HI/Prabhupada 0964 - जब कृष्ण इस ग्रह पर विद्यमान थे, वे गोलोक वृन्दावन में अनुपस्थित थे । नहीं: Difference between revisions
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जैसे इस ब्रह्मांड में सर्वोच्च ग्रह है ब्रह्मलोक, इसी तरह, आध्यात्मिक जगत में, सर्वोच्च ग्रह है जिसे गोलोक वृन्दावन कहा जाता है । यह श्री कृष्ण | जैसे इस ब्रह्मांड में सर्वोच्च ग्रह है ब्रह्मलोक, इसी तरह, आध्यात्मिक जगत में, सर्वोच्च ग्रह है जिसे गोलोक वृन्दावन कहा जाता है । यह श्री कृष्ण का धाम है। श्री कृष्ण वहाँ हैं । लेकिन वे अपनी विभिन्न प्रकार की शक्तियों द्वारा स्वयं का विस्तार कर सकते हैं और अपने विभिन्न प्रकार के अवतार द्वारा । इसका यह मतलब नहीं है कि जब श्री कृष्ण इस ग्रह पर विद्यमान थे, कृष्ण गोलोक वृन्दावन में अनुपस्थित थे । नहीं । ऐसा नहीं है । जैसे मैं अब यहाँ मौजूद हूँ, मैं अपने घर में अनुपस्थित हूँ । श्री कृष्ण ऐसे नहीं हैं । | ||
श्री कृष्ण हर जगह मौजूद हो सकते हैं ; उसी समय, वे अपने धाम में रह सकते हैं । यही ब्रह्म-संहिता में वर्णित है: गोलोक एव निवसति अखिलात्म भूत: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) । हालांकि, वे अपने धाम में हैं, जो गोलोक वृन्दावन के रूप में जाना जाता है, वे स्वयं का विस्तार कर सकते हैं... सर्वत्र । और वास्तव में उन्होंने यह किया । तो हमें पता होना चाहिए कि उन्होंने अपना विस्तार कैसे किया, किस तरह से वे हमारे संपर्क में हैं । यही विज्ञान है । भगवद गीता में, ये बातें समझाई गई हैं । | |||
लेकिन श्री कृष्ण दूषित नहीं हैं । उदाहरण है, जैसे जेल में, कई कैदी हैं, लेकिन अगर राजा, या राजा का कोई प्रतिनिधि, मंत्री, जेल में जाता है, चीजों का निरीक्षण करने के लिए, कि कैसे सब कुछ चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि राजा या उसका मंत्री भी एक कैदी है । वह कैदी नहीं है । लेकिन हम, जीव, हम प्रकृति के इन गुणों में उलझ गए हैं । लेकिन श्री कृष्ण | तो श्री कृष्ण को यहाँ परम धाम के रूप में संबोधित किया गया है । हर किसी के अाश्रय । सब कुछ आश्रित है । श्री कृष्ण भी कहते हैं, मत स्थानि सर्व भूतानी [[HI/BG 9.4|भ.गी. ९.४]]) । सब कुछ, भौतिक अभिव्यक्ति, उन पर आश्रित है । न चाहम तेषु अवस्थित: - लेकिन मैं वहॉ नहीं हूँ । ये विरोधाभासी बातें । सब कुछ उन पर आश्रित है, लेकिन मैं वहाँ नहीं हूँ । लेकिन यह विरोधाभासी नहीं है । | ||
यह समझना बहुत सरल है । वैसे ही जैसे, सभी ग्रह, वे सूर्य के प्रकाश पर अाश्रित हैं । लेकिन सूर्य ग्रहों से दूर है । कई लाखों मील दूर... लेकिन सूर्य के प्रकाश पर अाश्रित होने का मतलब है सूर्य पर अाश्रित होना । यह एक तथ्य है । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, मत स्थानि सर्व भूतानि न चाहम तेषु अवस्थित: [[HI/BG 9.4|भ.गी. ९.४]]) | परं ब्रह्म परं धाम पवित्रम ([[HI/BG 10.12-13|भ.गी. १०.१२]])... पवित्रम मतलब पवित्र । जब हम इस भौतिक दुनिया में आते हैं... हम भी आत्मा हैं, ब्रह्म, परब्रह्म, कृष्ण, जितने अच्छे नहीं, लेकिन फिर भी, क्योंकि हम श्री कृष्ण के अंशस्वरूप हैं, हम भी ब्रह्म हैं । पवित्रम । पवित्रम मतलब शुद्ध । जैसे सोने का कण भी सोना है । अगर सोना शुद्ध है, तो कण भी शुद्ध है । श्री कृष्ण इस जगत में आते हैं, हम भी इस जगत में आते हैं । लेकिन हम दूषित हैं । लेकिन श्री कृष्ण दूषित नहीं हैं । | |||
उदाहरण है, जैसे जेल में, कई कैदी हैं, लेकिन अगर राजा, या राजा का कोई प्रतिनिधि, मंत्री, जेल में जाता है, चीजों का निरीक्षण करने के लिए, कि कैसे सब कुछ चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि राजा या उसका मंत्री भी एक कैदी है । वह कैदी नहीं है । लेकिन हम, जीव, हम प्रकृति के इन गुणों में उलझ गए हैं । लेकिन श्री कृष्ण भौतिक प्रकृति के इन गुणों में कभी नहीं उलझते । इसलिए उन्हें पवित्रम परमम कहा गया है । परम पवित्र । भवान, भवान, मतलब अाप । भगवन । और पुरुषम । पुरुषम मतलब उन्हे एक व्यक्ति के रूप में संबोधित किया गया है । | |||
भगवान कभी निराकार नहीं हैं । भगवान व्यक्ति हैं । एकदम तुम्हारी और मेरी तरह । अौर जब वे इस ग्रह पर अवतरित हुए, बिल्कुल एक मनुष्य की तरह, दो हाथ, दो पैर... मनुष्य की तरह चलना, मनुष्य की तरह बर्ताव करना, सब कुछ । तो भगवान पुरुषम हैं । पुरुषम का मतकब मनुष्य । मेरे कहने का मलतब है, पुरुष । महिला नहीं । पुरुष । पुरुष हुए बिना कोई भोक्ता नहीं बन सकता है । एक और स्थान पर यह कहा गया है कि श्री कृष्ण परम भोक्ता हैं । जैसे ही इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, भोक्ता, उन्हें पुरुष होना ही है, पुरुष । तो यह वर्णित है । अर्जुन उन्हें समझ गए । वे पुरषम हैं । परम पुरुषम, भगवान । एक और स्थान में श्री कृष्ण को पुरुषोत्तम के रूप में वर्णित किये गये है - पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ । तो पुरुषम शाश्वतम । शाश्वतम मतलब सनातन । | |||
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Latest revision as of 19:30, 17 September 2020
720000 - Lecture BG Introduction - Los Angeles
जैसे इस ब्रह्मांड में सर्वोच्च ग्रह है ब्रह्मलोक, इसी तरह, आध्यात्मिक जगत में, सर्वोच्च ग्रह है जिसे गोलोक वृन्दावन कहा जाता है । यह श्री कृष्ण का धाम है। श्री कृष्ण वहाँ हैं । लेकिन वे अपनी विभिन्न प्रकार की शक्तियों द्वारा स्वयं का विस्तार कर सकते हैं और अपने विभिन्न प्रकार के अवतार द्वारा । इसका यह मतलब नहीं है कि जब श्री कृष्ण इस ग्रह पर विद्यमान थे, कृष्ण गोलोक वृन्दावन में अनुपस्थित थे । नहीं । ऐसा नहीं है । जैसे मैं अब यहाँ मौजूद हूँ, मैं अपने घर में अनुपस्थित हूँ । श्री कृष्ण ऐसे नहीं हैं ।
श्री कृष्ण हर जगह मौजूद हो सकते हैं ; उसी समय, वे अपने धाम में रह सकते हैं । यही ब्रह्म-संहिता में वर्णित है: गोलोक एव निवसति अखिलात्म भूत: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) । हालांकि, वे अपने धाम में हैं, जो गोलोक वृन्दावन के रूप में जाना जाता है, वे स्वयं का विस्तार कर सकते हैं... सर्वत्र । और वास्तव में उन्होंने यह किया । तो हमें पता होना चाहिए कि उन्होंने अपना विस्तार कैसे किया, किस तरह से वे हमारे संपर्क में हैं । यही विज्ञान है । भगवद गीता में, ये बातें समझाई गई हैं ।
तो श्री कृष्ण को यहाँ परम धाम के रूप में संबोधित किया गया है । हर किसी के अाश्रय । सब कुछ आश्रित है । श्री कृष्ण भी कहते हैं, मत स्थानि सर्व भूतानी भ.गी. ९.४) । सब कुछ, भौतिक अभिव्यक्ति, उन पर आश्रित है । न चाहम तेषु अवस्थित: - लेकिन मैं वहॉ नहीं हूँ । ये विरोधाभासी बातें । सब कुछ उन पर आश्रित है, लेकिन मैं वहाँ नहीं हूँ । लेकिन यह विरोधाभासी नहीं है ।
यह समझना बहुत सरल है । वैसे ही जैसे, सभी ग्रह, वे सूर्य के प्रकाश पर अाश्रित हैं । लेकिन सूर्य ग्रहों से दूर है । कई लाखों मील दूर... लेकिन सूर्य के प्रकाश पर अाश्रित होने का मतलब है सूर्य पर अाश्रित होना । यह एक तथ्य है । इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, मत स्थानि सर्व भूतानि न चाहम तेषु अवस्थित: भ.गी. ९.४) | परं ब्रह्म परं धाम पवित्रम (भ.गी. १०.१२)... पवित्रम मतलब पवित्र । जब हम इस भौतिक दुनिया में आते हैं... हम भी आत्मा हैं, ब्रह्म, परब्रह्म, कृष्ण, जितने अच्छे नहीं, लेकिन फिर भी, क्योंकि हम श्री कृष्ण के अंशस्वरूप हैं, हम भी ब्रह्म हैं । पवित्रम । पवित्रम मतलब शुद्ध । जैसे सोने का कण भी सोना है । अगर सोना शुद्ध है, तो कण भी शुद्ध है । श्री कृष्ण इस जगत में आते हैं, हम भी इस जगत में आते हैं । लेकिन हम दूषित हैं । लेकिन श्री कृष्ण दूषित नहीं हैं ।
उदाहरण है, जैसे जेल में, कई कैदी हैं, लेकिन अगर राजा, या राजा का कोई प्रतिनिधि, मंत्री, जेल में जाता है, चीजों का निरीक्षण करने के लिए, कि कैसे सब कुछ चल रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि राजा या उसका मंत्री भी एक कैदी है । वह कैदी नहीं है । लेकिन हम, जीव, हम प्रकृति के इन गुणों में उलझ गए हैं । लेकिन श्री कृष्ण भौतिक प्रकृति के इन गुणों में कभी नहीं उलझते । इसलिए उन्हें पवित्रम परमम कहा गया है । परम पवित्र । भवान, भवान, मतलब अाप । भगवन । और पुरुषम । पुरुषम मतलब उन्हे एक व्यक्ति के रूप में संबोधित किया गया है ।
भगवान कभी निराकार नहीं हैं । भगवान व्यक्ति हैं । एकदम तुम्हारी और मेरी तरह । अौर जब वे इस ग्रह पर अवतरित हुए, बिल्कुल एक मनुष्य की तरह, दो हाथ, दो पैर... मनुष्य की तरह चलना, मनुष्य की तरह बर्ताव करना, सब कुछ । तो भगवान पुरुषम हैं । पुरुषम का मतकब मनुष्य । मेरे कहने का मलतब है, पुरुष । महिला नहीं । पुरुष । पुरुष हुए बिना कोई भोक्ता नहीं बन सकता है । एक और स्थान पर यह कहा गया है कि श्री कृष्ण परम भोक्ता हैं । जैसे ही इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, भोक्ता, उन्हें पुरुष होना ही है, पुरुष । तो यह वर्णित है । अर्जुन उन्हें समझ गए । वे पुरषम हैं । परम पुरुषम, भगवान । एक और स्थान में श्री कृष्ण को पुरुषोत्तम के रूप में वर्णित किये गये है - पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ । तो पुरुषम शाश्वतम । शाश्वतम मतलब सनातन ।