HI/Prabhupada 0251 - गोपियॉ कृष्ण की शाश्वत संगी हैं



Lecture on BG 2.6 -- London, August 6, 1973

तो हमारी भगवद गीता की पूरी शिक्षा यह है कि: तम्हे अपने लिए कर्म नहीं करना चाहिए, तुम्हे बस कृष्ण के लिए कर्म करना चाहिए । तो कृष्ण के लिए लड़ना भी, या यहां तक ​​कि कृष्ण के लिए इससे भी अधीक घृणित कुछ करना ... जैसे गोपियों की तरह । गोपियॉ कृष्ण से मोहित थी | कृष्ण एक युवान लड़के थे, बहुत सुंदर, और गोपियॉ युवा लड़कियॉ थीं । यह बाहरी है ... वास्तव में, गोपियॉ कृष्ण की शाश्वत संगी हैं । अानन्द चिन्मय रस प्रतिभाविताभि: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) | वे कृष्ण का विस्तार हैं, कृष्ण की अानन्द शक्ति का विस्तार । वे कृष्ण के अानन्द के लिए हैं । वे साधारण महिलाए नहीं हैं । लेकिन अल्पज्ञता, सिर्फ हमें सिखाने के लिए कि किसी भी खतरे को मोल लेकर भी कैसे कृष्ण से प्यार करें ... इसलिए गोपियॉ, जब वे आधी रात को कृष्ण से आकर्षित हुई ... कृष्ण बांसुरी बजा रहे थे, और वे आकर्षित हो गई और उन्होंने घर छोड़ दिया । कुछ कैद थीं । उन्होंने अपना जीवन त्याग दिया । वे इतनी आकर्षित थीं ।

अब इस तरह का व्यवहार, अगर जवान लड़कियॉ ... वैदिक सभ्यता के अनुसार, वे पिता, पति या भाई के संरक्षण से बाहर नहीं जा सकती हैं । नहीं, वे नहीं जा सकतीं । खास तौर पर आधी रात को । तो यह वैदिक सिद्धांत के खिलाफ था । यह खुले तौर पर वेश्यावृत्ति का एक प्रकार है । लेकिन क्योंकि यह कृष्ण के लिए किया गया था, भगवान चैतन्य महाप्रभु, वे सिफारिश करते हैं, रम्या काचिद उपासना व्रज-वधुभि: कल्पिता "यह व्रज गोपियों से बेहतर पूजा की विधि कोई अौर नहीं है । व्रज-वधू । सबसे घृणित । एक जवान लड़की का पति का संरक्षण छोड़ना, पिता का और एक अन्य जवान लड़के के पास जाना । वैदिक संस्कृति के अनुसार, यह सबसे घृणित है । लेकिन क्योंकि, यह था, केन्द्र कृष्ण थे, यह पूजा के उच्चतम प्रकार के रूप में स्वीकार किया जाता है । यही कृष्ण भावनामृत है ।

हमें सीखना है कि कैसे केवल कृष्ण के लिए कार्य करें, कैसे केवल कृष्ण से प्रेम करें । तब हमारा जीवन सफल होगा । और मानव जीवन ... क्योंकि हम भी लाखों करोड़ों साल पहले वैकुणठ से नीचे आए हैं । अनादि कर्म-फले । अनादि का मतलब है सृजन से पहले । हम जीव, हम अनन्त हैं । यहां तक ​​कि जब लाखों और अरबों साल के बाद सृष्टिका विनाश हो जाएगा, जीव, वे ख़त्म नहीं होते हैं । न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ.गी. २.२०) । वे रहते हैं । तो जब यह पूरी लौकिक अभिव्यक्ति खतम हो जाएगी, जीव विष्णु के शरीर में रहेेंगे । फिर एक और रचना जब होगी, जब वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए फिर से बाहर आऍगे । वास्तविक इच्छा है कि कैसे वापस घर जाऍ, भगवद धाम । तो यह मौका दिया जाता है ।

तो अगर इस मौके का दुरुपयोग किया जाता है, यह जीवन, मनुष्य जीवन, यह बहुत, बहुत जोखिम भरा कार्य है । फिर से हमें जन्म और मृत्यु के चक्र को स्वीकार करना होगा । और इतना ही नहीं, अगर हम जीवन के मिशन को पूरा नहीं करते हैं, तो फिर से पूरी सृष्टि का विनाश होगा और हमें लाखों और अरबों सालों के लिए विष्णु के शरीर के भीतर रहना होगा । फिर से हमें आना होगा । तो इसलिए यह अनादि कर्म-फले कहा जाता है । अनादि का मतलब है "सृजन से पहले | " यह चला आ रहा है ।

और मूर्ख जीवों को सिखाने के लिए, कृष्ण व्यक्तिगत रूप से आते हैं । कृष्ण बहुत ज्यादा चिंतित है हमें घर वापस ले जाने के लिए, भगवद धाम । क्योंकि हम कृष्ण के अभिन्न अंग हैं । मान लो अगर तुम्हारा बेटा सड़क पर घूम रहा है, क्या तुम चिंतित नहीं हो, "ओह, वहाँ कुछ दुर्घटना हो सकती है, और बेचारा लड़का मर जाएगा ।" तो तुम जाते हो, पता लगाने का प्रयास करते हो । तो श्री कृष्ण की स्थिति ऐसी ही है । हम इस भौतिक दुनिया में बस पीड़ित है - एक जन्म के बाद दूसरे जन्ममें । दुखालयम अशाश्वतम (भ.गी. ८।१५) । यह जगह निरानंद है । लेकिन माया का भ्रम, हम जीवन की इस दयनीय हालत को खुशी के रूप में स्वीकार कर रहे हैं । इसे माया कहा जाता है । लेकिन यह है ... इस भोतिक दुनिया में कोई सुख नहीं है । सब कुछ दुख है । जितनी जल्दी हम समझ जाऍ कि सब कुछ इस भौतिक संसार में दुख ही है और जितनी जल्दी हम अपने अाप को तैयार करते हैं इस भौतिक संसार को छोड़ने के लिए और वापस घर जाने के लिए, वापस ... यह हमारी समझदारी है । अन्यथा, हम जो भी कर रहे हैं, हमें बस हार ही मिल रही है क्योंकि हम उद्देश्य को चूक रहे हैं ।

न ते विदु: स्वार्थ गतिम हि विष्णुम (श्रीमद भागवतम ७.५.३१) | दुराशया । हम हैं, आशावादी - जो कभी पूरा नहीं होगा - हम खुश होने के लिए यहां चीजों को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं, भगवद भावनामृत के बिना । यह कभी नहीं होगा ... न ते विदु: स्वार्थ गतिम हि विष्णुम दुराशया । दुराशया का मतलब है "उम्मीद जो कभी पूरा नहीं होगी ।"