HI/Prabhupada 0097 - मैं बस एक डाक चपरासी हूँ
यदि अथक परिश्रम के बाद भी हम लोगों को आकर्षित नहीं कर पाते तो भी श्रीकृष्ण संतुष्ट होंगे। और हमारा कार्य है श्रीकृष्ण को संतुष्ट करना। यही भक्ति है । हृषिकेन हृषिकेश सेवनं भक्तिर् उच्यते (चैतन्य चरितामृत मध्य 19.170) भक्ति का अर्थ हैं सभी इन्द्रियों को श्रीकृष्ण की संतुष्टि में लगाना। भौतिक जीवन का अर्थ हैं इन्द्रियों को अपनी संतुष्टि में लगाना "मुझे यह पसंद है । मुझे कुछ करना है । मुझे कुछ गाना या बोलना है, कुछ खाना है, कुछ आस्वादन करना है, कुछ छूना है। अर्थात इन्द्रियों के द्वारा । यही भौतिक जीवन है । "मुझे मुलायम त्वचा को छूना है । मुझे स्वादिष्ट भोजन चखना है। मुझे ऐसे सूँघना है, ऐसे चलना हैं।" यह सब कुछ- चलना, खाना, छूना या कुछ भी -श्रीकृष्ण के लिए उपयोग किए जा सकते हैं। कुछ भी छूने के स्थान पर भक्तों के चरणकमलों को छूना चाहिए। कुछ भी खाने के स्थान पर, श्रीकृष्ण प्रसादम् ग्रहण करना चाहिए। कुछ भी सूंघने के स्थान पर श्रीकृष्ण को अर्पित फूल सूंघना चाहिए।
अतः कोई कार्य प्रतिबंधित नहीं है। यदि आप यौन जीवन का प्रयोग करना चाहते हैं, हाँ, तो कृष्णभावनामृत संतान उत्पन्न कर सकते हैं। कुछ भी प्रतिबंधित नहीं हैं किन्तु केवल उनका शुद्धिकरण किया गया है। यही पूरा कार्यक्रम है। कोई प्रश्न ही नहीं उठता प्रतिबन्धन का। कैसे प्रतिबन्ध लगा सकते हैं? मैं एक मनुष्य हूँ, मान लीजिये कोई कहता है, "आप खाना नहीं खा सकते", क्या यह संभव है ? मुझे खाना खाना ही होगा। प्रतिबन्ध का कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न हैं उसके शुद्धिकरण का। और एक दर्शन है, बलपूर्वक रोक लगाना, उसे शून्य कर देना और वे कहते हैं, "सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाओ। " मैं इच्छाओं से कैसे मुक्त हो सकता हूँ। इच्छाएँ तो रहेंगी। किन्तु मुझे श्रीकृष्ण के लिए इच्छा करनी होगी।
यह अत्यंत सुन्दर पद्धति है। अन्य लोग इसे उचित रूप में ग्रहण नहीं करते और हमारे संघ के साथ नहीं जुड़ते, किन्तु यदि आप प्रयत्न करें; यही आपका कर्त्तव्य है। श्रीकृष्ण संतुष्ट होते हैं। हमारे आचार्य संतुष्ट होंगे, गुरु महाराज संतुष्ट होंगे। और यस्य प्रसादाद् भगवत्… यदि वे संतुष्ट होते हैं तो आपका कार्य पूर्ण हो जायेगा। अन्य लोग संतुष्ट हों या ना हों। आपके जप से कुछ लोग संतुष्ट होते हैं, नहीं हमे इससे कोई लेना-देना नहीं है। वे संतुष्ट हो भी सकते हैं और नहीं भी । किन्तु यदि हम उचित रूप से जप करते हैं तो आचार्यगण संतुष्ट होंगे। यही मेरा कर्तव्य है, परिपूर्ण, यदि मैं कुछ भी स्वयं निर्माण नहीं कर रहा। अतः मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ कि श्रीकृष्ण ने अपने इतने सारे सुपुत्र और सुपुत्रियाँ मेरी सहायता के लिए भेजे हैं। श्रीकृष्ण का आशीर्वाद आप के साथ रहे। और मेरा कुछ भी नहीं है। मैं केवल एक ड़ाक वाहक हूँ। मैं आपको वह प्रदान कर रहा हूँ, जो मैंने अपने गुरु महाराज से सुना है। यदि आप इस प्रकार कार्य करते हैं तो आप खुश रहेंगे, और यह विश्व सुखी रहेगा और श्रीकृष्ण सन्तुष्ट होंगे।