो ।" कृष्ण शक्ति धर तुमि: ([[Vanisource:CC Madhya 20.105|चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०५]])" क्योंकि तुम पहले से ही भक्त हो ।"
:येषाम् निर्बंधीनी मति:  
 
निवृत्ति से पहले, और चैतन्य महाप्रभु के पास अाने से पहले, ये गोस्वामी, जैसा कि मैंने तुम्हे बताया, वे संस्कृत के विद्वान हैं । वे भागवत पढ़ते थे । जब उन्होंने नवाब शाह को झूठी रिपोर्ट दे दी, कि "मैं अस्वस्थ हूँ । मैं कार्यालय में उपस्थित नहीं हो सकता," तब नवाब शाह उनके घर गए एक दिन व्यक्तिगत रूप से, कि "यह सज्जन केवल बिमारी रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहा है अौर कार्यालय में नहीं अा रहा है । यह क्या है ?" तो जब वे गए और नवाब शाह नें देखा कि वे श्रीमद-भागवतम पढ़ने में विद्वानों के साथ लगे हुए है, फिर वे समझ गए "ओह, यह तुम्हारी बीमारी है । अब तुमने श्रीमद-भागवतम को पढना शुरू कर दिया है ।" तो वास्तव में वह बहुत विद्वान थे, लेकिन अपने विनम्र व्यवहार के कारण, वह सौम्य तरीके से भगवान चैतन्य के सामने खुद को प्रस्तुत कर रहे थे । तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि,
 
:सद धर्मस्यावबोधाय
:येषाम निर्बंधीनी मति:  
:अचिराद एव सर्वाथ:  
:अचिराद एव सर्वाथ:  
:सिद्धयति एषाम अभिपसित:  
:सिद्धयति एषाम अभीप्सित:  
:([[Vanisource:CC Madhya 24.170|चै च मध्य २४।१७०]])
:(([[Vanisource:CC Madhya 24.170|चैतन्य चरितामृत मध्य २४.१७०]])) |
 
वे कहते हैं की "तुम्हारी इच्छा पूर्णता पाने की है । इसलिए तुम इतने विनम्र हो ।" तो वे नारदीय पुराण से एक श्लोक कहते हैं की जो कोई भी बहुत गंभीर है... जो कोइ भी गंभीर है ख़ुद को पूरी तरह से जानने के लिए और वह खोजता है उस तरीके से, फिर उसकी पूर्णता निश्चित है । केवल बहुत ही गंभीर होना चाहिए । तात्पर्य, इस श्लोक का तात्पर्य है सद धर्मस्यावबोधाय येषाम निर्बंधीनी मति: | निर्बंधीनी मति: मतलब वह पहले से ही दृढ है की "इस जीवन में मैं अपना जीवन परिपूर्ण करूँगा ।" फिर, उसके लिए, पूर्णता निश्चित है । निश्चित । अगर वह सोचता है, "ओह,। मुझे कोशिश करने दो । मुझे भी कृष्ण भावनामृत के इस विभाग का परीक्षण करने दो, उसी समय अन्य विभागों का परीक्षण भी । हमें इस तरह से चलने दो... " नहीं ।


वे कहते हैं कि "तुम्हारी च्छा पूर्णता पाने की है । इसलिए तुम इतने विनम्र हो ।" तो वे नारदीय पुराण से एक श्लोक कहते हैंम कि जो कोई भी बहुत गंभीर है, जो को भी गंभीर है उन्हें पूरी तरह से जानने के लिए और वह खोजता है उस तरीके से फिर उसकी पूर्णता निश्चित है। केवल बहुत ही गंभीर होना चाहिए। तात्पर्य, इस श्लोक का तात्पर्य है सद धर्मस्यावबोधया येषाम् निर्बंधीनी मति: निर्बंधीनी मति: मतलब वह पहले से ही दृढ है कि "इस जीवन में मैं अपना जीवन परिपूर्ण करूँगा।" फिर, उसके लिए, पूर्णता निश्चित है। निश्चित । अगर वह सोचता है, "ओह,। मुझे कोशिश करने दो । मुझे भी कृष्ण भावनामृत के इस विभाग का परीक्षण करने दो, उश्री समय अन्य विभागों का परीक्षण भी । हमें इस तरह से चलने दो....नहीं । एक इस जीवन में पूर्ण पूर्णता पाने के लिए हमें बहुत ज्यादा गंभीर होना चाहिए। तो अादमी को सनातन गोस्वामी जैसे गंभीर होना चाहिए। और उस उद्देश्य के लिए उन्होंने सब कुछ बलिदान किया , वह एक भिखारी बन गए । तो हम मानव जीवन की पूर्णता के लिए कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। फिर पूर्णता निश्चित है। केवल हमें बहुत ही गंभीर होना चाहिए, बस ।
एक इस जीवन में पूर्ण पूर्णता पाने के लिए हमें बहुत ज्यादा गंभीर होना चाहिए । तो अादमी को सनातन गोस्वामी जैसे गंभीर होना चाहिए । और उस उद्देश्य के लिए उन्होंने सब कुछ बलिदान किया, वह एक भिखारी बन गए । तो हमें मानव जीवन की पूर्णता के लिए कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए । फिर पूर्णता निश्चित है । केवल हमें बहुत ही गंभीर होना चाहिए, बस ।  
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Latest revision as of 17:51, 1 October 2020



Lecture on CC Madhya-lila 20.100-108 -- New York, November 22, 1966

एक साधु, एक ऋषि या एक भक्त, हालांकि वे सब कुछ जानते हैं, फिर भी, वह खुद को एसे दिखाता है कि उसे कुछ पता नहीं । वह कभी नहीं कहेगा की, "मुझे सब कुछ पता है ।" लेकिन वास्तव में, सब कुछ पता होना संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । लेकिन एक... जैसे सर आइजैक न्यूटन, वे इससे सहमत हैं की "लोग कहते हैं कि मैं बहुत विद्वान हूँ लेकिन मुझे पता नहीं है कि मैं कितना विद्वान हूँ । मैं केवल समुद्र तट पर कुछ कंकड़ एकत्रित कर रहा हूँ।" तो यह स्थिति है ।

तो अगर एक आदमी वास्तव में विद्वान है, वह कभी नहीं कहेगा की "मैं विद्वान हूँ ।" वह केवल कहेगा "मैं अव्वल दर्जे का मूर्ख हूँ । मुझे नहीं पता ।" तो चैतन्य महाप्रभु नें उसकी विनम्रता की सराहना की, क्योंकि वास्तव में, वह विद्वान था अौर समाज में स्थान था । तो विनिमय में, आदान-प्रदान, मेरे कहने का मतलब, शिष्टाचार, उन्होंने स्वीकार किया, "नहीं तुम पतित नहीं हो । तुम निराश न हो । केवल एक विद्वान का कर्तव्य है अपने अाप को एसे रखना । लेकिन तुम बेवकूफ नहीं हो ।" कृष्ण शक्ति धर तुमि: (चैतन्य चरितामृत मध्य २०.१०५)" क्योंकि तुम पहले से ही भक्त हो ।"

निवृत्ति से पहले, और चैतन्य महाप्रभु के पास अाने से पहले, ये गोस्वामी, जैसा कि मैंने तुम्हे बताया, वे संस्कृत के विद्वान हैं । वे भागवत पढ़ते थे । जब उन्होंने नवाब शाह को झूठी रिपोर्ट दे दी, कि "मैं अस्वस्थ हूँ । मैं कार्यालय में उपस्थित नहीं हो सकता," तब नवाब शाह उनके घर गए एक दिन व्यक्तिगत रूप से, कि "यह सज्जन केवल बिमारी रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहा है अौर कार्यालय में नहीं अा रहा है । यह क्या है ?" तो जब वे गए और नवाब शाह नें देखा कि वे श्रीमद-भागवतम पढ़ने में विद्वानों के साथ लगे हुए है, फिर वे समझ गए "ओह, यह तुम्हारी बीमारी है । अब तुमने श्रीमद-भागवतम को पढना शुरू कर दिया है ।" तो वास्तव में वह बहुत विद्वान थे, लेकिन अपने विनम्र व्यवहार के कारण, वह सौम्य तरीके से भगवान चैतन्य के सामने खुद को प्रस्तुत कर रहे थे । तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि,

सद धर्मस्यावबोधाय
येषाम निर्बंधीनी मति:
अचिराद एव सर्वाथ:
सिद्धयति एषाम अभीप्सित:
((चैतन्य चरितामृत मध्य २४.१७०)) |

वे कहते हैं की "तुम्हारी इच्छा पूर्णता पाने की है । इसलिए तुम इतने विनम्र हो ।" तो वे नारदीय पुराण से एक श्लोक कहते हैं की जो कोई भी बहुत गंभीर है... जो कोइ भी गंभीर है ख़ुद को पूरी तरह से जानने के लिए और वह खोजता है उस तरीके से, फिर उसकी पूर्णता निश्चित है । केवल बहुत ही गंभीर होना चाहिए । तात्पर्य, इस श्लोक का तात्पर्य है सद धर्मस्यावबोधाय येषाम निर्बंधीनी मति: | निर्बंधीनी मति: मतलब वह पहले से ही दृढ है की "इस जीवन में मैं अपना जीवन परिपूर्ण करूँगा ।" फिर, उसके लिए, पूर्णता निश्चित है । निश्चित । अगर वह सोचता है, "ओह,। मुझे कोशिश करने दो । मुझे भी कृष्ण भावनामृत के इस विभाग का परीक्षण करने दो, उसी समय अन्य विभागों का परीक्षण भी । हमें इस तरह से चलने दो... " नहीं ।

एक इस जीवन में पूर्ण पूर्णता पाने के लिए हमें बहुत ज्यादा गंभीर होना चाहिए । तो अादमी को सनातन गोस्वामी जैसे गंभीर होना चाहिए । और उस उद्देश्य के लिए उन्होंने सब कुछ बलिदान किया, वह एक भिखारी बन गए । तो हमें मानव जीवन की पूर्णता के लिए कुछ भी बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए । फिर पूर्णता निश्चित है । केवल हमें बहुत ही गंभीर होना चाहिए, बस ।