HI/Prabhupada 0137 - जीवन का उद्देश्य क्या है, भगवान क्या है
Lecture on BG 7.4 -- Nairobi, October 31, 1975
हरिकेश: "अनुवाद- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और मिथ्या अहंकार पूर्ण रुप से यह आठ मेरी भिन्न भौतिक शक्तियाँ हैं ।"
प्रभुपाद:
- भूमिर अापो' नलो वायु:
- खम मनो बुद्धिर एव च
- अहंकार इतियम् मे
- भिन्न प्रकृतिर् अष्टधा
- (भ गी ७।४) ।
कृष्ण अपने विषय में समझा रहे हैं । भगवान समझा रहे हैं कि भगवान क्या हैं । यही वास्तविक ज्ञान है । अगर आप भगवान के विषय में मनोकल्पना करते हैं, तो यह संभव नहीं है । भगवान असीमित हैं । आप नहीं समझ सकते । भगवान, श्रीकृष्ण ने शुरुआत में कहा है, असम्शयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तच् श्रृणु (भ गी ७.१) । समग्रम् । समग्रम् का अर्थ है जो भी... या समग्रम् का अर्थ है पूर्ण । तो जो कुछ विषय अध्ययन और ज्ञान के लिए हैं, सबकुछ कुल मिलाकर, एक । भगवान सब का जोड़ हैं । इसलिए वह अपने विषय में समझाने की शुरूअात करते हैं ।
सबसे पहले, क्योंकि हमें भगवान के विषय में कोई जानकारी नहीं है लेकिन व्यवहारिक रूप से हम देख सकते हैं, विशाल भूमि, विशाल जल, समुद्र, विशाल आकाश, फिर अग्नि । ऐसी बहुत सी वस्तुएँ, भौतिक वस्तुएँ । भीतिक वस्तुएँ, मन भी ... मन भी भौतिक है । और फिर अहंकार । हर कोई सोच रहा है कि, "मैं कुछ हूँ । मैं हूँ..." कर्ताहम् इति मन्यते । अहंकार विमूढ़ात्मा । यह मिथ्या अहंकार है । इस अहंकार का अर्थ है मिथ्या अहंकार और शुद्ध अहंकार भी है । वह शुद्ध अहंकार है अहम् ब्रह्मास्मि, और मिथ्या अहंकार: "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमरिकी हूँ," "मैं अफ्रीकी हूँ," "मैं ब्राह्मण हूँ," "मैं क्षत्रिय हूँ," "मैं यह हूँ ।" यह मिथ्या अहंकार है, अहंकार । इसलिए वर्तमान समय में... वर्तमान में नहीं, नित्य, हम इन सब वस्तुओं से घिरे रहते हैं । यह हमारे तत्वज्ञान की शुरुआत है: यह धरती कहाँ से अाई ? कहाँ से यह पानी आया ? अग्नि कहाँ से आई ? यह स्वाभाविक जिज्ञासा है । आकाश कहाँ से आया ? सितारे कैसे स्थित हैं, कई लाख और करोड़ ? तो यह बुद्धिमान व्यक्ति की जिज्ञासाएँ है । यही तत्त्वज्ञान संबंधी जीवन की शुरुआत है । अतः जो मनुष्य विचारशील है, धीरे-धीरे वे परम भगवान, श्री कृष्ण को समझने के लिए जिज्ञासु हैं ।
तो कृष्ण वहाँ हैं और कृष्ण अपने विषय में समझा रहे हैं, "मैं ऐसा हूँ ।" लेकिन दुर्भाग्य से हम कृष्ण को समझ नहीं पाएँगे, लेकिन हम अटकलें लगाते हैं कि भगवान क्या है । यह हमारा रोग है । कृष्ण अपने विषय में समझा रहे हैं, स्वयं भगवान अपने विषय में समझा रहे हैं । हम यह कथन स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन या तो हम अस्वीकार करेंगे या हम भगवान को स्वीकार करेंगे बिना बुद्धि के प्रयोग के और इसी तरह, इतनी सारी चीजें । यह हमारा रोग है । इसलिए पिछले श्लोक में यह समझाया गया है,
- मनुष्यानां सहस्रेषु
- कश्चिद् यतति सिद्धये
- यतताम् अपि सिद्धानाम्
- कश्चिन् माम् वेत्ति तत्वत:
- (भ गी ७।३) ।
कई लाखों और करोड़ों व्यक्तियों में से, वास्तव में वे समझने के लिए गंभीर हैं, "जीवन का उद्देश्य क्या है ? भगवान क्या है ? मेरे क्या संबंध है ..." कोई भी इच्छुक नहीं है । वैसे ही जैसे... स एव गो खर: (श्रीमद् भागवतम् १०.८४.१३) । हर कोई बिल्लियों और कुत्तों की तरह इस देहात्म जीवन की धारणा में रुचि रखता है । यही स्थिति है । अभी से नहीं, हमेशा से, यह भौतिक अवस्था है । लेकिन कोई, मनुष्यानां सहस्रेषु, लाखों में से, एक समझने की कोशिश करता है, अपने जीवन को परिपूर्ण बनाने के लिए । और इस तरह की पूर्णता से...
पूर्णता का अर्थ अपनी वास्तविक स्वाभाविक स्थिति को समझना है, कि वह यह भौतिक शरीर नहीं है, वह आत्मा, ब्रह्मन् है । यही पूर्णता है, ज्ञान की पूर्णता, ब्रह्म-ज्ञान है ।