NE/Prabhupada 1068 - बिभिन्न प्रकारका गुणहरुका अनुसारले हुनेँ तीन किसिमका कर्म हुन्छन: Difference between revisions

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भगवान अादि स्रष्टा हैं । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं, वे सृजनकर्ता हैं ... यह भी उल्लेख किया गया है । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं । ग्यारहवें अध्याय में भगवान को प्रपितामह के रुप में सम्बोधित किया गया है ([[Vanisource:BG 11.39|भ गी ११।३९]]) । क्योंकि ब्रह्मा को पितामह कहकर संबोधित किया गया है, पितामह, लेकिन वे तो इस पितामह के भी स्रष्टा हैं । अतएव किसी को अपने अापको किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं मानना चाहिए, लेकिन उसे केवल उन्हीं वस्तुअों को अपना मानना चाहिए जो उसके पोषण के लिए भगवान ने अलग कर दी है । अब इसके कई उदाहरण हैं कि कैसे भगवान द्वारा रखी गई वस्तुअों को काम में लाया जाय । इसकी भी व्याख्या भगवद्- गीता में हुई है । प्रारम्भ में अर्जुन नें निश्चय किया था कि वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं लडेगा । यह उसका निर्णय था । अर्जुन ने भगवान से कहा कि वह अपने ही सम्बन्धियों को मार कर राज्य का भोग नहीं करना चाहता । यह निर्णय उसके शरीर पर अाधारित था । क्योंकि वह अपने अाप को शरीर मान रहा था, और शारीरिक सम्बन्धि, अपने भाइयों, भतीजों, ससुर या पितामहों को भी, वे उसके शरीरिक विस्तार थे, और वह अपनी शारीरिक अावश्यक्ताअों को तुष्ट करना चाह रहा था । भगवान नें यह प्रवचन इस दृष्टिकोण को बदलने कि लिए ही किया । और अर्जन भगवान के अादेशानुसार युद्ध करने के लिए मान गया । और उसने कहा, करिष्ये वचनं तव ([[Vanisource:BG 18.73|भ गी १८।७३]]) ।  
भगवान अादि स्रष्टा हैं । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं, वे सृजनकर्ता हैं ... यह भी उल्लेख किया गया है । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं । ग्यारहवें अध्याय में भगवान को प्रपितामह के रुप में सम्बोधित किया गया है ([[Vanisource:BG 11.39 (1972)|भ गी ११।३९]]) । क्योंकि ब्रह्मा को पितामह कहकर संबोधित किया गया है, पितामह, लेकिन वे तो इस पितामह के भी स्रष्टा हैं । अतएव किसी को अपने अापको किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं मानना चाहिए, लेकिन उसे केवल उन्हीं वस्तुअों को अपना मानना चाहिए जो उसके पोषण के लिए भगवान ने अलग कर दी है । अब इसके कई उदाहरण हैं कि कैसे भगवान द्वारा रखी गई वस्तुअों को काम में लाया जाय । इसकी भी व्याख्या भगवद्- गीता में हुई है । प्रारम्भ में अर्जुन नें निश्चय किया था कि वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं लडेगा । यह उसका निर्णय था । अर्जुन ने भगवान से कहा कि वह अपने ही सम्बन्धियों को मार कर राज्य का भोग नहीं करना चाहता । यह निर्णय उसके शरीर पर अाधारित था । क्योंकि वह अपने अाप को शरीर मान रहा था, और शारीरिक सम्बन्धि, अपने भाइयों, भतीजों, ससुर या पितामहों को भी, वे उसके शरीरिक विस्तार थे, और वह अपनी शारीरिक अावश्यक्ताअों को तुष्ट करना चाह रहा था । भगवान नें यह प्रवचन इस दृष्टिकोण को बदलने कि लिए ही किया । और अर्जन भगवान के अादेशानुसार युद्ध करने के लिए मान गया । और उसने कहा, करिष्ये वचनं तव ([[Vanisource:BG 18.73 (1972)|भ गी १८।७३]]) ।  


इस संसार में मनुष्य बिल्लियों तथा कुत्तों के समान लडने के लिए नहीं है । मनुष्यों को बुद्धिमान होकर मनुष्य जीवन की महत्ता को समझना चाहिए और सामान्य पशूअों की भॉति अाचरण करने से इन्कार करना चाहिए । उसे...मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए । अौर इसका निर्देश सभी वैदिक ग्रंथों में दिया गया है और सार भगवद्- गीता में दिया गया है । वैदिक ग्रंथ मनुष्यों के लिए है अौर पशूअों के लिए नहीं । एक पशु दूसरे उसके खाने योग्य पशु का वध करे तो कोई पाप नहीं लगता । लेकिन यदि मनुष्य अपनी अनियन्त्रित स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए पशु वध करता है, तो वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने का उत्तरदायी है । और भगवद्- गीता में स्पष्ट रूप से तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है प्रकृति के गुणों के अनुसार : सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी तरह, अाहार के भी तीन भेद हैं: सात्विक अाहार, राजसिक अाहार, तामसिक अाहार । इनका सबका विशद वर्णन हुअा है अौर यदि हम भगवद्- गीता के उपदेशों का ठीक से उपयोग करें, तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध हो जाए, और अंतत: हम अपने गंतव्य को प्राप्त हो सकते हैं । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ([[Vanisource:BG 15.6|भ गी १५।६]]) ।  
इस संसार में मनुष्य बिल्लियों तथा कुत्तों के समान लडने के लिए नहीं है । मनुष्यों को बुद्धिमान होकर मनुष्य जीवन की महत्ता को समझना चाहिए और सामान्य पशूअों की भॉति अाचरण करने से इन्कार करना चाहिए । उसे...मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए । अौर इसका निर्देश सभी वैदिक ग्रंथों में दिया गया है और सार भगवद्- गीता में दिया गया है । वैदिक ग्रंथ मनुष्यों के लिए है अौर पशूअों के लिए नहीं । एक पशु दूसरे उसके खाने योग्य पशु का वध करे तो कोई पाप नहीं लगता । लेकिन यदि मनुष्य अपनी अनियन्त्रित स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए पशु वध करता है, तो वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने का उत्तरदायी है । और भगवद्- गीता में स्पष्ट रूप से तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है प्रकृति के गुणों के अनुसार : सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी तरह, अाहार के भी तीन भेद हैं: सात्विक अाहार, राजसिक अाहार, तामसिक अाहार । इनका सबका विशद वर्णन हुअा है अौर यदि हम भगवद्- गीता के उपदेशों का ठीक से उपयोग करें, तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध हो जाए, और अंतत: हम अपने गंतव्य को प्राप्त हो सकते हैं । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ([[Vanisource:BG 15.6 (1972)|भ गी १५।६]]) ।  


यह जानकारी भगवद्- गीता में दी गई है, कि इस भौतिक अाकाश से परे, एक दूसरा गन्तव्य अाकाश है, यह नित्य चिन्मय आकाश कहलाता है । इस आकाश में, यह अावरित आकाश, हम सब कुछ अस्थायी पाते हैं । यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वसतुऍ उत्पन्न करता है, अौर क्षीण होता है अौर अन्त में लुप्त हो जाता है । भौतिक संसार का यही नियम है । तुम इस शरीर का दृष्टान लो, या फल का या किसी अन्य वस्तु का, उसका लुप्त होना निश्चित है । किन्तु इस क्षणिक संसार से परे एक अन्य संसार है जिसके विषय में हमें जानकारी है, कि, परस् तस्मात तु भाव: अन्य: ([[Vanisource:BG 8.20|भ गी ८।२०]]) । उस संसार में अन्य प्रकृति है जो सनातन है । और जीव, जीव को भी सनातन बताया गया है । ममैवाम्शो जीव भूत: जीव लोके सनातन: ([[Vanisource:BG 15.7|भ गी १५।७]]) । सनातन का अर्थ है शाश्वत । और ग्यारहवें अध्याय में भगवान को भी सनातन बताया गया है । क्योंकि हमारा भगवान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, अोर हम गुणात्मक रूप से एक हैं...सनातन-धाम और सनातन ब्रह्म और सनातन जीव, वे एक ही गुणात्मक मंच पर हैं । इसलिए भगवद्- गीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है या जो सनातन-धर्म कहलाता है या जीव की शाश्वत वृत्ति है । अब हम अस्थायी रूप से विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं अौर ये सारे कार्य शुद्ध हो रहे हैं । जब हम इन सभी क्षणिक कर्मों को त्याग देते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) अौर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मों को ग्रहण करते हैं, यही शुद्ध जीवन कहलाता है ।
यह जानकारी भगवद्- गीता में दी गई है, कि इस भौतिक अाकाश से परे, एक दूसरा गन्तव्य अाकाश है, यह नित्य चिन्मय आकाश कहलाता है । इस आकाश में, यह अावरित आकाश, हम सब कुछ अस्थायी पाते हैं । यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वसतुऍ उत्पन्न करता है, अौर क्षीण होता है अौर अन्त में लुप्त हो जाता है । भौतिक संसार का यही नियम है । तुम इस शरीर का दृष्टान लो, या फल का या किसी अन्य वस्तु का, उसका लुप्त होना निश्चित है । किन्तु इस क्षणिक संसार से परे एक अन्य संसार है जिसके विषय में हमें जानकारी है, कि, परस् तस्मात तु भाव: अन्य: ([[Vanisource:BG 8.20 (1972)|भ गी ८।२०]]) । उस संसार में अन्य प्रकृति है जो सनातन है । और जीव, जीव को भी सनातन बताया गया है । ममैवाम्शो जीव भूत: जीव लोके सनातन: ([[Vanisource:BG 15.7 (1972)|भ गी १५।७]]) । सनातन का अर्थ है शाश्वत । और ग्यारहवें अध्याय में भगवान को भी सनातन बताया गया है । क्योंकि हमारा भगवान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, अोर हम गुणात्मक रूप से एक हैं...सनातन-धाम और सनातन ब्रह्म और सनातन जीव, वे एक ही गुणात्मक मंच पर हैं । इसलिए भगवद्- गीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है या जो सनातन-धर्म कहलाता है या जीव की शाश्वत वृत्ति है । अब हम अस्थायी रूप से विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं अौर ये सारे कार्य शुद्ध हो रहे हैं । जब हम इन सभी क्षणिक कर्मों को त्याग देते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य ([[Vanisource:BG 18.66 (1972)|भ गी १८।६६]]) अौर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मों को ग्रहण करते हैं, यही शुद्ध जीवन कहलाता है ।


'''Nepali'''
'''Nepali'''

Latest revision as of 22:01, 29 January 2021



660219-20 - Lecture BG Introduction - New York


Hindi

भगवान पूर्ण हैं, उनका प्रकृति के नियमों के वशीभूत होने का प्रशन ही नहीं उठता । अतएव मनुष्य में इतना समझने की बुद्धि तो होनी ही चाहिए कि भगवान के अलावा, कोई भी ब्रह्मांड की सारी वस्तुअों का स्वामी नहीं है । इसका उल्लेख भगवद्- गीता में किया गया है:

अहं सर्वस्य प्रभवो
मत्त: सर्वं प्रवर्तते
इति मत्वा भज्नते मां
बुधा भाव समन्विता:
(भ गी १०।८)

भगवान अादि स्रष्टा हैं । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं, वे सृजनकर्ता हैं ... यह भी उल्लेख किया गया है । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं । ग्यारहवें अध्याय में भगवान को प्रपितामह के रुप में सम्बोधित किया गया है (भ गी ११।३९) । क्योंकि ब्रह्मा को पितामह कहकर संबोधित किया गया है, पितामह, लेकिन वे तो इस पितामह के भी स्रष्टा हैं । अतएव किसी को अपने अापको किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं मानना चाहिए, लेकिन उसे केवल उन्हीं वस्तुअों को अपना मानना चाहिए जो उसके पोषण के लिए भगवान ने अलग कर दी है । अब इसके कई उदाहरण हैं कि कैसे भगवान द्वारा रखी गई वस्तुअों को काम में लाया जाय । इसकी भी व्याख्या भगवद्- गीता में हुई है । प्रारम्भ में अर्जुन नें निश्चय किया था कि वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं लडेगा । यह उसका निर्णय था । अर्जुन ने भगवान से कहा कि वह अपने ही सम्बन्धियों को मार कर राज्य का भोग नहीं करना चाहता । यह निर्णय उसके शरीर पर अाधारित था । क्योंकि वह अपने अाप को शरीर मान रहा था, और शारीरिक सम्बन्धि, अपने भाइयों, भतीजों, ससुर या पितामहों को भी, वे उसके शरीरिक विस्तार थे, और वह अपनी शारीरिक अावश्यक्ताअों को तुष्ट करना चाह रहा था । भगवान नें यह प्रवचन इस दृष्टिकोण को बदलने कि लिए ही किया । और अर्जन भगवान के अादेशानुसार युद्ध करने के लिए मान गया । और उसने कहा, करिष्ये वचनं तव (भ गी १८।७३) ।

इस संसार में मनुष्य बिल्लियों तथा कुत्तों के समान लडने के लिए नहीं है । मनुष्यों को बुद्धिमान होकर मनुष्य जीवन की महत्ता को समझना चाहिए और सामान्य पशूअों की भॉति अाचरण करने से इन्कार करना चाहिए । उसे...मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए । अौर इसका निर्देश सभी वैदिक ग्रंथों में दिया गया है और सार भगवद्- गीता में दिया गया है । वैदिक ग्रंथ मनुष्यों के लिए है अौर पशूअों के लिए नहीं । एक पशु दूसरे उसके खाने योग्य पशु का वध करे तो कोई पाप नहीं लगता । लेकिन यदि मनुष्य अपनी अनियन्त्रित स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए पशु वध करता है, तो वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने का उत्तरदायी है । और भगवद्- गीता में स्पष्ट रूप से तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है प्रकृति के गुणों के अनुसार : सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी तरह, अाहार के भी तीन भेद हैं: सात्विक अाहार, राजसिक अाहार, तामसिक अाहार । इनका सबका विशद वर्णन हुअा है अौर यदि हम भगवद्- गीता के उपदेशों का ठीक से उपयोग करें, तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध हो जाए, और अंतत: हम अपने गंतव्य को प्राप्त हो सकते हैं । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम (भ गी १५।६) ।

यह जानकारी भगवद्- गीता में दी गई है, कि इस भौतिक अाकाश से परे, एक दूसरा गन्तव्य अाकाश है, यह नित्य चिन्मय आकाश कहलाता है । इस आकाश में, यह अावरित आकाश, हम सब कुछ अस्थायी पाते हैं । यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वसतुऍ उत्पन्न करता है, अौर क्षीण होता है अौर अन्त में लुप्त हो जाता है । भौतिक संसार का यही नियम है । तुम इस शरीर का दृष्टान लो, या फल का या किसी अन्य वस्तु का, उसका लुप्त होना निश्चित है । किन्तु इस क्षणिक संसार से परे एक अन्य संसार है जिसके विषय में हमें जानकारी है, कि, परस् तस्मात तु भाव: अन्य: (भ गी ८।२०) । उस संसार में अन्य प्रकृति है जो सनातन है । और जीव, जीव को भी सनातन बताया गया है । ममैवाम्शो जीव भूत: जीव लोके सनातन: (भ गी १५।७) । सनातन का अर्थ है शाश्वत । और ग्यारहवें अध्याय में भगवान को भी सनातन बताया गया है । क्योंकि हमारा भगवान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, अोर हम गुणात्मक रूप से एक हैं...सनातन-धाम और सनातन ब्रह्म और सनातन जीव, वे एक ही गुणात्मक मंच पर हैं । इसलिए भगवद्- गीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है या जो सनातन-धर्म कहलाता है या जीव की शाश्वत वृत्ति है । अब हम अस्थायी रूप से विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं अौर ये सारे कार्य शुद्ध हो रहे हैं । जब हम इन सभी क्षणिक कर्मों को त्याग देते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य (भ गी १८।६६) अौर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मों को ग्रहण करते हैं, यही शुद्ध जीवन कहलाता है ।

Nepali

भगवान पुर्ण हुनुँहुन्छ। भगवान प्रकृतिका नियमहरूबाट वशिभूत हुँने प्रश्ननै उठदैन। यो सम्पुर्ण ब्रह्माण्डमा भगवान बाहेक कोहि पनि केहिको पनि अधिपत्य बन्न सक्दैनन भन्ने बुध्दि मानिसमा हुँन आवश्याक पर्दछ। यो उल्लेख भगवत गीतामा गरिएको छ। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा भज्नते मां बुधा भाव समन्विता: ( भगवत गीता गी १०-८) । भगवान अादि स्रष्टा हुनुँ हुन्छ। उहाँ त ब्रह्माको पनि सृजनाकर्ता हुनँ हुन्छ। उहाँन हुँन सृजनकर्ता । यो पनि ब्याख्या गरिएको छ। उहाँ नै हुनुँ हुन्छ ब्रह्माका सृजनाकर्ता। भगवत गीताको ११अौ अध्यायमा भगवानलाई प्रपितामह भनि सम्बोधन गरिएको छ। (गीता ११-३९) किनभने ब्रह्माजीलाई पितामह भनि सम्बोधन गरिएकोछ। तर उहाँ त ति पितामहका पनि सृजनाकर्ता हुनुँहुन्छ। यसै कारण कसैले पनि केहिको पनि स्वामीत्वको दाबी गर्नु हँदैन। तर उस्ले भगवानद्वारा उस्को लालन पालनका लागि छुट्याईएको वस्तु मात्र स्वीकार गर्नु पर्दछ। भगवानले दिलाईदिनु भएको वस्तुलाई कसरि प्रयोगमा ल्याउनु भन्ने धेरै उद्दाहरणहरू छन। यस बिषयमा पनि भगवत गीतामा बताईएको छ। अर्जुनले शुरुमा, युद्ध नगर्ने निर्णय गरेका थिए। यो उन्को आफ्नो मनसाय थियो। अर्जुनले भन्ने भयो कि आफन्तहरूलाई मारेर राज्य पाउदाँ त्यस्को मजा लिँनलाई सम्भावना छैन। यो उहाँको कुरा आफ्नै शरिरको आधारमा बताएको अवधारणा थियो। किनभने उहाँले आफुँलाई शरिर सम्झन्थे। अनि त्यो शरिर संग सम्बन्धित थिए आफन्तहरू, दाजुभाई, भतिजा, शशुरा रहजुरबा। तिनिहरू उन्का शरिरका विस्तारहरु हुँन, अनि उहाँले सोच्दथे कि आफ्ँनो शरिरको माँगलाई पुर्ण गर्ने यहि तरिका हो भनेर सोच्दथे। भगवानले यहि अवधारणालाई बद्लाउँनका लागि सारा उपदेश दिनु भएको हो। अनि चै उहाँले पनि भगवानको निर्देशन अनुसार काम गर्न सहमत भए। अनि उहाँले भने, करिश्ये भचनम् तव। (गीता १८-७३) यसै कारण यस संसारमा मानिसहरू कुकुर बिरालो जस्तो गरि झगडा गर्नका लागि होईनन। मानव जीवनको महत्वलाई बुझ्न मानिसहरूमा पुरा बुध्दि हुँनु पर्दछ। र अनि पशु जस्तो गरि बेहोरा देखाउन छोडनु पर्दछ। उस्ले-- मानिसहरुले मानव जीवनको उध्येश्य बुझ्नु पर्दछ। यस बारेमा निर्देशन वैदिक शास्र सवैमा दिईएको छ, अनि भगवत गीतामा यस्को सारसंक्षेप दिईएको छ। वैदिक शास्र मानव जातीका लागि हो कुकुर बिरालो जस्ता पशुका लागि होईन। कुकुर बिरालोले खाँनलाई अर्को पशु मार्दछ, र त्यस्का लागि उस्लाई पाप लाग्ने प्रश्नै उठदैन। तर मानिसले चै आफ्नो नियन्त्रण बाहिर गएको स्वाद मेटाउनका लागि यदि पशु मार्यो भने प्रकृतिको नियम भंग गरेको बापत जिम्मेवर हुनुँ पर्दछ। अनि भगवत गीतामा तीन किसिमका कृयकलापहरू हुन्छन भनेर प्रष्ट गरि बताईएको छ। बिभिन्न किसिमका गुणहरूका अनुसारले, सत्वगुणका कृयकलापहरू, रजिगुणका कृयकलापहरू र तमोगुणका कृयकलापहरू। यसै गरि खाने आहार पनि तीन किसिमका छन। सत्वगुणमा रहेकाले खाने, रजोगुणमा रहेकाले खाने, र तमोगुणमा रहेर खाने आहारहरु। यो बिषय गहिरो गरी बताईएको छ। र यदि हामीले भगवत गीताको उपदेशलाई राम्रो गरि पालना गर्यौभने, हाम्रो सारा जीवन सुद्ध हुन्छ र अनि चै हामी आफ्नो गन्तब्यमा पुग्नलाई योग्य हुँने छौ। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ( भगवत गीता १५-६)। यो सुचना भगवत गीतामा दिईएको छ। यो भौतिक आकाशका अतिरिक्त आध्यात्मिक आकाश छ र त्यस्लाई सनातन धाम भनिन्छ। यस भौतिक या ढाकिएको संसारमा सबैथोक अनित्य पाईन्छ। यो, दृश्य भएको छ, केेहि समय रहन्छ अनि केहि उत्पादन गर्दछ र अनि गिर्न थाल्दछ र लोप हुन्छ।यसो हुँनु भौतिक संसारको नियम हो। यो शरिर ग्रहन गर। यस्बाट उत्पादन भएको वस्तुलाई भोग गर अनि अन्तमा यस्को क्षती हुन्छ। यो यस्तो संसारदेखि अतिरिक्त अर्को संसार छ।यस बिषयमा जानकारि दिईएको छ। त्यो हो, परश्तस्तु भाव अन्याय (गीता ८-२०) त्याहाँ अर्को प्रकृति छ जो नित्य रहन्छ, सनातन, त्यो सनातनहो। हुँन त जीवलाई पनि सनातन भनि बर्णन गरिएको छ। ममैवाम्शो जीव भूत: जीव लोके सनातन: ( भगवत गीता १५-७) । सनातन को अर्थ हो शाश्वत । अनि ११अौ अध्यायमा भगवानलाई पनि सनातन भनिएको छ। भगवानसंग हाम्रो घनिष्ठ सम्बन्ध छ , गुणात्मक रुपमा एकै किसिम छ। सनातन-धाम, र सनातन ब्रह्म अौ सनातन जीव, यो एकै गुणात्मक मंचमा रहेको छ। । यसै कारण भगवद्- गीताको सारा अभिप्राय हम्रो सनातन धर्मको जागृत गराउनु हो। अथवा जो सनातन-धर्म कहलान्छ त्यो जीवको शाश्वत वृत्ति हो । जब हामी अस्थायी रूपमा विभिन्न कार्योंमा लागेको भएता पनि ति सबै कार्यहरु शुद्ध हुँदैजान्छन। जब हामीले यि अस्थाहि कार्यहरूलाई छोडेर नित्य कार्य गर्न थाल्दछौ, सर्ब धर्म परित्याज (भगवत गीता १८-६६) र अनि जब हामीले भगवानले चाहे अनुसारको काम गर्ब थाल्दछौ तब मात्र हाम्रो जीवन सुद्ध हूँदछ।