HI/Prabhupada 0073 - वैकुण्ठ का अर्थ है चिंता के बिना
Lecture on BG 10.2-3 -- New York, January 1, 1967
ऐसा नही है कि तुम्हे इस संघ मे रहकर यह करना पडेगा । तुम इस कला को सीख सकते हो, और इसे अपने घर में भी कर सकते हो । तुम भी अपने घर मैं ऐसा भोजन, अच्छा भोजन, बना सकते हो, कृष्ण को अर्पण करो । यह इतना कठिन नही है । हर दिन हम बनाते हैं अौर कृष्ण को अर्पित करते हैं, और मंत्र का जप करते हैं,
- नमो ब्रह्मण्य-देवाय
- गो-ब्राह्मण-हिताय च
- जगधिताय कृष्णाय
- गोविंदाय नमो नमः
- (विष्णु पुराण १.१९.६५) ।
बस । यह इतना मुश्किल नहीं है ।हर कोई कृष्ण के लिए भोजन बना सकता है अौर कृष्ण को अर्पित कर सकता है, और फिर ग्रहण कर सकता है, और फिर परिवार के सदस्यों या दोस्तों के साथ तुम बैठ सकते हो और कृष्ण के चित्र के सामने मंत्र का जप कर सकते हो,
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
और एक शुद्ध जीवन जी सकते हो । फिर परिणाम देखो । अगर हर घर, हर व्यक्ति, कृष्ण को समझने के इस सिद्धांत को अपनाता है, तो यह हो जाएगा.... फिर पूरी दुनिया वैकुण्ठ बन जाएगी ।
वैकुण्ठ का अर्थ है वह जगह जहाँ कोई भी चिंता नहीं है । वैकुण्ठ । वै का अर्थ है बिना और कुण्ठ का अर्थ चिंता है । यह जगत चिंता से भरा है । सदा समुद्विग्न धियाम असद-ग्रहात (श्रीमद भागवतम ७.५.५ ) । क्योंकि हमने इस अस्थायी भौतिक जीवन को स्वीकार किया है, इसलिए हम हमेशा चिंता में रहते हैं । अाध्यात्मिक जगत में बिल्कुल विपरीत बात है, जहॉ लोकों को वैकुण्ठ कहते हैं । वैकुण्ठ का अर्थ है बिना चिन्ता ।
हम चिंता से मुक्त होना चाहते हैं । हर कोई खुद को चिंता से मुक्त करना चाहता है, लेकिन उसे पता नही है की इस चिंता से कैसे मुक्त हो सकता है । नशा करना कोई बात नहीं हुई अपने को चिंता से मुक्त करने के लिए । यह एक नशा है । यह विस्मरण है । कुछ समय, कुछ समय के लिए हम सब कुछ भूल जाते हैं, लेकिन जब हम होश में अाते हैं वही चिंता ओर वही चीज़े रहती हैं । तो यह तुम्हारी मदद नही करेगा ।
अगर तुम चिंता से दूर होना चाहते हो, और अगर तुम वास्तव में सच्चिदानन्दमय जीवन चाहते हो, तो यही वह प्रक्रिया है । यही प्रक्रिया है । तुम्हे कृष्ण को समझना होगा । यह स्पष्ट तरह से कहा गया है "न मे विदु: सुर-गणा: (भ गी १०.२ ) । कोई नहीं समझ सकता है । लेकिन एक तरीका है । सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव स्फुरति अद: (भक्तिरसामृतसिन्धु १.२.२३४ ) यह एक प्रक्रिया है ।
श्रीमद्-भगवातम् के कई स्थानो में इस प्रक्रिया का वर्णन किया गया है । जैसे कि एक स्थान में कहा गया है कि
- ज्ञाने प्रयासम् उदपस्य नमन्त एव
- जीवंती सन्मुखरिताम भवदीय-वार्ताम
- स्थाने स्थिता: श्रुति-गतां तनु-वाण- मनोभिर्
- ये प्रायशो अजित जितोप्यसि तैस् त्रि-लोक्यम
- (श्रीमद भागवतम १०.१४.३) ।
यह बहुत अच्छा श्लोक है । यह कहा जाता है कि अजित, कोई नहीं जान सकता है । भगवान का दूसरा नाम अजित है । अजित का अर्थ है जिन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता है । कोई भी उन तक पहुँच नहीं सकता है । इसलिए उनका नाम अजित है । तो अजित पराजित हो जाते हैं । अजित जितोप्यसि । यद्यपि भगवान अज्ञेय हैं, भगवान अजेय हैं, फिर भी, उनपर विजय प्राप्त की जाती है । कैसे ? स्थाने स्थिता: