HI/Prabhupada 0136 - ज्ञान अाता है परम्परा उत्तराधिकार द्वारा



Lecture with Translator -- Sanand, December 25, 1975

तो भगवान का अर्थ है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । परम सत्य का तीन प्रकार से बोध होता है: ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान इति शब्दयते (श्रीमद्भागवतम् १.२.११) । परम सत्य, निर्विशेष ब्रह्मन् के रूप में अारंभ में अनुभव किए जा सकते हैं जो ज्ञानियों का उद्देश्य है, और अगला परमात्मा, जो योगियों का उद्देश्य है, और अंत में, परम के विषय में अंतिम शब्द व्यक्ति है, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । मुख्य परिणाम , पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, जैसे हम समझते हैं कि सूर्य ग्रह में वहाँ परम व्यक्ति या सूर्य-नारायण हैं, या सूर्य ग्रह के भीतर मुख्य व्यक्ति । उनका नाम भी भगवद्गीता में दिया गया है - विवस्वान् । भगवान चौथे अध्याय में कहते हैं, इमम् विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् : (भ गी ४.१)) "सबसे पहले मैंने यह विज्ञान, भगवद्गीता की यह योग प्रणाली , विवस्वान्, सूर्यदेव को समझाई ।" विवस्वान् मनवे प्राहु मनुर् इक्ष्वाकवे 'ब्रवीत् । और विवस्वान्, सूर्यदेव ने, मनु को उपदेश दिया और मनु ने अपने पुत्र को उपदेश दिया । इस तरह, गुरु-परम्परा के माध्यम से ज्ञान नीचे आता है । इसलिए जब हम ज्ञान की बात करते हैं, यह एक व्यक्ति से सीखा जाना चाहिए। तो भगवान, परम सत्य के बोध में अंतिम शब्द है । वे भगवद्गीता में कहते हैं ।

तो व्यासदेव का यहाँ विशेष रूप से अर्थ है, भगवान उवाच । वे कृष्ण उवाच नहीं कहते हैं, क्योंकि कभी-कभी कृष्ण मूर्खों द्वारा गलत समझे जाते हैं । तो भगवान उवाच, यह शब्द, का अर्थ है कि वह जो कुछ भी कहते हैं , उसमें कोई दोष या कमियाँ नहीं हैं । हम जैसे साधारण व्यक्ति के लिए चार दोष हैं: भ्रम, प्रमाद विप्रलिप्सा, कर-नापाटव । तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण या अात्म-बोधित व्यक्ति में, कृष्ण के सेवक, जो कृष्ण को जानते हैं, उनके लिए कोई कमियाँ नहीं हैं । वे उत्तम हैं । इस कारण से कृष्ण निर्देश देते हैं,

तद् विद्धी प्रणिपातेन
परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति तद् ज्ञानं
ज्ञानिनस् तत्व दर्षिन:
(भ गी ४.३४)

जिसने वास्तव में सत्य का दर्शन या अनुभव किया है, आपको वहाँ से ज्ञान लेना होगा । तो हमें ऐसे व्यक्ति का अाश्रय लेना है । अन्यथा अगर हम किसी अटकलबाज़ों का अाश्रय लेते हैं, तो हम वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते । जो लोग अटकलबाज़ हैं, वे नहीं समझ सकते कि भगवान क्या है । इसलिए वे गलती करते हैं कि, "भगवान एेसे हैं," "भगवान वैसे हैं," "कोई भगवान नहीं है," "कोई रूप नहीं है ।" ये सब बकवास बातें प्रस्तावित की जा रही हैं, क्योंकि वे अपूर्ण हैं । इसलिए भगवान ने कहा, अवजानाति माम् मूढा मानुषिम् तनुं अाश्रिता: (भ गी ९.११) । क्योंकि वे हमारे लाभ हेतु मनुष्य के रूप में आते हैं, मूर्ख और दुष्ट उन्हें साधारण व्यक्ति के रूप में लेते हैं । अगर भगवान कहते हैं, अहम् बीज प्रद: पिता (भ गी १४।४) , "मैं बीज प्रदाता पिता हूँ ।"

तो हम, हम में से हर एक, हम जानते हैं कि मेरे पिता व्यक्ति हैं, उनके पिता व्यक्ति हैं, उनके पिता व्यक्ति हैं, और क्यों परम-व्यक्ति या परमपिता को निराकार होना चाहिए ? क्यों ? और इसलिए हमें भगवान, परम-व्यक्ति से सीखना है, पूर्ण ज्ञान। यह भगवद्गीता इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की ओर से पूर्ण ज्ञान है । हम इस भगवद्गीता में एक भी शब्द नहीं बदल सकते । यह मूर्खता है । तो हमारा यह कृष्णभावनामृत आंदोलन इस सिद्धांत का पालन कर रहा है । हम किसी भी मनगंढ़त चीज़ों का निर्माण नहीं करते । हम केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा दिए गए संदेश का वितरण करते हैं । और यह व्यवहारिक रूप से प्रभावी हो रहा है ।