HI/Prabhupada 1017 - ब्रह्मा मूल सृजनकर्ता नहीं हैं । मूल सृजनकर्ता कृष्ण हैं: Difference between revisions

 
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अब पद्धति है, जैसे हम ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु, के पास जाते हैं । तो ब्रह्मा से पहले को जीव नहीं था । तो उन्हे ज्ञान कैसे मिला ? जवाब है, "तेने ब्रह्म ह्रदा य अादि कवये" "अादि-कवये" । पहले जीव, ब्रह्मा, शिक्षित हुए ह्रदय के अंदर । मतलब कृष्ण, वासुदेव, या परमेश्वर भगावान, हर किसी के ह्रदय में स्थित हैं । वे ब्रह्मा के ह्रदय में भी स्थित हैं । वे तुम्हारे ह्रदय में, मेरे ह्रदय में स्थित हैं । और 'ह्रदा' ' इसी शब्द का प्रयोग किया गया है । 'ह्रदा' का अर्थ है ह्रदय । तो वे ह्रदय के भीतर से सब को ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । लेकिन क्यों हमें उनका बोध नहीं होता है ? सैद्धांतिक रूप से हम जानते हैं, लेकिन बद्ध अवस्था में हम समझ नहीं सकते हैं कि कैसे वे हमें निर्देशन दे रहे हैं । लेकिन वे निर्देशन दे रहे हैं । यह एक तथ्य है । ब्रह्मा साधारण जीव नहीं हैं, इसलिए वे ह्रदय के भीतर से परमेश्वर भगवान से दिशा ले सके । हम भी ले सकते हैं इस तरह जब हम योग्य बनते हैं, बिल्कुल ब्रह्मा की तरह । ब्रह्मा प्रकट हुए भगवान की सेवा करने के लिए । प्रभु की इच्छा को पूरा करने के लिए । जैसे कि हम एक बढ़ई को काम पर लगाते हैं, और मैं उससे कहता हूं एक कैबिनेट बनाने के लिए मेरे लिए । मैं उसे सामग्री देता हूं, उपकरण, या मजदूरी, और वह एक कैबिनेट तैयार करता है । इसी तरह, भगवान नें सामग्री और निर्माता को बनाया है, और ब्रह्मा ने इस ब्रह्मांड को बनाया है । लेकिन वह मूल सृजनकर्ता नहीं हैं । मूल सृजनकर्ता श्री कृष्ण हैं । वैसे मूल मालिक श्री कृष्ण हैं क्योंकि उन्होंने सामग्री का भी सृजन किया है । वास्तव में जब हम व्यावहारिक क्षेत्र में काम करते हैं, वह सामग्री हम बना नहीं सकते हैं । मान लो हम एक बहुत ही उच्च गगनचुंबी इमारत के निर्माण करते हैं । लेकिन सामग्री, अर्थात् मिट्टि, पत्थर, लकड़ी, लोहा, जो इमारत के पदार्थ हैं, वहहम नहीं बना सकते हैं । यह भगवान द्वारा बनाए गए हैं । हम केवल बदल सकते हैं । हम पृथ्वी से मिट्टि लेते हैं, और पानी के साथ मिलाते हैं । पानी भगवान द्वारा बनाया गया है । पृथ्वी भगवान द्वारा बनाया गया है । फिर हम उसे मिलाते हैं, ईंट की तरह, और आग में डालते हैं आग भी भगवान द्वारा बनाई गई है । इस तरह, अगर हम बारीकी से अध्ययन करते हैं,, सामग्री और पदार्थ जो हम उपयोग कर रहे हैं, वे हमारा सृजन नहीं हैं । वे भगवान की रचना हैं । हम केवल उपयोग करते हैं । और क्योंकि हम उपयोग कर रहे हैं वह हमारी सम्पत्ति नहीं हो जाती है । यह सही समझ है । मान लो कि मैं कार्यकर्ता हूं, मैं कुछ अन्य चीजों का, पदार्थ, उपयोग करता हूं अौर कुछ बनाता हूं, इसका यह मतलब नहीं है कि जब वह चीज़ तैयार हो जाती है, तो यह मेरी संपत्ति बन जाती है । नहीं, यह कैसे हो सकता है ? इसलिए दर्शन या समझ यह है कि सब कुछ श्री कृष्ण, भगवान का है । मैं भी उनका हूं । अौर जो भी मैं करता हूं, वह भी उनका है । यह समझ कि सब कुछ भगवान का है । मैं भी भगवान का हूं । मेरी बुद्धि भगवान की है । सामग्री या भौतिक तत्वों जिसके साथ हम काम करते हैं, वह भी भगवान का है । तो फिर मेरे मालिक होने का दावा कहॉ अाता है ? यही भ्रम कहलाता है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पुनर्जीवित करना मानव समाज की मूल चेतना का, क्योंकि बिल्लियों और कुत्तों या जानवरों में, इस तरह की चेतना को पुनर्जीवत नहीं किया जा सकता है । वे इतने मंद बुद्धि के हैं और कम विकसित चेतना में, उनका समझना यह संभव नहीं है ...
अब पद्धति है, जैसे हम ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु, के पास जाते हैं । तो ब्रह्मा से पहले कोई जीव नहीं था । तो उन्हे ज्ञान कैसे मिला ? जवाब है, "तेने ब्रह्म हृदा य अादि कवये" "अादि-कवये" । पहले जीव, ब्रह्मा, शिक्षित हुए हृदय के अंदर । मतलब कृष्ण, वासुदेव, या परमेश्वर भगवान, हर किसी के हृदय में स्थित हैं । वे ब्रह्मा के हृदय में भी स्थित हैं । वे तुम्हारे हृदय में, मेरे हृदय में स्थित हैं । और 'हृदा' ' इसी शब्द का प्रयोग किया गया है । 'हृदा' का अर्थ है हृदय । तो वे हृदय के भीतर से सब को ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । लेकिन क्यों हमें उनका बोध नहीं होता है ? सैद्धांतिक रूप से हम जानते हैं, लेकिन बद्ध अवस्था में हम समझ नहीं सकते हैं कि कैसे वे हमें निर्देशन दे रहे हैं । लेकिन वे निर्देशन दे रहे हैं । यह एक तथ्य है ।  
 
ब्रह्मा साधारण जीव नहीं हैं, इसलिए वे हृदय के भीतर से परम भगवान से दिशा ले सके । हम भी ले सकते हैं इस तरह जब हम योग्य बनते हैं, बिल्कुल ब्रह्मा की तरह । ब्रह्मा प्रकट हुए भगवान की सेवा करने के लिए । प्रभु की इच्छा को पूरा करने के लिए । जैसे कि हम एक बढ़ई को काम पर लगाते हैं, और मैं उससे कहता हूं मेरे लिए एक कैबिनेट बनाने को । मैं उसे सामग्री देता हूं, उपकरण, या मजदूरी, और वह एक कैबिनेट तैयार करता है । इसी तरह, भगवान नें सामग्री और निर्माता को बनाया है, और ब्रह्मा ने इस ब्रह्मांड को बनाया है । लेकिन वह मूल सृजनकर्ता नहीं हैं । मूल सृजनकर्ता श्री कृष्ण हैं । वैसे मूल मालिक श्री कृष्ण हैं क्योंकि उन्होंने सामग्री का भी सृजन किया है ।  
 
वास्तव में जब हम व्यावहारिक क्षेत्र में काम करते हैं, सामग्री हम बना नहीं सकते हैं । मान लो हम एक बहुत ही उच्च गगनचुंबी इमारत के निर्माण करते हैं । लेकिन सामग्री, अर्थात् मिट्टि, पत्थर, लकड़ी, लोहा, जो इमारत के पदार्थ हैं, वह हम नहीं बना सकते हैं । यह भगवान द्वारा बनाए गए हैं । हम केवल बदल सकते हैं । हम पृथ्वी से मिट्टि लेते हैं, और पानी के साथ मिलाते हैं । पानी भगवान द्वारा बनाया गया है । पृथ्वी भगवान द्वारा बनाई गई है । फिर हम उसे मिलाते हैं, ईंट की तरह, और आग में डालते हैं | आग भी भगवान द्वारा बनाई गई है । इस तरह, अगर हम बारीकी से अध्ययन करते हैं,, सामग्री और पदार्थ जो हम उपयोग कर रहे हैं, वे हमारा सृजन नहीं हैं । वे भगवान की रचना हैं ।  
 
हम केवल उपयोग करते हैं । और क्योंकि हम उपयोग कर रहे हैं वह हमारी सम्पत्ति नहीं हो जाती है । यह सही समझ है । मान लो कि मैं कार्यकर्ता हूं, मैं कुछ अन्य चीजों का, पदार्थ का, उपयोग करता हूं अौर कुछ बनाता हूं, इसका यह मतलब नहीं है कि जब वह चीज़ तैयार हो जाती है, तो यह मेरी संपत्ति बन जाती है । नहीं, यह कैसे हो सकता है ? इसलिए तत्वज्ञान या समझ यह है कि सब कुछ श्री कृष्ण, भगवान, का है । मैं भी उनका हूं । अौर जो भी मैं करता हूं, वह भी उनका है ।  
 
यह समझ की सब कुछ भगवान का है । मैं भी भगवान का हूं । मेरी बुद्धि भगवान की है । सामग्री या भौतिक तत्व जिसके साथ हम काम करते हैं, वह भी भगवान के है । तो फिर मेरे मालिक होने का दावा कहॉ अाता है ? यही भ्रम कहलाता है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पुनर्जीवित करना मानव समाज की मूल चेतना को, क्योंकि बिल्लिया और कुत्तों या जानवरों में, इस तरह की चेतना को पुनर्जीवत नहीं किया जा सकता है । वे इतने मंद बुद्धि के हैं और कम विकसित चेतना में, उनका यह समझना संभव नहीं है...  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



720200 - Lecture SB 01.01.01 - Los Angeles

अब पद्धति है, जैसे हम ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु, के पास जाते हैं । तो ब्रह्मा से पहले कोई जीव नहीं था । तो उन्हे ज्ञान कैसे मिला ? जवाब है, "तेने ब्रह्म हृदा य अादि कवये" "अादि-कवये" । पहले जीव, ब्रह्मा, शिक्षित हुए हृदय के अंदर । मतलब कृष्ण, वासुदेव, या परमेश्वर भगवान, हर किसी के हृदय में स्थित हैं । वे ब्रह्मा के हृदय में भी स्थित हैं । वे तुम्हारे हृदय में, मेरे हृदय में स्थित हैं । और 'हृदा' ' इसी शब्द का प्रयोग किया गया है । 'हृदा' का अर्थ है हृदय । तो वे हृदय के भीतर से सब को ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । लेकिन क्यों हमें उनका बोध नहीं होता है ? सैद्धांतिक रूप से हम जानते हैं, लेकिन बद्ध अवस्था में हम समझ नहीं सकते हैं कि कैसे वे हमें निर्देशन दे रहे हैं । लेकिन वे निर्देशन दे रहे हैं । यह एक तथ्य है ।

ब्रह्मा साधारण जीव नहीं हैं, इसलिए वे हृदय के भीतर से परम भगवान से दिशा ले सके । हम भी ले सकते हैं इस तरह जब हम योग्य बनते हैं, बिल्कुल ब्रह्मा की तरह । ब्रह्मा प्रकट हुए भगवान की सेवा करने के लिए । प्रभु की इच्छा को पूरा करने के लिए । जैसे कि हम एक बढ़ई को काम पर लगाते हैं, और मैं उससे कहता हूं मेरे लिए एक कैबिनेट बनाने को । मैं उसे सामग्री देता हूं, उपकरण, या मजदूरी, और वह एक कैबिनेट तैयार करता है । इसी तरह, भगवान नें सामग्री और निर्माता को बनाया है, और ब्रह्मा ने इस ब्रह्मांड को बनाया है । लेकिन वह मूल सृजनकर्ता नहीं हैं । मूल सृजनकर्ता श्री कृष्ण हैं । वैसे मूल मालिक श्री कृष्ण हैं क्योंकि उन्होंने सामग्री का भी सृजन किया है ।

वास्तव में जब हम व्यावहारिक क्षेत्र में काम करते हैं, सामग्री हम बना नहीं सकते हैं । मान लो हम एक बहुत ही उच्च गगनचुंबी इमारत के निर्माण करते हैं । लेकिन सामग्री, अर्थात् मिट्टि, पत्थर, लकड़ी, लोहा, जो इमारत के पदार्थ हैं, वह हम नहीं बना सकते हैं । यह भगवान द्वारा बनाए गए हैं । हम केवल बदल सकते हैं । हम पृथ्वी से मिट्टि लेते हैं, और पानी के साथ मिलाते हैं । पानी भगवान द्वारा बनाया गया है । पृथ्वी भगवान द्वारा बनाई गई है । फिर हम उसे मिलाते हैं, ईंट की तरह, और आग में डालते हैं | आग भी भगवान द्वारा बनाई गई है । इस तरह, अगर हम बारीकी से अध्ययन करते हैं,, सामग्री और पदार्थ जो हम उपयोग कर रहे हैं, वे हमारा सृजन नहीं हैं । वे भगवान की रचना हैं ।

हम केवल उपयोग करते हैं । और क्योंकि हम उपयोग कर रहे हैं वह हमारी सम्पत्ति नहीं हो जाती है । यह सही समझ है । मान लो कि मैं कार्यकर्ता हूं, मैं कुछ अन्य चीजों का, पदार्थ का, उपयोग करता हूं अौर कुछ बनाता हूं, इसका यह मतलब नहीं है कि जब वह चीज़ तैयार हो जाती है, तो यह मेरी संपत्ति बन जाती है । नहीं, यह कैसे हो सकता है ? इसलिए तत्वज्ञान या समझ यह है कि सब कुछ श्री कृष्ण, भगवान, का है । मैं भी उनका हूं । अौर जो भी मैं करता हूं, वह भी उनका है ।

यह समझ की सब कुछ भगवान का है । मैं भी भगवान का हूं । मेरी बुद्धि भगवान की है । सामग्री या भौतिक तत्व जिसके साथ हम काम करते हैं, वह भी भगवान के है । तो फिर मेरे मालिक होने का दावा कहॉ अाता है ? यही भ्रम कहलाता है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पुनर्जीवित करना मानव समाज की मूल चेतना को, क्योंकि बिल्लिया और कुत्तों या जानवरों में, इस तरह की चेतना को पुनर्जीवत नहीं किया जा सकता है । वे इतने मंद बुद्धि के हैं और कम विकसित चेतना में, उनका यह समझना संभव नहीं है...