HI/Prabhupada 0577 - तथाकथित तत्वज्ञानी, वैज्ञानिक, सभी, इसलिए दुष्ट, मूर्ख । उन्हें अस्वीकार करो



Lecture on BG 2.19 -- London, August 25, 1973

जैसे कृष्ण सच-चिद-आनंद विग्रह है (ब्रह्मसंहिता ५.१), वे रूप हैं, दिव्य रूप, शाश्वत रूप, ज्ञान से भरा, अानंद से भरा, इसी तरह हम भी, हालांकि कण, एक ही गुणवत्ता । इसलिए यह कहा जाता है, न जायते । यह समस्या, इस दुष्ट सभ्यता, वे समझ नहीं सकते हैं - कि मैं शाश्वत हूँ, मैं इस जन्म और मृत्यु की हालत में डाल दिया गया हूँ । कोई बदमाश नहीं समझता है । तथाकथित तत्वज्ञानी, वैज्ञानिक, सभी, इसलिए दुष्ट, मूर्ख । उन्हें अस्वीकार करो । तुरंत उन्हें अस्वीकार करो । यह कठिन काम करना ।

वही: नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म (श्रीमद भागवतम ५.५.४) | जैसे पागल अादमी काम करता है । पागल आदमी के काम का मूल्य क्या है? अगर वह पूरे दिन और रात व्यस्त रहता है, मैं बहुत व्यस्त हूँ । तो अाप क्या हैं श्रीमान ? आप एक पागल आदमी हैं । अपने दिमाग फिरा है, पागल । तो अापके काम का मूल्य क्या है? लेकिन यह चल रहा है । तो कृष्ण भावनमृत, तुम कल्पना करो कि यह आंदोलन कितना महत्वपूर्ण है । यह मानव समाज के लिए सबसे अच्छा कल्याणकारी कार्य है । वे सब मूर्ख और दुष्ट हैं, और उन्हें कोई ज्ञान नहीं है, अपनी संवैधानिक स्थिति से अनभिज्ञ हैं, और वे अनावश्यक रूप से पूरे दिन और रात काम कर रहे हैं । इसलिए उन्हें कहा गया है, मूढ ।

मूढ का मतलब है गधा । गधा थोड़े घास के लिए धोबी के लिए दिन और रात काम करता है । घास हर जगह उपलब्ध है, लेकिन वह, फिर भी, वह सोचता है कि "अगर मैं धोबी के लिए काम नहीं करता, बहुत मुश्किल है, मुझे यह घास नहीं मिलेगी ।" इसे गधा कहा जाता है । इसलिए, जब कोई ज्ञान को विकसित करने के बाद बुद्धिमान हो जाता है... हम बुद्धिमान हो जाते हैं, धीरे-धीरे । सबसे पहले ब्रह्मचारी । फिर अगर कोई ब्रह्मचारी नहीं रह सकता है तो ठीक है, एक पत्नी को अपनाअो, ग्रहस्थ । फिर त्याग दो, वानप्रस्थ । फिर संन्यास ले लो । यही प्रक्रिया है । मूढ, वे इन्द्रिय संतुष्टि के लिए दिन और रात काम करेंगे । इसलिए, जीवन की एक निश्चित अवधि में, उस मूर्खता को छोड़ देना चाहिए और सन्यास लेना चाहिए । नहीं, खत्म । यही सन्यास है । अब जीवन का यह हिस्सा कृष्ण की सेवा के लिए पूरी तरह से होना चाहिए । वही असली सन्यास है ।

अनाश्रित: कर्म-फलम कार्यम कर्म करोति य:(भ.गी. ६.१) | कृष्ण की सेवा करना मेरा कर्तव्य है, मैं शाश्वत सेवक हूं... कार्यम । करना ही होगा, मुझे कृष्ण की सेवा करनी ही होगी । यही मेरी स्थिति है । यही सन्यास है । अनाश्रित: कर्म-फलम कार्यम कर्म करोति य: | कर्मी, वे इन्द्रिय संतुष्टि के लिए कुछ अच्छे परिणाम की उम्मीद कर रहे हैं । यही कर्मी है । और सन्यासी का मतलब... वे भी बहुत परिश्रम से काम कर रहे हैं, लेकिन इन्द्रिय संतुष्टि के लिए नहीं । कृष्ण की संतुष्टि के लिए । यही सन्यास है । यही सन्यास और कर्मी है । कर्मी भी बहुत परिश्रम से काम कर रहा है, अौर परिश्रम अौर परिश्रम, लेकिन ये सब अमिष मद्य-सेवा के लिए ।

अामिष मद्य सेवा । व्यवाय, केवल यौन जीवन के लिए, मांस खाना, और नशा । और एक भक्त उसी तरह से काम करता है, कठिन परिश्रम, लेकिन कृष्ण की संतुष्टि के लिए । यह अंतर है । और अगर तुम, यह एक जीवन समर्पित करो, इस तरह, कोई अौर इन्द्रिय संतुष्टि नहीं, बस कृष्ण के लिए, फिर तुम इस स्थिति पर आते हो, न जायते, कोई मृत्यु नहीं, कोई जन्म नहीं । क्योंकि तुम्हारी स्थिति है न जायते न... वही तुम्हारी वास्तविक स्थिति है । लेकिन क्योंकि तुम अज्ञान में हो, प्रमत्त:, तुम पागल हो गए हो, तुम पागल हो गए हो; इसलिए तुमने इन्द्रिय संतुष्टि की इस प्रक्रिया को अपनाया है । इसलिए तुम एक भौतिक शरीर में उलझ गए हो, और शरीर बदल रहा है । यही जन्म और मृत्यु कहा जाता है ।