HI/Prabhupada 0335 - प्रथम श्रेणी के योगी बननें के लिए शिक्षित
Lecture on BG 2.24 -- Hyderabad, November 28, 1972
एक ब्राह्मण, वह कृष्ण से प्रार्थना करता है: "मेरे प्रिय प्रभु, मैं अपनी इन्द्रियों का नौकर बन गया हूँ ।" यहाँ हर कोई अपनी इन्द्रियों का दास है । वे इन्द्रियों का आनंद लेना चाहते हैं । आनंद नहीं - वे इन्द्रियों की सेवा करना चाहते हैं । मेरी जीभ कहती है, "फलाना फलाना होटल में मुझे ले जअो और मुझे फलाना फलाना चिकन रस खिलाअो ।" मैं तुरंत जाता हूँ । आनंद लेने के लिए नहीं, लेकिन मेरी जीभ के आदेश का पालन करने के लिए ।
इसलिए तथाकथित आनंद के नाम पर, हम सभी इंद्रियों की सेवा कर रहे हैं । संस्कृत में इसे गोदास कहा जाता है । गो का मतलब है इन्द्रियाँ । तो जब तक तुम गोस्वामी नहीं बनते हो, तुम्हारा जीवन खराब है | गोस्वामी । तुम्हारी इन्द्रियाँ तुम पर हुक्म नहीं चला सकती हैं । तुम्हें अपनी इन्द्रियों पर हुक्म चलाना है । जैसे ही जीभ कहती है, "अब, तुम उस होटल में मुझे ले जाअो, या मुझे एक सिगरेट दो," अगर तुम कहते हो, "नहीं, कोई सिगरेट नहीं, कोई होटल नहीं, केवल कृष्ण-प्रसाद," तो तुम गोस्वामी हो । तो फिर तुम गोस्वामी हो । यह लक्षण है, सनातन । क्योंकि मैं कृष्ण का शाश्वत दास हूँ । तो यह सनातन धर्म कहा जाता है । यह हम अजामिल-उपाख्यान में वर्णन कर रहे हैं । इस चरण को प्राप्त किया जा सकता है । तपसा ब्रह्मचर्येन शमेन दमेन शोचेन त्यागेन यमेन नियमेन (श्रीमद् भागवतम् ६.१.१३) |
इसलिए पूरा वैदिक साहित्य इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए है । योग । योग इन्द्रिय-संयम । यही योग है । योग का मतलब कुछ जादू दिखाना नहीं है । यह प्रथम श्रेणी का जादू है । अगर तुम योग का अभ्यास कर रहे हो... मैंने इतने सारे तथाकथित योगियों को देखा है, लेकिन वे धूम्रपान करने के लिए भी अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं कर सकते हैं । तुम देखो । धूम्रपान और ऐसी बहुत सी बातें चल रही हैं । और फिर भी, वे योगी के रूप में माने जाते हैं । किस तरह का योगी? योगी का मतलब है जिसने अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित किया है । शमेन दमेन ब्रह्मचर्येन । यह है ... भगवद्गीता में यह सब समझाया गया है जहाँ योग प्रणाली वर्णित है। और पाँच हजार साल पहले, अर्जुन इस योग के बारे में सुन रहे थे, इंद्रियों को नियंत्रित करना । वे भी एक गृहस्थ थे, और राजनीतिज्ञ भी, क्योंकि वे शाही परिवार के थे । वे राज्य पर विजय पाने के लिए लड़ रहे थे ।
तो अर्जुन नें स्पष्ट रूप से कहा, "मेरे प्यारे कृष्ण, यह संभव नहीं है कि मैं एक योगी बनूँ क्योंकि यह बहुत ही मुश्किल काम है । तुम मुझे एकान्त स्थान में नीचे बैठने के लिए कह रहे हो, एक पवित्र स्थान पर, और सीधे होकर, बस मेरी नाक के बिंदु को देखना, अपनी नाक की, ऐसी बहुत सी बातें हैं... लेकिन यह मेरे लिए संभव नहीं है । " उन्होंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया । तो कृष्ण, सिर्फ अपने दोस्त और भक्त को प्रोत्साहित करने के लिए... वे समझ सकते थे कि अर्जुन निराश होते जा रहे हैं । वे स्पष्ट रूप से यह स्वीकार कर रहे हैं कि यह उनके लिए संभव नहीं है । दरअसल, वे एक राजनीतिज्ञ हैं । उनका योगी बनना कैसे संभव हो सकता है ?
लेकिन हमारे राजनेता, वे विज्ञापन कर रहे हैं कि वे योग अभ्यास कर रहे हैं । किस तरह का योग ? क्या वे अर्जुन से भी बढ़कर है ? इस गिरे हुए युग में ? पाँच हजार साल पहले, कितनी अनुकूल स्थिति थी । और अब, इस तरह की प्रतिकूल स्थिति में, बिगड़ी हालत में, तुम एक तथाकथित योगी बनना चाहते हो ? यह संभव नहीं है । कृते यद् ध्यायतो विष्णुम् (श्रीमद् भागवतम् १२.३.५२) । योग का मतलब है विष्णु पर ध्यान लगाना । यह सत्य युग में संभव था । वाल्मीकि की तरह । उन्होंने साठ हज़ार साल के लिए ध्यान लगाया, और सिद्ध हो गए । तो कौन साठ साल के लिए जीने वाला है ? तो यह संभव नहीं है । तो इसलिए कृष्ण, उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ... दरअसल, योग का उद्देश्य, उन्होंने अर्जुन को समझाया,
- योगिनाम् अपि सर्वेषाम्
- मद्-गतेनान्तर अात्मना
- श्रद्धावान् भजते यो माम
- स मे युक्ततमो मत:
- (भ.गी. ६.४७) ।
प्रथम श्रेणी का योगी । कौन ? योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मद्-गतेनान्तर अात्मना । जो हमेशा मेरे, कृष्ण के, बारे में सोच रहा है ।"
तो यह कृष्णभावनामृत आंदोलन लोगों को शिक्षित कर रहा है कि कैसे प्रथम श्रेणी के योगी बनें । कृष्ण के बारे में सोचें । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । यह फर्जी बात नहीं है । यह वास्तविक तथ्य है । तुम योगी बन सकते हो । तुम ब्रह्म बन सकते हो । ब्रह्मभूयाय कल्पते ।
- माम च यो अव्यभिचारेण
- भक्ति योगेन सेवते
- स गुणान् समतीत्यैतान्
- ब्रह्मभूयाय कल्पते
- (भ.गी. १४.२६)
तो जब तुम्हें अात्मबोध हो जाता है, आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति, ब्रह्म-भूत, (श्रीमद् भागवतम् ४.३०.२०) ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा (भ.गी. १८.५४), फिर क्या रह जाता है उसके लिए ? यही जीवन का अंतिम लक्ष्य है, अहम् ब्रह्मास्मि बनना । वैदिक साहित्य हमें सिखाता है कि, "यह मत सोचो कि तुम इस पदार्थ के बने हो । तुम ब्रह्म हो ।" कृष्ण पर-ब्रह्म हैं और हम अधीनस्थ ब्रह्म हैं । नित्य-कृष्ण-दास। हम सेवक ब्रह्म हैं । वे स्वामी ब्रह्म हैं । तो, बजाय यह समझने के कि मैं सेवक ब्रह्म हूँ, मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं स्वामी ब्रह्म हूँ । यह एक और भ्रम है । यह एक और भ्रम है ।