HI/Prabhupada 0990 - प्रेम का मतलब यह नहीं 'मैं खुद को प्यार करता हूँ' और प्रेम पर ध्यान करता हूं । नहीं: Difference between revisions
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भगवद-भक्ति -योग । यह एक प्रकार का योग है, या वास्तविक योग है । सर्वोच्च योग प्रणाली है भगवद भक्ति, और, भगवद-भक्ति-योग, शुरू होता है, अादौ गुर्वाश्रय: | सबसे पहले गुरु के प्रति समर्पण करो । | |||
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अौपचारिक दीक्षा का कोई अर्थ नहीं है । जब तक कोई पूरी तरह से समर्पित नहीं है गुरु को, दीक्षा का कोई सवाल ही नहीं है । दिव्य ज्ञान | अौपचारिक दीक्षा का कोई अर्थ नहीं है । जब तक कोई पूरी तरह से समर्पित नहीं है गुरु को, दीक्षा का कोई सवाल ही नहीं है । दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशितो । दिव्य-ज्ञान मतलब "दिव्य ज्ञान |" इसलिए गुरु के साथ चाल चलना, कूटनीतिज्ञ बनना, यह धूर्तता भगवद भक्ति-योग में मदद नहीं करेगी । तुम कुछ अन्य चीज़े पा सकते हो, कुछ भौतिक लाभ, लेकिन आध्यात्मिक जीवन खराब हो जाएगा । तो यह कृष्ण भवनामृत आंदोलन आध्यात्मिक ज्ञान के लिए है, न कि कैसे पैसे कमाने हैं, कैसे पैसे कमाने हैं । यह कृष्ण भावनामृत नहीं है । चैतन्य महाप्रभु सिखाते हैं, | ||
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न धनम । भौतिकवादी, वे, वे क्या चाहते हैं ? वे पैसा चाहते हैं । वे कई अनुयायी या अच्छी, सुंदर पत्नी चाहते हैं । यही भौतिकवादी है । लेकिन चैतन्य महाप्रभु मना करते हैं । न धनम: "नहीं, नहीं, मुझे पैसे नहीं चाहिए।" यही सीख है । न धनम न जनम "मुझे किसी पर शासन नहीं करना है ।" नहीं । न... न धनम न जनम सुंदरीम कविताम; अच्छी, सुंदर पत्नी की एक काव्यात्मक कल्पना । "ये बातें मुझे नहीं चाहिए ।" क्या चाहिए ? फिर, भगवद भक्ति-योग, | |||
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फिर भगवद भक्त को मुक्ति भी नहीं चाहिए । क्यों श्री कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, जन्मनि जन्मनि, "हर जन्म में..." ? जो मुक्त है, वह इस भौतिक दुनिया में फिर से जन्म नहीं लेता है । जो मायावादी हैं, वे ब्रह्मज्योति में लीन हो जाते हैं जो श्री कृष्ण की शारीरिक किरणें है, और जो भक्त हैं, उन्हे वैकुण्ठ या गोलोक वृन्दावन में प्रवेश करने की अनुमति मिलती है । (एक तरफ:) ध्वनि मत करो । | |||
: | तो अगर तुम प्रसन्न मन चाहते हो, हमेशा उत्साह - यह आध्यात्मिक जीवन है । यह नहीं कि हमेशा उदास, कुछ योजना बनाना । यह आध्यात्मिक जीवन नहीं है । तुम्हे कोई भी भौतिकवादी व्यक्ति उत्साहित नहीं मिलेगा । वह उदास है, और सोच रहा है, और सिगरेट और शराब पीता है, कुछ बड़ी, बड़ी योजना बना रहा है । यही भौतिकवादी है । और भगवद भक्ति-योगत: प्रसन्न-मनसो । भगवद गीता में, | ||
प्रसन्नात्मा । यही आध्यात्मिक जीवन है । जैसे ही तुम आध्यात्मिक जीवन में अाते हो अवैयक्तिक | :ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा | ||
:न शोचति न कांक्षति | |||
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प्रसन्नात्मा । यही आध्यात्मिक जीवन है । जैसे ही तुम आध्यात्मिक जीवन में अाते हो, ये फर्क नहीं पड़ता की अवैयक्तिक या व्यक्तिगत तत्वज्ञान में, दोनों अध्यात्मवादी हैं; फर्क सिर्फ इतना है कि निर्विशेषवादी सोचते हैं कि "मैं आत्मा हूं; भगवान अात्मा हैं । इसलिए हम एक हैं । हम इसमे लीन हो जाते हैं ।" सायुज्य-मुक्ति। श्री कृष्ण उन्हें सायुज्य-मुक्ति देते हैं । लेकिन यह बहुत सुरक्षित नहीं है क्योंकि अानंदमयो अभ्यासात (वेदांत-सूत्र १.१.१२) । आनंद, असली आनंद, अपने आप में एहसास नहीं किया जा सकता है । दो होने चाहिए । प्रेम का मतलब यह नहीं की "मैं अपने आप को प्यार करता हूँ" और प्रेम पर ध्यान करता हूं । नहीं । एक अन्य व्यक्ति, प्रेमी होना चाहिए । इसलिए द्वैतवाद । | |||
जैसे ही तुम भक्ति स्कूल में आते हो, वहाँ द्वैतवाद होना चाहिए: दो - कृष्ण और श्री कृष्ण का भक्त । और श्री कृष्ण और श्री कृष्ण के सेवक के बीच का आदान-प्रदान ही भक्ति कहलाता है । व्यवहार, यही भक्ति कहलाता है । इसलिए यह कहा जाता है, भगवद भक्ति-योगत: | एकत्ववाद, एक होना, नहीं । भक्त हमेशा है... भक्त श्री कृष्ण को प्रसन्न करने की कोशिश कर रहा है । | |||
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020
740724 - Lecture SB 01.02.20 - New York
भगवद-भक्ति -योग । यह एक प्रकार का योग है, या वास्तविक योग है । सर्वोच्च योग प्रणाली है भगवद भक्ति, और, भगवद-भक्ति-योग, शुरू होता है, अादौ गुर्वाश्रय: | सबसे पहले गुरु के प्रति समर्पण करो ।
- तद विद्धि प्रणिपातेन
- परिप्रश्नेन सेवया
- (भ.गी. ४.३४) |
अौपचारिक दीक्षा का कोई अर्थ नहीं है । जब तक कोई पूरी तरह से समर्पित नहीं है गुरु को, दीक्षा का कोई सवाल ही नहीं है । दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशितो । दिव्य-ज्ञान मतलब "दिव्य ज्ञान |" इसलिए गुरु के साथ चाल चलना, कूटनीतिज्ञ बनना, यह धूर्तता भगवद भक्ति-योग में मदद नहीं करेगी । तुम कुछ अन्य चीज़े पा सकते हो, कुछ भौतिक लाभ, लेकिन आध्यात्मिक जीवन खराब हो जाएगा । तो यह कृष्ण भवनामृत आंदोलन आध्यात्मिक ज्ञान के लिए है, न कि कैसे पैसे कमाने हैं, कैसे पैसे कमाने हैं । यह कृष्ण भावनामृत नहीं है । चैतन्य महाप्रभु सिखाते हैं,
- न धनम न जनम न सुंदरिम
- कविताम वा जगद ईश कामये '
- (चैतन्य चरितामृत अंत्य २०.२९) ।
न धनम । भौतिकवादी, वे, वे क्या चाहते हैं ? वे पैसा चाहते हैं । वे कई अनुयायी या अच्छी, सुंदर पत्नी चाहते हैं । यही भौतिकवादी है । लेकिन चैतन्य महाप्रभु मना करते हैं । न धनम: "नहीं, नहीं, मुझे पैसे नहीं चाहिए।" यही सीख है । न धनम न जनम "मुझे किसी पर शासन नहीं करना है ।" नहीं । न... न धनम न जनम सुंदरीम कविताम; अच्छी, सुंदर पत्नी की एक काव्यात्मक कल्पना । "ये बातें मुझे नहीं चाहिए ।" क्या चाहिए ? फिर, भगवद भक्ति-योग,
- मम जन्मनि जन्मनीश्वरे
- भवताद भक्ति अहैतुकी त्वयि
- (चैतन्य चरितामृत अंत्य २०.२९)
फिर भगवद भक्त को मुक्ति भी नहीं चाहिए । क्यों श्री कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, जन्मनि जन्मनि, "हर जन्म में..." ? जो मुक्त है, वह इस भौतिक दुनिया में फिर से जन्म नहीं लेता है । जो मायावादी हैं, वे ब्रह्मज्योति में लीन हो जाते हैं जो श्री कृष्ण की शारीरिक किरणें है, और जो भक्त हैं, उन्हे वैकुण्ठ या गोलोक वृन्दावन में प्रवेश करने की अनुमति मिलती है । (एक तरफ:) ध्वनि मत करो ।
तो अगर तुम प्रसन्न मन चाहते हो, हमेशा उत्साह - यह आध्यात्मिक जीवन है । यह नहीं कि हमेशा उदास, कुछ योजना बनाना । यह आध्यात्मिक जीवन नहीं है । तुम्हे कोई भी भौतिकवादी व्यक्ति उत्साहित नहीं मिलेगा । वह उदास है, और सोच रहा है, और सिगरेट और शराब पीता है, कुछ बड़ी, बड़ी योजना बना रहा है । यही भौतिकवादी है । और भगवद भक्ति-योगत: प्रसन्न-मनसो । भगवद गीता में,
- ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा
- न शोचति न कांक्षति
- (भ.गी. १८.५४)
प्रसन्नात्मा । यही आध्यात्मिक जीवन है । जैसे ही तुम आध्यात्मिक जीवन में अाते हो, ये फर्क नहीं पड़ता की अवैयक्तिक या व्यक्तिगत तत्वज्ञान में, दोनों अध्यात्मवादी हैं; फर्क सिर्फ इतना है कि निर्विशेषवादी सोचते हैं कि "मैं आत्मा हूं; भगवान अात्मा हैं । इसलिए हम एक हैं । हम इसमे लीन हो जाते हैं ।" सायुज्य-मुक्ति। श्री कृष्ण उन्हें सायुज्य-मुक्ति देते हैं । लेकिन यह बहुत सुरक्षित नहीं है क्योंकि अानंदमयो अभ्यासात (वेदांत-सूत्र १.१.१२) । आनंद, असली आनंद, अपने आप में एहसास नहीं किया जा सकता है । दो होने चाहिए । प्रेम का मतलब यह नहीं की "मैं अपने आप को प्यार करता हूँ" और प्रेम पर ध्यान करता हूं । नहीं । एक अन्य व्यक्ति, प्रेमी होना चाहिए । इसलिए द्वैतवाद ।
जैसे ही तुम भक्ति स्कूल में आते हो, वहाँ द्वैतवाद होना चाहिए: दो - कृष्ण और श्री कृष्ण का भक्त । और श्री कृष्ण और श्री कृष्ण के सेवक के बीच का आदान-प्रदान ही भक्ति कहलाता है । व्यवहार, यही भक्ति कहलाता है । इसलिए यह कहा जाता है, भगवद भक्ति-योगत: | एकत्ववाद, एक होना, नहीं । भक्त हमेशा है... भक्त श्री कृष्ण को प्रसन्न करने की कोशिश कर रहा है ।