HI/Prabhupada 0930 - तुम इस भौतिक स्थिति से बाहर निकलो । तब वास्तविक जीवन है, अनन्त जीवन: Difference between revisions

 
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तो आलोचना करना हमारे काम नहीं है, लेकिन कलयुग के लक्षण बहुत, बहुत गंभीर हैं, और यह अौर अधिक बढ़ेगा । हमने केवल ५००० साल कलयुग को पारित किया है लेकिन कलयुग की अवधि है ४०००००, ४३२००० साल, उसमे हमने केवल ५००० साल पार किए हैं । और ५००० साल गुजर जाने के बाद, हमें कई कठिनाइयॉ पाते हैं, और जितना अधिक हम इस कलयुग में बढ़ेंगे, दिन और अधिक कठिन हो जाएँगे । तो सबसे अच्छी बात यह है कि तुम अपनी कृष्ण भावनामृत को खत्म करो और घर वापस जाओ, भगवत धाम । यही तुम्हे बचाएगा । अन्यथा, अगर हम फिर से वापस अाते हैं, कठिनाइयॉ, मुश्किल दिन आगे हैं । हम अधिक से अधिक पीड़ित होना पड़ेगा । तो श्री कृष्ण को वर्णित किया गया है यहॉ अज । अजो अपि सन्न अव्ययात्मा भूतानाम ईष्वरो अपि सन । यह भगवद गीता में कहा गया है । अजो अपि । "मैं अजन्मा हूँ ।" हाँ । श्री कृष्ण अजन्मे हैं । हम भी अज्नमे हैं । लेकिन फर्क यह है कि हम इस भौतिक शरीर में उलझे हैं । इसलिए हम अजन्मे के रूप में हमारी स्थिति को नहीं रख पाते हैं । हम जन्म लेना पड़ता है, एक शरीर से दूसरे में जाना पड़ता है, और कोई गारंटी नहीं है कि किस प्रकार का शरीर तुम पाअोगे अगला । लेकिन तुम्हे स्वीकार करना होगा । जैसे हम इस जीवन में एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं । बच्चा अपने अपने बचपन का शरीर त्यागता है, लड़कपन का शरीर स्वीकार करता है । लड़का अपने लड़कपन का शरीर त्याग रहा है, युवक का शरीर स्वीकार करता है । इसी तरह, बुढ़ापे का यह शरीर, जब त्यागते हैं, प्राकृतिक निष्कर्ष है कि मुझे एक और शरीर को स्वीकार करना होगा । फिर से बचपन का शरीर । जैसे मौसमी परिवर्त होते हैं । गर्मियों के बाद, वसंत है, या वसंत के बाद गर्मि है, गर्मि के बाद, पतझड़ है, पतझड़ के बाद, सर्दियॉ । या दिन के बाद, रात है, रात के बाद, दिन है । जैसे ये, ये चक्र हैं एक के बाद एक, इसी तरह, हम शरीर बदल रहे हैं एक के बाद एक । और प्राकृतिक निष्कर्ष यह कि इस शरीर को बदलने के बाद मुझे एक और शरीर मिलेगा । भूत्वा भूत्वा प्रलयते ([[Vanisource:BG 8.19|भ गी ८।१९]])
तो आलोचना करना हमारा काम नहीं है, लेकिन कलियुग के लक्षण बहुत, बहुत गंभीर हैं, और यह अौर अधिक बढ़ेगा । हमने कलियुग के केवल ५,००० साल बिताये है, लेकिन कलयुग की अवधि है ४,००,०००,  ४,३२,००० साल, उसमे हमने केवल ५,००० साल पार किए हैं । और ५,००० साल गुजर जाने के बाद, हम कई कठिनाइयॉ पाते हैं, और जितना अधिक हम इस कलियुग में बढ़ेंगे, दिन और अधिक कठिन हो जाएँगे । तो सबसे अच्छी बात यह है कि तुम अपने कृष्ण भावनामृत के कार्य को खत्म करो और घर वापस जाओ, भगवत धाम । यही तुम्हे बचाएगा । अन्यथा, अगर हम फिर से वापस अाते हैं, कठिनाइयॉ, मुश्किल दिन आगे हैं । हमें अधिक से अधिक पीड़ित होना पड़ेगा ।  
 
तो कृष्ण को वर्णित किया गया है यहॉ अज । अजो अपि सन्न अव्ययात्मा भूतानाम ईश्वरो अपि सन । यह भगवद गीता में कहा गया है । अजो अपि । "मैं अजन्मा हूँ ।" हाँ । श्री कृष्ण अजन्मे हैं । हम भी अजन्मे हैं । लेकिन फर्क यह है कि हम इस भौतिक शरीर में उलझे हैं । इसलिए हम अजन्मे के रूप में हमारी स्थिति को नहीं रख पाते हैं । हमें जन्म लेना पड़ता है, एक शरीर से दूसरे में जाना पड़ता है, और कोई गारंटी नहीं है कि किस प्रकार का शरीर तुम पाअोगे अगला । लेकिन तुम्हे स्वीकार करना होगा । जैसे हम इस जीवन में एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं । बच्चा अपने बचपन का शरीर त्यागता है, लड़कपन का शरीर स्वीकार करता है । लड़का अपने लड़कपन का शरीर त्याग रहा है, युवक का शरीर स्वीकार करता है ।  
 
इसी तरह, बुढ़ापे का यह शरीर, जब त्यागते हैं, प्राकृतिक निष्कर्ष है कि मुझे एक और शरीर को स्वीकार करना होगा । फिर से बचपन का शरीर । जैसे मौसम परिवर्तित होते हैं । गर्मी के बाद, वसंत है, या वसंत के बाद गर्मी है, गर्मी के बाद, पतझड़ है, पतझड़ के बाद, सर्दियॉ । या दिन के बाद, रात है, रात के बाद, दिन है । जैसे ये, ये चक्र हैं एक के बाद एक, इसी तरह, हम शरीर बदल रहे हैं एक के बाद एक । और प्राकृतिक निष्कर्ष यह कि इस शरीर को बदलने के बाद मुझे एक और शरीर मिलेगा ।  
 
भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ([[HI/BG 8.19|भ गी ८.१९]]) । यह तार्किक है, और शास्त्र का समर्थन है, और सबसे बड़े अधिकारी, कृष्ण, द्वारा बोला गया है । और क्यों तुम्हे इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ? अगर तुम स्वीकार नहीं करते हो, यह मूर्खता है । अगर तुम नहीं सोचते हो, कि मृत्यु के बाद कोई जीवन है, यह मूर्खता है । मृत्यु के बाद जीवन है । तो क्योंकि हम एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं अति प्राचीन काल से, हम सोच नहीं सकते हैं कि जीवन अनन्त है । यह हमारे लिए मुश्किल है । जैसे एक रोगग्रस्त आदमी । वह बिस्तर पर लेटा है और वहाँ खा रहा है, वहां मल कर रहा है, वहां पेशाब कर रहा है, और वह हिल नहीं सकता है, और बहुत कड़वी दवाई । तो कई असुविधाऍ । वह लेटा है ।
 
तो वह आत्महत्या करने की सोच रहा है । "ओह, यह जीवन बहुत असहनीय है । मुझे आत्महत्या करने दो ।" तो निराशाजनक हालत में कभी कभी शून्यवादी तत्वज्ञान, मायावाद का पालन किया जाता है । चीजों को शून्य बनाना । क्योंकि यह जीवन इतना दुखदायी है, कभी कभी हम इस से बाहर निकलने के लिए आत्महत्या करना चाहते हैं, मेरे कहने का मतलब है, भौतिक अस्तित्व का दुखदायी जीवन  । तो शून्यवादी तत्वज्ञान, मायावाद इस तरह का है । मलतब वे नहीं कर सकते, डऱते हैं, दूसरे जीवन के बारे में सोचने के लिए, फिर से भोजन, फिर से सोना, फिर से काम करना । क्योंकि वह सोचता है कि भोजन, सोना ,बिस्तर पर । बस इतना ही । और पीड़ा । वह कुछ अौर नहीं सोच सकता है । तो नकारात्मक तरीका, शून्य बनाना । यह शून्य दर्शन है । लेकिन असल में एसा नहीं है । बात यह है कि तुम मुसीबत में हो भौतिक हालत में  । तुम इस भौतिक हालत से बाहर निकलो । तब वास्तविक जीवन है, अनन्त जीवन ।
 


यह तार्किक है, और शास्त्र का समर्थन है और सबसे बड़ी प्राधिकारी द्वारा बोला गया, श्री कृष्ण द्वारा । और क्यों तुम्हे इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ? अगर तुम स्वीकार नहीं करते हो, यह मूर्खता है । अगर तुम नहीं सोचते हो, कि मृत्यु के बाद कोई जीवन है, यह मूर्खता है । मृत्यु के बाद जीवन है । तो क्योंकि हम एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं अति प्राचीन काल से, हम सोच नहीं सकते हैं कि जीवन अनन्त है । यह हमारे लिए मुश्किल है । जैसे एक रोगग्रस्त आदमी । वह बिस्तर पर लेटा है और वहाँ खा रहा है, वहां मल कर रहा है, वहां पेशाब कर रहा है, और वह हिल नहीं सकता है, और बहुत कड़वी दवाई । तो कई असुविधाऍ । वह लेटा है । तो वह आत्महत्या करने की सोच रहा है । "ओह, यह जीवन बहुत असहनीय है । मुझे आत्महत्या करने दो ।" तो निराशाजनक हालत में कभी कभी शूण्यवादी दर्शन, मायावाद का पालन किया जाता है । चीजों को शून्य बनाना । क्योंकि यह जीवन इतना दुखदायी है, कभी कभी हम इस से बाहर निकलने के लिए आत्महत्या करना चाहते हैं, मेरे कहने का मतलब है, दुखदायी जीवन भौतिक अस्तित्व का । तो शूण्यवादी दर्शन, मायावाद इस तरह का है । मलतब वे नहीं कर सकते, डऱते हैं, दूसरे जीवन के बारे में सोचने के लिए, फिर से भोजन, फिर से सोना, फिर से काम करना । क्योंकि वह सोचता है कि भोजन, सोना ,बिस्तर पर । बस इतना ही । और पीड़ा । वह कछ अौर नहीं सोच सकता है । तो नकारात्मक तरीका, शून्य बनाना । यह शून्य दर्शन है । लेकिन असल में एसा नहीं है । बात यह है कि तुम मुसीबत में हो भौतिक हालत में । तुम इस भौतिक हालत से बाहर निकलो । तब वास्तविक जीवन है, अनन्त जीवन ।
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Latest revision as of 19:27, 17 September 2020



730423 - Lecture SB 01.08.31 - Los Angeles

तो आलोचना करना हमारा काम नहीं है, लेकिन कलियुग के लक्षण बहुत, बहुत गंभीर हैं, और यह अौर अधिक बढ़ेगा । हमने कलियुग के केवल ५,००० साल बिताये है, लेकिन कलयुग की अवधि है ४,००,०००, ४,३२,००० साल, उसमे हमने केवल ५,००० साल पार किए हैं । और ५,००० साल गुजर जाने के बाद, हम कई कठिनाइयॉ पाते हैं, और जितना अधिक हम इस कलियुग में बढ़ेंगे, दिन और अधिक कठिन हो जाएँगे । तो सबसे अच्छी बात यह है कि तुम अपने कृष्ण भावनामृत के कार्य को खत्म करो और घर वापस जाओ, भगवत धाम । यही तुम्हे बचाएगा । अन्यथा, अगर हम फिर से वापस अाते हैं, कठिनाइयॉ, मुश्किल दिन आगे हैं । हमें अधिक से अधिक पीड़ित होना पड़ेगा ।

तो कृष्ण को वर्णित किया गया है यहॉ अज । अजो अपि सन्न अव्ययात्मा भूतानाम ईश्वरो अपि सन । यह भगवद गीता में कहा गया है । अजो अपि । "मैं अजन्मा हूँ ।" हाँ । श्री कृष्ण अजन्मे हैं । हम भी अजन्मे हैं । लेकिन फर्क यह है कि हम इस भौतिक शरीर में उलझे हैं । इसलिए हम अजन्मे के रूप में हमारी स्थिति को नहीं रख पाते हैं । हमें जन्म लेना पड़ता है, एक शरीर से दूसरे में जाना पड़ता है, और कोई गारंटी नहीं है कि किस प्रकार का शरीर तुम पाअोगे अगला । लेकिन तुम्हे स्वीकार करना होगा । जैसे हम इस जीवन में एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं । बच्चा अपने बचपन का शरीर त्यागता है, लड़कपन का शरीर स्वीकार करता है । लड़का अपने लड़कपन का शरीर त्याग रहा है, युवक का शरीर स्वीकार करता है ।

इसी तरह, बुढ़ापे का यह शरीर, जब त्यागते हैं, प्राकृतिक निष्कर्ष है कि मुझे एक और शरीर को स्वीकार करना होगा । फिर से बचपन का शरीर । जैसे मौसम परिवर्तित होते हैं । गर्मी के बाद, वसंत है, या वसंत के बाद गर्मी है, गर्मी के बाद, पतझड़ है, पतझड़ के बाद, सर्दियॉ । या दिन के बाद, रात है, रात के बाद, दिन है । जैसे ये, ये चक्र हैं एक के बाद एक, इसी तरह, हम शरीर बदल रहे हैं एक के बाद एक । और प्राकृतिक निष्कर्ष यह कि इस शरीर को बदलने के बाद मुझे एक और शरीर मिलेगा ।

भूत्वा भूत्वा प्रलीयते (भ गी ८.१९) । यह तार्किक है, और शास्त्र का समर्थन है, और सबसे बड़े अधिकारी, कृष्ण, द्वारा बोला गया है । और क्यों तुम्हे इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए ? अगर तुम स्वीकार नहीं करते हो, यह मूर्खता है । अगर तुम नहीं सोचते हो, कि मृत्यु के बाद कोई जीवन है, यह मूर्खता है । मृत्यु के बाद जीवन है । तो क्योंकि हम एक के बाद एक शरीर स्वीकार कर रहे हैं अति प्राचीन काल से, हम सोच नहीं सकते हैं कि जीवन अनन्त है । यह हमारे लिए मुश्किल है । जैसे एक रोगग्रस्त आदमी । वह बिस्तर पर लेटा है और वहाँ खा रहा है, वहां मल कर रहा है, वहां पेशाब कर रहा है, और वह हिल नहीं सकता है, और बहुत कड़वी दवाई । तो कई असुविधाऍ । वह लेटा है ।

तो वह आत्महत्या करने की सोच रहा है । "ओह, यह जीवन बहुत असहनीय है । मुझे आत्महत्या करने दो ।" तो निराशाजनक हालत में कभी कभी शून्यवादी तत्वज्ञान, मायावाद का पालन किया जाता है । चीजों को शून्य बनाना । क्योंकि यह जीवन इतना दुखदायी है, कभी कभी हम इस से बाहर निकलने के लिए आत्महत्या करना चाहते हैं, मेरे कहने का मतलब है, भौतिक अस्तित्व का दुखदायी जीवन । तो शून्यवादी तत्वज्ञान, मायावाद इस तरह का है । मलतब वे नहीं कर सकते, डऱते हैं, दूसरे जीवन के बारे में सोचने के लिए, फिर से भोजन, फिर से सोना, फिर से काम करना । क्योंकि वह सोचता है कि भोजन, सोना ,बिस्तर पर । बस इतना ही । और पीड़ा । वह कुछ अौर नहीं सोच सकता है । तो नकारात्मक तरीका, शून्य बनाना । यह शून्य दर्शन है । लेकिन असल में एसा नहीं है । बात यह है कि तुम मुसीबत में हो भौतिक हालत में । तुम इस भौतिक हालत से बाहर निकलो । तब वास्तविक जीवन है, अनन्त जीवन ।