भगवान कृष्ण कहते है कि जीवन की भौतिक अवधारणा या जीवन की शारीरिक अवधारणा में, हमारी इंद्रिया बहुत महत्वपूर्ण हैं । यह वर्तमान क्षण में चल रहा है । वर्तमान समय में नहीं, इस भौतिक संसार के निर्माण के समय से । यह बीमारी है की 'मैं ये शरीर हूँ' । श्रीमद भागवत कहता है की "यस्यात्म बुद्धिः कुणपे त्रि-धातुके स्व-धि: कलत्रादिषु भौम इज्य-धि: (श्री.भा. १०.८४.१३), की जो कोई भी को यह शारीरिक धारणा पर है की, 'मैं यह शरीर हूँ' आत्मा बुद्धि कुणपे त्रि-धातु । आत्म-बुद्धि का मतलब है यह त्वचा और हड्डियों में स्वयं की धारणा । यह एक थैला है । यह शरीर थैला है जो बना है त्वचा, हड्डी, रक्त, मूत्र, मल, और कितनी अच्छी चीज़ो का । आप देख रहे हैं ? लेकिन हम सोच रहे हैं कि 'मैं हड्डी, त्वचा और मल और मूत्र का थैला हूँ । यह हमारी सुंदरता है । यह हमारा सब कुछ है ।
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