HI/Prabhupada 1019 - अगर तुम कृष्ण के लिए कुछ सेवा करते हो, तो कृष्ण तुम्हे सौ गुना पुरस्कृत करेंगे: Difference between revisions

 
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इसलिए युधिष्ठिर महाराज समझ सके कि श्री कृष्ण इस लोक में अब नहीं रहे ; इसलिए उन्होंने इतने अशुभ लक्षण देखे । अब, जब अर्जुन वापस आया, वह पूछ रहा था, "तुम इतने उदास क्यों हो ? क्या तुमने यह किया है ? क्या तुमने वह किया है ?" सब कुछ। अब वह निष्कर्ष निकाल रहा है " मुझे लगता है कि तुम्हारा रखापन श्री कृष्ण से अलग होने की वजह से है," जैसे मैं महसूस कर रहा था । कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ । प्रेष्थठतमेनाथ, यह अतिशयोक्ति है । जैसे किअंग्रेजी भाषा में सकारात्मक, तुलनात्मक और अतिशयोक्ति है, उसी प्रकार संस्कृत । प्रष्ठ सकारात्मक है, प्रेष्ठ परा तुलनात्मक है, और प्रेष्ठात्म अतिशयोक्ति है । श्री कृष्ण प्रेष्ठात्म हैं, प्रेमी, उच्चतम मात्रा में । कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ । प्रेष्थठतमेनाथ ह्रदयेनात्म-बन्धुना । आत्म-बंधु, सुहृत । संस्कृत में विभिन्न परिभाषाऍ हैं, आत्म-बंधु, सुहृत, बंधु, मित्र, - इनका सब का मतलब है मित्र, लेकिन विभिन्न मात्रा में । मित्र का अर्थ है साधारण दोस्त । जैसे तुम कहते हो, "यह मेरा दोस्त है, " इसका यह मतलब नहीं है कि वह मेरा घनिष्ठ मित्र है । तो सबसे अच्छा दोस्त सुहृत है। सुहृत का अर्थ है "किसी भी अभिलाषा के बिना।" अगर तुम किसी के बारे में सोचते हो, कि कैसे वह सुखी हो सकता है, वह सुहृत कहा जाता है ।
इसलिए युधिष्ठिर महाराज समझ सके कि श्री कृष्ण इस लोक में अब नहीं रहे; इसलिए उन्होंने इतने अशुभ लक्षण देखे । अब, जब अर्जुन वापस आया, वह पूछ रहे थे, "तुम इतने उदास क्यों हो ? क्या तुमने यह किया है ? क्या तुमने वह किया है ?" सब कुछ। अब वह निष्कर्ष निकाल रहे है "मुझे लगता है कि तुम्हारी मायूसी श्री कृष्ण से अलग होने की वजह से है, जैसे मैं महसूस कर रहा था । "कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ । प्रेष्थठतमेनाथ, यह अतिशयोक्ति है । जैसे किअंग्रेजी भाषा में सकारात्मक, तुलनात्मक और अतिशयोक्ति है, उसी प्रकार संस्कृत । प्रेष्ठ सकारात्मक है, प्रेष्ठ परा तुलनात्मक है, और प्रेष्ठात्म अतिशयोक्ति है ।  


तो ह्रदयेनात्म बन्धुना । श्री कृष्ण भी सदैव अर्जुन की चिन्तन करते थे, और वही संबंध है श्री कृष्ण कहते हैं, साधवोम ह्रदयं मह्यं ([[Vanisource:SB 9.4.68|श्री भ ९।४।६८]]) । जैसे भक्त हमेशा श्री कृष्ण की चिन्तन करता है, उसी प्रकार श्री कृष्ण भी सदैव भक्त की चिन्तन करते हैं वे अधिक चिन्तन करते हैं । यही विनिमय करना है ।
श्री कृष्ण प्रेष्ठात्म हैं, प्रेमी, अतिशयोक्ति स्तर पर । कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ ।  प्रेष्थठतमेनाथ हृदयेनात्म-बन्धुना । आत्म-बंधु, सुहृत संस्कृत में विभिन्न परिभाषाऍ हैं, आत्म-बंधु, सुहृत, बंधु, मित्र - इस सब का मतलब है मित्र, लेकिन विभिन्न मात्रा में । मित्र का अर्थ है साधारण दोस्त । जैसे तुम कहते हो, "यह मेरा दोस्त है," इसका यह मतलब नहीं है कि वह मेरा घनिष्ठ मित्र है तो सबसे अच्छा दोस्त सुहृत है। सुहृत का अर्थ है "किसी भी अभिलाषा के बिना "


:ये यथा मां प्रपद्यन्ते
अगर तुम किसी के बारे में सोचते हो, कि कैसे वह सुखी हो सकता है, वह सुहृत कहा जाता है । तो हृदयेनात्म-बन्धुना । श्री कृष्ण भी सदैव अर्जुन की चिन्तन करते थे, और वही संबंध है । श्री कृष्ण कहते हैं, साधवो हृदयम मह्यम ([[Vanisource:SB 9.4.68|श्रीमद भागवतम ९.४.६८]]) । जैसे भक्त हमेशा श्री कृष्ण का चिन्तन करता है, उसी प्रकार श्री कृष्ण भी सदैव भक्त का चिन्तन करते हैं । वे अधिक चिन्तन करते हैं । यही आदान प्रदान है ।
:तांस् तथैव भजाम्यहम
:([[Vanisource:BG 4.11|भ गी ४।११]])


अगर तुम श्री कृष्ण का चिन्तन करते हो चौबीस घंटे, तो श्री कृष्ण तुम्हारा चिन्तन करेंगे छब्बीस घंटे । (हंसी) श्री कृष्ण इतने दयालु हैं । अगर तुम श्री कृष्ण के लिए कुछ सेवा करते हो, श्री कृष्ण तुम्हे सौ गुणा पुरस्कृत करेंगे । लेकिन लोग, वे नहीं चाहते हैं । वे सोचते हैं, "हमें क्या लाभ श्री कृष्ण की सेवा करके ? हमें अपने कुत्ते की सेवा करने दो ।" यह गलतफहमी है । और हमारा प्रयास है कृष्ण के प्रति निष्क्रिय प्रेम को जगाना । हर किसी के पास प्रेम है- प्रेम का स्टॉक है - लेकिन इसका दुरुपयोग किया जा रहा है । वे जानते नहीं हैं कि उस प्रेम को कहां करना है..... क्योंकि वे नहीं जानते ; इसलिए वे निराश हो जाते हैं । इसलिए वे निराश हो जाते हैं
:ये यथा माम प्रपद्यन्ते
:तांस तथैव भजाम्यहम
:([[HI/BG 4.11|भ.गी. .११]]) ।  


इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है लोगों को शिक्षित करना कि " तुममे प्रेम है । तुम पागल हो उस प्रेमी के पीछे जो तुम्हे प्यार कर सके । लेकिन यह तुम इस भौतिक दुनिया में नहीं पा सकते । वह तुम पाअोगे जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करोगे ।" यही हमारा कृष्ण भावामृत है । यह बहुत ज़रूरत से ज़्यादा या मनगढ़ंत बात नहीं है । हर कोई समझ सकता है कि "मैं किसी को प्यार करना चाहता हूं ।" उत्कंठा । लेकिन वह हताशा पा रहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण से प्रेम नहीं करता है । यह (अस्पष्ट) है। अगर तुम अपने प्रेम करने की प्रवृत्ति को श्री कृष्ण की तरफ मोडते हो, तब तुम पूर्ण, तुम पूर्ण संतुष्ट हो जाते हो, ययात्मा संप्रसी...संप्रसीदति ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्री भ १।२।६]]) । हम मन की शांति के लिए कोशिश कर रहे हैं, मन की शांति, पूर्ण संतुष्टि के लिए । वह पूर्ण संतुष्टि प्राप्त किया जा सकता है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करना सीखते हो । यही रहस्य है । अन्यथा तुम नहीं कर सकते । क्योकि ... क्योंकि तुम प्यार करना चाहते हो और संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो - यह पूर्ण होता है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करने के मंच पर अाते हो ।
अगर तुम श्री कृष्ण का चिन्तन करते हो चौबीस घंटे, तो श्री कृष्ण तुम्हारा चिन्तन करेंगे छब्बीस घंटे । (हंसी) श्री कृष्ण इतने दयालु हैं । अगर तुम श्री कृष्ण के लिए कुछ सेवा करते हो, श्री कृष्ण तुम्हे सौ गुना पुरस्कृत करेंगे । लेकिन लोग, वे नहीं चाहते हैं । वे सोचते हैं, "हमें क्या लाभ मिलेंगा श्री कृष्ण की सेवा करके ? मुझे अपने कुत्ते की सेवा करने दो ।" यह गलतफहमी है । और हमारा प्रयास है कृष्ण के प्रति सुषुप्त प्रेम को जगाना ।
 
हर किसी के पास प्रेम है - प्रेम का जथ्था है - लेकिन इसका दुरुपयोग किया जा रहा है । वे जानते नहीं हैं कि वो प्रेम कहां करना है... क्योंकि वे नहीं जानते; इसलिए वे निराश हो जाते हैं । इसलिए वे निराश हो जाते हैं । इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है लोगों को शिक्षित करना कि "तुम प्रेम कर रहे हो । तुम पागल हो उस प्रेमी के पीछे जो तुम्हे भी प्रेम कर सके । लेकिन यह तुम इस भौतिक दुनिया में नहीं पा सकते । वह तुम पाअोगे जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करोगे ।" यही हमारा कृष्ण भावनामृत है ।  
 
यह ज़रूरत से ज़्यादा या मनगढ़ंत बात नहीं है । हर कोई समझ सकता है कि "मैं किसी को प्यार करना चाहता हूं ।" उत्कंठा । लेकिन वह हताश हो रहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण से प्रेम नहीं करता है । यह (अस्पष्ट) है। अगर तुम अपने प्रेम करने की वृत्ति को श्री कृष्ण की तरफ मोडते हो, तब तुम पूर्ण, तुम पूर्ण संतुष्ट हो जाते हो, ययात्मा संप्रसी..., सुप्रसीदति ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्रीमद भागवतम १.२.६]]) । हम मन की शांति के लिए कोशिश कर रहे हैं, मन की शांति, पूर्ण संतुष्टि के लिए । वह पूर्ण संतुष्टि प्राप्त की जा सकती है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करना सीखते हो । यही रहस्य है । अन्यथा तुम नहीं कर सकते । क्योकि... क्योंकि तुम प्यार करना चाहते हो और संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो - यह पूर्ण होता है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करने के मंच पर अाते हो ।  
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Latest revision as of 17:45, 1 October 2020



730408 - Lecture SB 01.14.44 - New York

इसलिए युधिष्ठिर महाराज समझ सके कि श्री कृष्ण इस लोक में अब नहीं रहे; इसलिए उन्होंने इतने अशुभ लक्षण देखे । अब, जब अर्जुन वापस आया, वह पूछ रहे थे, "तुम इतने उदास क्यों हो ? क्या तुमने यह किया है ? क्या तुमने वह किया है ?" सब कुछ। अब वह निष्कर्ष निकाल रहे है "मुझे लगता है कि तुम्हारी मायूसी श्री कृष्ण से अलग होने की वजह से है, जैसे मैं महसूस कर रहा था । "कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ । प्रेष्थठतमेनाथ, यह अतिशयोक्ति है । जैसे किअंग्रेजी भाषा में सकारात्मक, तुलनात्मक और अतिशयोक्ति है, उसी प्रकार संस्कृत । प्रेष्ठ सकारात्मक है, प्रेष्ठ परा तुलनात्मक है, और प्रेष्ठात्म अतिशयोक्ति है ।

श्री कृष्ण प्रेष्ठात्म हैं, प्रेमी, अतिशयोक्ति स्तर पर । कच्छित प्रेष्थठतमेनाथ । प्रेष्थठतमेनाथ हृदयेनात्म-बन्धुना । आत्म-बंधु, सुहृत । संस्कृत में विभिन्न परिभाषाऍ हैं, आत्म-बंधु, सुहृत, बंधु, मित्र - इस सब का मतलब है मित्र, लेकिन विभिन्न मात्रा में । मित्र का अर्थ है साधारण दोस्त । जैसे तुम कहते हो, "यह मेरा दोस्त है," इसका यह मतलब नहीं है कि वह मेरा घनिष्ठ मित्र है । तो सबसे अच्छा दोस्त सुहृत है। सुहृत का अर्थ है "किसी भी अभिलाषा के बिना ।"

अगर तुम किसी के बारे में सोचते हो, कि कैसे वह सुखी हो सकता है, वह सुहृत कहा जाता है । तो हृदयेनात्म-बन्धुना । श्री कृष्ण भी सदैव अर्जुन की चिन्तन करते थे, और वही संबंध है । श्री कृष्ण कहते हैं, साधवो हृदयम मह्यम (श्रीमद भागवतम ९.४.६८) । जैसे भक्त हमेशा श्री कृष्ण का चिन्तन करता है, उसी प्रकार श्री कृष्ण भी सदैव भक्त का चिन्तन करते हैं । वे अधिक चिन्तन करते हैं । यही आदान प्रदान है ।

ये यथा माम प्रपद्यन्ते
तांस तथैव भजाम्यहम
(भ.गी. ४.११) ।

अगर तुम श्री कृष्ण का चिन्तन करते हो चौबीस घंटे, तो श्री कृष्ण तुम्हारा चिन्तन करेंगे छब्बीस घंटे । (हंसी) श्री कृष्ण इतने दयालु हैं । अगर तुम श्री कृष्ण के लिए कुछ सेवा करते हो, श्री कृष्ण तुम्हे सौ गुना पुरस्कृत करेंगे । लेकिन लोग, वे नहीं चाहते हैं । वे सोचते हैं, "हमें क्या लाभ मिलेंगा श्री कृष्ण की सेवा करके ? मुझे अपने कुत्ते की सेवा करने दो ।" यह गलतफहमी है । और हमारा प्रयास है कृष्ण के प्रति सुषुप्त प्रेम को जगाना ।

हर किसी के पास प्रेम है - प्रेम का जथ्था है - लेकिन इसका दुरुपयोग किया जा रहा है । वे जानते नहीं हैं कि वो प्रेम कहां करना है... क्योंकि वे नहीं जानते; इसलिए वे निराश हो जाते हैं । इसलिए वे निराश हो जाते हैं । इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है लोगों को शिक्षित करना कि "तुम प्रेम कर रहे हो । तुम पागल हो उस प्रेमी के पीछे जो तुम्हे भी प्रेम कर सके । लेकिन यह तुम इस भौतिक दुनिया में नहीं पा सकते । वह तुम पाअोगे जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करोगे ।" यही हमारा कृष्ण भावनामृत है ।

यह ज़रूरत से ज़्यादा या मनगढ़ंत बात नहीं है । हर कोई समझ सकता है कि "मैं किसी को प्यार करना चाहता हूं ।" उत्कंठा । लेकिन वह हताश हो रहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण से प्रेम नहीं करता है । यह (अस्पष्ट) है। अगर तुम अपने प्रेम करने की वृत्ति को श्री कृष्ण की तरफ मोडते हो, तब तुम पूर्ण, तुम पूर्ण संतुष्ट हो जाते हो, ययात्मा संप्रसी..., सुप्रसीदति (श्रीमद भागवतम १.२.६) । हम मन की शांति के लिए कोशिश कर रहे हैं, मन की शांति, पूर्ण संतुष्टि के लिए । वह पूर्ण संतुष्टि प्राप्त की जा सकती है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करना सीखते हो । यही रहस्य है । अन्यथा तुम नहीं कर सकते । क्योकि... क्योंकि तुम प्यार करना चाहते हो और संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो - यह पूर्ण होता है जब तुम श्री कृष्ण से प्रेम करने के मंच पर अाते हो ।