HI/Prabhupada 0967 - कृष्ण को, भगवान को, समझने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करना होगा

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720527 - Lecture BG The Yoga System - Los Angeles

यह कहा जाता है कि एक शुद्ध भक्त हर पल श्री कृष्ण को देख रहा है । संत: सदैव ( ब्र स ५।३८) । सदैव का मतलब है हर पल । वह देख रहा है, इसका मतलब है कि वह एक अलग प्रकार का व्यक्ति है । उसकी इन्द्रियॉ शुद्ध हैं । पवित्र । इसलिए वह देख रहा है । और आँखें, अगर शुद्ध नहीं है, पवित्र, वह नहीं देख सकता । इतने सारे उदाहरण हैं । जैसे एक मशीन की तरह । एक बच्चा देख रहा है, लेकिन वह ठीक से नहीं देख सकता है । वह धातु देखता है । लेकिन एक इंजीनियर, जब वह देखता है, वह तुरंत समझ जाता है कि यह मशीन फलां चीज से बनी है, यह एसे काम कर रही है, अच्छी मशीन, बुरी मशीन, अच्छी । वह अलग तरीके से देख सकता है क्योंकि उसकी आंखों देख सकती है उस नजऱिए से । इसी तरह, भगवान को समझने के लिए, श्री कृष्ण, हमें हमारी इंद्रियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है । यह नारद पंचरात्र द्वारा परिभाषित किया गया है । सरर्वोपाधि विनिर्मुक्तम (चै च मध्य १९।१३०) । सभी प्रकार के उपाधीयों से मुक्त । जैसे हम कृष्ण भावनामृत को स्वीकार करते हैं, कृष्ण भावनामृत को देख रहे हैं एक दृष्टि से । और कोई अौर, अाम आदमी ... मान लो कोई ईसाई है । वह कृष्ण भावनामृत को हिंदुओं के एक आंदोलन के रूप में देखता है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है । इसलिए, उसे एक अमेरिकी होने की उपाधी से मुक्त होना होगा । सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम । उपाधीयों से हमें मुक्त होना चाहिए । यह शरीर एक उपाधि है । दरअसल अमेरिकी शरीर और भारतीय शरीर के बीच कोई अंतर नहीं है । वही शारीरिक निर्माण । रक्त है, हड्डी है, मांस है । अगर तुम शरीर के भीतर देखते हो, तो कोई अंतर नहीं है । लेकिन फिर भी हमें नामित किया जाता है, "मैं अमेरिकी हूं, तुम भारतीय हो, तुम काले हो, मैं सफेद हूँ ..." ये सब उपाधीयॉ हैं । झूठी ।

तो हमें उपाधियों से मुक्त होना है । यही परिभाषित किया गया है कि जब हम उपाधीयों से मुक्त हो जाते हैं, सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम । हमें उपाधीयों से मुक्त होना चाहिए । दरअसल, उपाधीयों का कोई मूल्य नहीं है । व्यक्ति महत्वपूर्ण है । उपाधी नहीं । तो श्री कृष्ण को देखने का मतलब है, पहला कार्य है उपाधीयों से मुक्त हो जाना । सर्वोपाधि विनिर्मक्तम तत परत्वेन निर्मलम (चै च मध्य १९।१७०) । यहाँ कहा गया है मत पर: और नारद कहते हैं तत पर: । तत पर: का मतलब है श्री कृष्ण के हो जाना, और मत पर: का मतलब है ... श्री कृष्ण कहते हैं तुम मत पर: बन जाअो । मुझ में तीव्रता से तल्लीन हो जाअो । और भक्त कहता है तीव्रता से श्री कृष्ण में तल्लीन हो जाअो । यही विचार है, लेकिन वास्तव में उद्देश्य एक ही है । तो हमें उपाधी मुक्त होना है, और तीव्रता से श्री कृष्ण में लीन । सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम, मत परत्वेन ... तो फिर वह निर्मल होगा । निर्मल मतलब शुद्ध, किसी भी भौतिक संदूषण के बिना । मेरी सोच है शारीरिक अवधारणा जीवन की, यह भौतिक है, क्योंकि शरीर भौतिक है । जब तक मैं सोचता हूँ "मैं अमेरीकी हूँ, मैं भारतीय हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं यह हूं, मैं वह हूं , ये सब उपाधीयॉ हैं । यही निर्मलम नहीं है, शुद्ध अवस्था । शुद्ध अवस्था तब है जब हम समझते हैं कि मैं आत्मा हूं, श्री कृष्ण परम आत्मा हैं, और मैं कृष्ण का अंशस्वरूप हूं । हम गुणवत्ता में एक हैं । हम अलग-अलग व्यष्टि हो सकते हैं । श्री कृष्ण बड़ा व्यष्टि हैं । मैं एक छोटा सा व्यष्टि हूँ । जैसे इस भौतिक दुनिया में, एक आदमी बहुत शक्तिशाली है । एक और आदमी कम शक्तिशाली है । लेकिन वे दोनों आदमी हैं । वे जानवरों नहीं हैं । इसी तरह, श्री कृष्ण, भगवान, गुणात्मक मेरे साथ एक हैं । मात्रात्मक वे बहुत, बहुत शक्तिशाली हैं ।