HI/Prabhupada 1024 - अगर तुम इन दो सिद्धांतों का पालन करते हो, कृष्ण तुम्हारी पकड़ में होंगे: Difference between revisions
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प्रभुपाद: तो कभी कभी कम बुद्धिमान पुरुषों के लिए धोखा देना आवश्यक हो जाता है । लेकिन हम धोखा नहीं दे रहे हैं । हम बहुत सरल हैं। क्यों हम धोखा देंगे ? | प्रभुपाद: तो कभी कभी कम बुद्धिमान पुरुषों के लिए धोखा देना आवश्यक हो जाता है । लेकिन हम धोखा नहीं दे रहे हैं । हम बहुत सरल हैं। क्यों हम धोखा देंगे ? कृष्ण कहते हैं, | ||
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तो हम कहते हैं "कृपया यहॉ अाइए । यहाँ श्री कृष्ण हैं, और आप केवल उनका चिन्तन कीजिए ।" कठिनाई कहाँ है ? यहां राधा- | तो हम कहते हैं "कृपया यहॉ अाइए । यहाँ श्री कृष्ण हैं, और आप केवल उनका चिन्तन कीजिए ।" कठिनाई कहाँ है ? यहां राधा-कृष्ण हैं, और अगर तुम रोज़ देखते हो, स्वाभाविक रूप से राधा और कृष्ण का प्रभाव तुम्हारे मन पर पडेगा । तो किसी भी स्थान पर, तुम राधा-कृष्ण का चिन्तन कर सकते हो । कठिनाई कहां है ? मन-मना | तुम हरे कृष्ण का जप करो । जैसे ही तुम "कृष्ण" जपते हो, तुरंत तुम मंदिर में कृष्ण के रूप को याद करते हो, नाम-रूप । फिर तुम कृष्ण के बारे में सुन रहे हो; तुम याद कर रहे हो उनके गुण, उनकी गतिविधियॉ, नाम, गुण, रूप, लीला, परिकर, वसिष्ठ । | ||
इस तरह से, इस... तुम अभ्यास कर सकते हो । कठिनाई कहां है ? यह अभ्यास की शुरुआत है । वास्तव में कृष्ण हैं, लेकिन क्योंकि मेरे पास ऑखें नहीं है कृष्ण को देखने के लिए, मैं सोच रहा हूँ, "यहॉ... कृष्ण कहां हैं ? यह एक पत्थर, एक प्रतिमा है ।" लेकिन वह नहीं जानता है की पत्थर भी श्री कृष्ण हैं । पत्थर भी श्री कृष्ण हैं । पानी भी श्री कृष्ण हैं । पृथ्वी भी श्री कृष्ण हैं । हवा भी श्री कृष्ण हैं । श्री कृष्ण के बिना, कोई अन्य अस्तित्व नहीं है । यह भक्त देख सकता है । इसलिए, जब भी वह भी पत्थर को देखता हैम वह श्री कृष्ण को देखता है । यहाँ नास्तिक कहेगा कि "तुम पत्थर की पूजा कर रहे हो ।" लेकिन वे पत्थर की पूजा नहीं कर रहे हैं; वे श्री कृष्ण की पूजा कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि श्री कृष्ण के अलावा और कुछ है ही नहीं । | |||
प्रेमांजनच्छुरति भक्ति विलोचनेन (ब्रह्मसंहिता ५.३८) । उस अवस्था पर हमें आना है । कैसे तुम कह सकते हो कि पत्थर श्री कृष्ण नहीं हैं ? श्री कृष्ण कहते हैं... तुम्हे श्री कृष्ण को समझना है जैसा कि श्री कृष्ण ने कहा है । तो श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं, | |||
:भूमिर अपो अनलो वायु: | |||
:खम मनो बुद्धिर एव च | |||
:भिन्ना प्रकृतिर अष्टधा | |||
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तो, ये यथा | "वे मेरे हैं ।" जैसे कि मैं बात कर रहा हूँ । मैं बात कर रहा हूं, लेकिन वह रेकार्ड हो रहा है अौर हम उसे दोहराऍगे । वही अावाज़ अाएगी । अौर अगर तुम जानते हो कि "यहाँ हमारे आध्यात्मिक गुरु हैं..." लेकिन मैं वहाँ नहीं हूँ । अावाज़ मुझ से अब अलग है । भिन्न । भिन्न का अर्थ है "अलग |" लेकिन, जैसे ही रिकॉर्ड लगाया जाता है, हर कोई जानता है, "यहाँ भक्तिसिद् ..., भक्तिवेदांत स्वामी हैं ।" यदि तुम जानते हो । तो इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है । यह श्री कृष्ण... (तोड़) तो, ये यथा माम ([[HI/BG 4.11|भ.गी. ४.११]])... तो जितना अधिक तुम श्री कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, उतना अधिक तुम श्री कृष्ण का अनुभव कर सकते हो । | ||
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तो हमारी प्रक्रिया बहुत सरल है । केवल अपनी जीभ को संलग्न करो । अन्य सभी इंद्रियों को छोडो । जीभ बहुत बलवान है । और जीभ | तो हमारी प्रक्रिया बहुत सरल है । केवल अपनी जीभ को संलग्न करो । अन्य सभी इंद्रियों को छोडो । जीभ बहुत बलवान है । और जीभ हमारी कट्टर दुश्मन है, और जीभ हमारी सबसे अंतरंग मित्र भी हो सकती है । यह जीभ । इसलिए शास्त्र कहता है कि सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ: केवल प्रभु की सेवा में अपनी जीभ को संलग्न करो, और उनका साक्षात्कार होगा । बहुत अच्छा है । अब क्या, हम जीभ के साथ क्या करते हैं ? हम बात करते हैं: श्री कृष्ण की बात करो । हम गाते हैं: श्री कृष्ण का मंत्र जपो । हम खाते हैं: स्वाद, कृष्ण प्रसादम खाओ । तुम श्री कृष्ण को समझ जाअोगे । कोई भी मूर्ख व्यक्ति, कोई भी अशिक्षित, या जीवन की किसी भी स्थिति, तुम श्री कृष्ण की सेवा में अपनी जीभ का इस्तेमाल कर सकते हो । ऐसा कुछ भी मत खाअो जो श्री कृष्ण द्वारा न खाया गया हो - तुम्हारी जीभ तुम्हारी सबसे घनिष्ठ मित्र बन जाती है । और श्री कृष्ण के अलावा कुछ भी बात मत करो । अगर तुम इन दो सिद्धांतों का पालन करते हो, तो श्री कृष्ण तुम्हारी पकड़ में अा जाऍगे । | ||
भक्त : जय, हरिबोल । | आपका बहुत बहुत धन्यवाद । | ||
भक्त: जय, हरिबोल । | |||
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Latest revision as of 17:53, 1 October 2020
730408 - Lecture SB 01.14.44 - New York
प्रभुपाद: तो कभी कभी कम बुद्धिमान पुरुषों के लिए धोखा देना आवश्यक हो जाता है । लेकिन हम धोखा नहीं दे रहे हैं । हम बहुत सरल हैं। क्यों हम धोखा देंगे ? कृष्ण कहते हैं,
- मन मना भव मद भक्तो
- मद्याजी माम नमस्कुरु
- (भ.गी. १८.६५) ।
तो हम कहते हैं "कृपया यहॉ अाइए । यहाँ श्री कृष्ण हैं, और आप केवल उनका चिन्तन कीजिए ।" कठिनाई कहाँ है ? यहां राधा-कृष्ण हैं, और अगर तुम रोज़ देखते हो, स्वाभाविक रूप से राधा और कृष्ण का प्रभाव तुम्हारे मन पर पडेगा । तो किसी भी स्थान पर, तुम राधा-कृष्ण का चिन्तन कर सकते हो । कठिनाई कहां है ? मन-मना | तुम हरे कृष्ण का जप करो । जैसे ही तुम "कृष्ण" जपते हो, तुरंत तुम मंदिर में कृष्ण के रूप को याद करते हो, नाम-रूप । फिर तुम कृष्ण के बारे में सुन रहे हो; तुम याद कर रहे हो उनके गुण, उनकी गतिविधियॉ, नाम, गुण, रूप, लीला, परिकर, वसिष्ठ ।
इस तरह से, इस... तुम अभ्यास कर सकते हो । कठिनाई कहां है ? यह अभ्यास की शुरुआत है । वास्तव में कृष्ण हैं, लेकिन क्योंकि मेरे पास ऑखें नहीं है कृष्ण को देखने के लिए, मैं सोच रहा हूँ, "यहॉ... कृष्ण कहां हैं ? यह एक पत्थर, एक प्रतिमा है ।" लेकिन वह नहीं जानता है की पत्थर भी श्री कृष्ण हैं । पत्थर भी श्री कृष्ण हैं । पानी भी श्री कृष्ण हैं । पृथ्वी भी श्री कृष्ण हैं । हवा भी श्री कृष्ण हैं । श्री कृष्ण के बिना, कोई अन्य अस्तित्व नहीं है । यह भक्त देख सकता है । इसलिए, जब भी वह भी पत्थर को देखता हैम वह श्री कृष्ण को देखता है । यहाँ नास्तिक कहेगा कि "तुम पत्थर की पूजा कर रहे हो ।" लेकिन वे पत्थर की पूजा नहीं कर रहे हैं; वे श्री कृष्ण की पूजा कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि श्री कृष्ण के अलावा और कुछ है ही नहीं ।
प्रेमांजनच्छुरति भक्ति विलोचनेन (ब्रह्मसंहिता ५.३८) । उस अवस्था पर हमें आना है । कैसे तुम कह सकते हो कि पत्थर श्री कृष्ण नहीं हैं ? श्री कृष्ण कहते हैं... तुम्हे श्री कृष्ण को समझना है जैसा कि श्री कृष्ण ने कहा है । तो श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं,
- भूमिर अपो अनलो वायु:
- खम मनो बुद्धिर एव च
- भिन्ना प्रकृतिर अष्टधा
- (भ.गी. ७.४)
"वे मेरे हैं ।" जैसे कि मैं बात कर रहा हूँ । मैं बात कर रहा हूं, लेकिन वह रेकार्ड हो रहा है अौर हम उसे दोहराऍगे । वही अावाज़ अाएगी । अौर अगर तुम जानते हो कि "यहाँ हमारे आध्यात्मिक गुरु हैं..." लेकिन मैं वहाँ नहीं हूँ । अावाज़ मुझ से अब अलग है । भिन्न । भिन्न का अर्थ है "अलग |" लेकिन, जैसे ही रिकॉर्ड लगाया जाता है, हर कोई जानता है, "यहाँ भक्तिसिद् ..., भक्तिवेदांत स्वामी हैं ।" यदि तुम जानते हो । तो इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है । यह श्री कृष्ण... (तोड़) तो, ये यथा माम (भ.गी. ४.११)... तो जितना अधिक तुम श्री कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, उतना अधिक तुम श्री कृष्ण का अनुभव कर सकते हो ।
- सेवोनमुखे हि जिह्वादौ
- स्वयम एव स्फुरति अद:
- (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६)
तो हमारी प्रक्रिया बहुत सरल है । केवल अपनी जीभ को संलग्न करो । अन्य सभी इंद्रियों को छोडो । जीभ बहुत बलवान है । और जीभ हमारी कट्टर दुश्मन है, और जीभ हमारी सबसे अंतरंग मित्र भी हो सकती है । यह जीभ । इसलिए शास्त्र कहता है कि सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ: केवल प्रभु की सेवा में अपनी जीभ को संलग्न करो, और उनका साक्षात्कार होगा । बहुत अच्छा है । अब क्या, हम जीभ के साथ क्या करते हैं ? हम बात करते हैं: श्री कृष्ण की बात करो । हम गाते हैं: श्री कृष्ण का मंत्र जपो । हम खाते हैं: स्वाद, कृष्ण प्रसादम खाओ । तुम श्री कृष्ण को समझ जाअोगे । कोई भी मूर्ख व्यक्ति, कोई भी अशिक्षित, या जीवन की किसी भी स्थिति, तुम श्री कृष्ण की सेवा में अपनी जीभ का इस्तेमाल कर सकते हो । ऐसा कुछ भी मत खाअो जो श्री कृष्ण द्वारा न खाया गया हो - तुम्हारी जीभ तुम्हारी सबसे घनिष्ठ मित्र बन जाती है । और श्री कृष्ण के अलावा कुछ भी बात मत करो । अगर तुम इन दो सिद्धांतों का पालन करते हो, तो श्री कृष्ण तुम्हारी पकड़ में अा जाऍगे ।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
भक्त: जय, हरिबोल ।