HI/Prabhupada 0074 - आपको पशुओ को क्यों खाना चाहिए: Difference between revisions

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भगवद्- गीता में सब कुछ वर्णित है । भगवद्-गीता नही कहता है की "तुम हवा खा कर जियो ।" नहीं । भगवद्- गीता कहता है, अन्नाद भवंति भूतनि (भ गी ।१४) । अन्न । अन्न का मतलब है, अनाज । अनाज की आवश्यकता होती है । अन्नाद भवंति भूतानि । भगवद् गीता कभी नही कहता की "तुम्हे खाने की ज़रूरत है. तुम केवल सांस लो और योगा का अभ्यास करो ।" नहीं । लेकिन हमें न तो ज़्यादा ना ही कम खाना चाहिए । ऐसा सुझाव दिया गाया है । युक्ताहार विहारस्य । हमें ना ज़्यादा न कम खाना चाहिए । और निराशी: । निराशी: का अर्थ है फिजूलखर्ची की कोई इच्छा न रखना । अब हम भौतिक संतुष्टि को चाहते है ज़्यादा और ज़्यादा । इसकी अावश्यक्ता नहीं है । अगर तुम्हे जीवन का पूर्णता चाहिए, तो उसे तपस्या कहते हैं । हर किसी को इच्छा होती है, परंतु उसे बिना वजह इच्छा नही करनी चाहिए । हर किसी को खाने का अधिकार है, जानवरों को भी । हर किसी को यह अधिकार है । लेकिन क्योंकि हम अधिक आनंद लेने के इच्छुक हैं, इसलिए हम जानवरों को ठीक से जीने का मौका नही देते हैं, बल्कि, हम जानवरों को खाने की कोशिश करते हैं । इसका ज़रूरत नही है । इसको निराशी: कहते हैं । तुम्हे जानवरों को क्यों खाना है ? यही असभ्य जीवन है । जब कोई भोजन न हो, जब वे आदिवासी जाति हैं, वे जानवरों को खा सकते है, क्योंकि उनको भोजन उगाना नही आता है । लेकिन जब मानव समाज सभ्य हो जाएगा, वह बहुत अच्छे खाद्य उगा सकता है, वह गायों को पाल सकता है, उन्हें खाने की बजाय । उसे दूध मिल सकता है, पर्याप्त दूध । हम दूध और अन्न से इतने सारे व्यन्जन बना सकते हैं । तो हमें बिना मतलब के ज़्यादा इच्छा नही करनी चाहिए । फिर यहाँ कहा गया है, कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषं किल्बिषं का अर्थ है पापी जीवन का नतीजा । किल्बिषं । तो अगर हम ज़रूरत से ज़्यादा इच्छा नही करते हैं, तो फिर हम फेसते नहीं हैं, पाप कर्मों में शामिल नहीं होते हैं, कुर्वन् अपि, हालांकी वह कर्म करता है । जब तुम कर्म करते हो, जाने या अंजाने में, तुम्हे कुछ कर्म करना पडता है जो पुण्य कर्म नहीं है, यहॉ तक की पाप भी, लेकिन अगर तुम केवल अच्छी तरह से जीना चाहते हो, तब कुर्वन् नप्नोति किल्बिषं । हमारा जीवन बिना पाप की प्रतिक्रिया के होना चाहिए । अन्यथा हमें भुगंता पढ़ेगा । लकिन वे विश्वास नही करते हैं, हालांकि वे इतने घृणित जीवन देखते हैं । कहॉ से अाते हैं ये ८४००००० जीव ? बहुत सारे जीव घृणित हालत मैं रहते हैं । बेशक, जानवर या प्राणी यह नही जानता है, लेकिन हम इंसान, हमें पता होना चाहिए की यह जीवन घृणित क्यों है । यह माया का भ्रम है । चाहे कोई, जैसे..... एक सुअर बहुत गंदी हालत में रह रहा है, मल ख़ाता है, और फिर भी सोचता है कि वह बहुत खुश है अौर इसलिए मोटा हो रहा है । जब कोई खुशी महसूस करता है, "मैं बहुत खुश हूँ", वह मोटा हो जाता है । तो तुम पाअोगे ये सुअर, वे बहुत मोटे हैं, लेकिन वे क्या खाते हैं ? वी मल खाते हैं और गंदी जगह मे रहते हैं । लेकिन वे सोचते हैं "हम बहुत खुश हैं ।" यही माया का भ्रम है । जो कोई भी जीवन की घृणित हालत मे रह रहा है, माया, भ्रम से, वह सोचता है की सब कुछ ठीक है, और वह अच्छी तरह से रह रहा है । लेकिन जो कोई उँचे स्तर पर है, वह देखता है कि वह घृणित हालत मे रह रहा है । तो यह माया है, लेकिन ज्ञान और अच्छे संग से, शस्त्र, गुरु, और साधुओं से शिक्षा लेकर, हमें जीवन का मूल्य समझना चाहिए, और ऐसे जीना चाहिए । तो यह कृष्ण ने आदेश दिया है, की निराशी: आदमी को अनावश्यक इच्छुक नहीं होना चाहिए, अपने जीवन की आवश्यकता से ज़्यादा । इसी को निराशी: कहते हैं । निराशी: । एक दूसरा अर्थ है की किसी भौतिक आनंद का ज़्यादा शौक नही होना । और यह तभी संभव है जब उसे पूरी तरह से ज्ञान हो की "मैं यह शरीर नही हूँ । मैं आत्मा हूँ । मेरी ज़रूरत है कि कैसे आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ जा सकता है ।" तभी वह निराशी: बन सकता है । ये सब तपस्या के अंग हैं । लोग अब भूल गए हैं । वे तपस्या का अर्थ भी नही जानते हैं । लेकिन मानव जीवन इसी उद्देश्य के लिए है । तपो दिव्यं पुत्रका येन शुद्धयेत सत्वं येन ब्रह्म सौख्यं अनन्तं (श्री भ ५।५।१) । ये शास्त्र के निर्देश हैं । मानव जीवन तपस्या के लिए है । और तपस्या ... इसलिए वैदिक जीवन में जीवन की शुरुआत में तपस्या, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारी । एक छात्र को ब्रह्मचर्य के अभ्यास के लिए गुरुकुल भेजा जाता है । यह तपस्या है, आरामदायक जीवन नहीं । फर्श पर लेटना, गुरु के लिए भीख माँगने के लिए घर से घर जाना । लेकिन वे थकते नहीं हैं । क्योंकि वे बालक हैं, अगर उन्हे प्रशिक्षित किया जाए तपस्या में, वे अभ्यास करने लगते हैं । वे हर महिला को "माँ" बुलाते हैं, "माँ, मुझे बीक्षा दीजिए ।" और फिर वे गुरु के घर वापिस जाते हैं । सब कुछ गुरु का होता है । यही ब्रह्मचारी जीवन है । यही तपस्या है । तपो दिव्यं (श्री भ ५।५।१) । वही वैदिक सभ्यता है, कि बच्चों को जीवन के शुरुआत से ही तपस्या और ब्रह्मचर्य में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचारी किसी युवती को नही देख सकता है । अगर गुरु की धरम पत्नी युवती हो, वह गुरु की पत्नी के पास नहीं जा सकता है । ये प्रतिबंध हैं । अब यह ब्रह्मचर्य कहाँ गया ? कोई ब्रह्मचारी नहीं है । यह कली युग है । कोई तपस्या नही है ।
भगवद्-गीता में सब कुछ वर्णित है । भगवद्-गीता नहीं कहता है कि "तुम हवा खा कर जियो ।" नहीं । भगवद्-गीता कहता है, अन्नाद भवंति भूतनि ([[HI/BG 3.14|भ गी ३.१४ ]]) । अन्न । अन्न का अर्थ है अनाज । अनाज की आवश्यकता होती है । अन्नाद भवंति भूतानि । भगवद्-गीता कभी नहीं कहता है कि "तुम्हे खाने की ज़रूरत नहीं है तुम केवल हवा खाअो और योगा का अभ्यास करो ।" नहीं । लेकिन हमें न तो ज़्यादा ना ही कम खाना चाहिए । ऐसा सुझाव दिया गाया है । युक्ताहार विहारस्य ([[HI/BG 6.17|भ गी ६.१७ ]]) । हमें ना ज़्यादा न कम खाना चाहिए ।
 
और निराशी: ([[HI/BG 4.21|भ गी ४.२१ ]]) । निराशी: का अर्थ है फिजूलखर्ची की कोई इच्छा न रखना । अब हम भौतिक संतुष्टि को चाहते है ज़्यादा और ज़्यादा । इसकी अावश्यक्ता नहीं है । अगर तुम्हे जीवन की पूर्णता चाहिए, तो उसे तपस्या कहते हैं । हर किसी को इच्छा होती है, परंतु उसे अनावश्यक इच्छा नही करनी चाहिए । हर किसी को खाने का अधिकार है, जानवरों को भी । हर किसी को यह अधिकार है । लेकिन क्योंकि हम अधिक भोग करने के इच्छुक हैं, इसलिए हम जानवरों को ठीक से जीने का मौका नही देते हैं, बल्कि, हम जानवरों को खाने की कोशिश करते हैं । इसका ज़रूरत नही है । इसको निराशी: कहते हैं । तुम्हे जानवरों को क्यों खाना है ? यह असभ्य जीवन है । जब कोई भोजन न हो, जब वे आदिवासी जाति के हैं, वे जानवरों को खा सकते हैं, क्योंकि उनको भोजन उगाना नही आता है । लेकिन जब मानव समाज सभ्य हो जाता है, वह बहुत अच्छे खाद्य उगा सकता है, वह गायों को पाल सकता है, उन्हें खाने की बजाय । उसे दूध मिल सकता है, पर्याप्त दूध । हम दूध और अन्न से इतने सारे व्यन्जन बना सकते हैं ।
 
तो हमें बिना मतलब के ज़्यादा इच्छा नहीं करनी चाहिए । फिर यहाँ कहा गया है, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ([[HI/BG 4.21|भ गी ४.२१ ]]) किल्बिषम् का अर्थ है पापी जीवन का नतीजा । किल्बिषम् । तो अगर हम ज़रूरत से ज़्यादा इच्छा नहीं करते हैं, तो फिर हम फॅसते नहीं हैं, पाप कर्मों में, कुर्वनपि, हालांकी वह कर्म करता है । जब तुम कर्म करते हो, जाने या अंजाने में, तुम्हे कुछ कर्म करना पडता है जो पुण्य कर्म नहीं है, यहॉ तक की पाप भी, लेकिन अगर तुम केवल अच्छी तरह से जीना चाहते हो, तब कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । हमारा जीवन पाप रूपी फल से रहित होना चाहिए । अन्यथा हमें भुगतना पडेगा ।  
 
लकिन वे विश्वास नही करते हैं, हालांकि वे इतने अत्यन्त गर्हित जीवन देखते हैं । कहॉ से अाती हैं ये ८४,००,००० जीव-योनियॉ ? बहुत सारे जीव है जो अत्यन्त गर्हित हालत में जीते हैं । बेशक, जानवर या प्राणी यह नही जानता है, लेकिन हम मनुष्य, हमें पता होना चाहिए की यह अत्यन्त गर्हित जीवन क्यों है । यह माया का भ्रम है । चाहे कोई, जैसे..... एक सुअर बहुत गंदी हालत में रह रहा है, मल ख़ाता है, और फिर भी सोचता है कि वह बहुत सुखी है अौर इसलिए मोटा हो रहा है । जब कोई सुख महसूस करता है, "मैं बहुत खुश हूँ", वह मोटा हो जाता है । तो तुम पाअोगे ये सुअर, वे बहुत मोटे हैं, लेकिन वे क्या खाते हैं ? वे मल खाते हैं और गंदी जगह मे रहते हैं । लेकिन वे सोचते हैं कि "हम बहुत खुश हैं ।" यही माया का भ्रम है । जो कोई भी जीवन की अत्यन्त गर्हित अवस्था मे रह रहा है, माया, भ्रम से, वह सोचता है की सब कुछ ठीक है, और वह अच्छी तरह से रह रहा है । लेकिन जो मनुष्य उँचे स्तर पर है, वह देखता है कि वह अतयन्त गर्हित अवस्था मे रह रहा है । तो यह भ्रम तो है, लेकिन ज्ञान से, अच्छे संग से, शस्त्र, गुरु, और साधुओं से शिक्षा लेकर, हमें जीवन का मूल्य समझना चाहिए, और ऐसे जीना चाहिए ।
 
तो यह कृष्ण ने आदेश दिया है, की निराशी: हमें अनावश्यक इच्छुक नहीं होना चाहिए, अपने जीवन की आवश्यकता से ज़्यादा । इसी को निराशी: कहते हैं । निराशी: । एक दूसरा अर्थ है की किसी भौतिक भोग का ज़्यादा शौक नहीं । और यह तभी संभव है जब उसे पूरी तरह से ज्ञान हो की "मैं यह शरीर नही हूँ । मैं आत्मा हूँ । मेरी ज़रूरत है कि कैसे आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढा जा सकता है ।" तभी वह निराशी: बन सकता है । ये सब तपस्या के अंग हैं । लोग अब भूल गए हैं । तपस्या किसे कहते हैं वे जानते नहीं हैं । लेकिन मानव जीवन इसी उद्देश्य के लिए है । तपो दिव्यं पुत्रका येन शुद्धयेत सत्वं येन ब्रह्म सौख्यं अनन्तं ([[Vanisource:SB 5.5.1|श्रीमद भागवतम ५.५.१ ]]) । ये शास्त्र के निर्देश हैं । मानव जीवन तपस्या के लिए है ।
 
और तपस्या ... इसलिए वैदिक जीवन में जीवन की शुरुआत में है तपस्या, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारी । एक छात्र को ब्रह्मचर्य के अभ्यास के लिए गुरुकुल भेजा जाता है । यह तपस्या है, आरामदायक जीवन नहीं । फर्श पर लेटना, गुरु के लिए भीख माँगने के लिए घर से घर जाना । लेकिन वे थकते नहीं हैं । क्योंकि वे बालक हैं, अगर उन्हे प्रशिक्षित किया जाए तपस्या में, वे अभ्यास करने लगते हैं । वे हर महिला को "माँ" बुलाते हैं, "माँ, मुझे भिक्षा दीजिए ।" और फिर वे गुरु के घर वापिस अाते हैं । सब कुछ गुरु का होता है । यही ब्रह्मचारी जीवन है । यही तपस्या है । तपो दिव्यं ([[Vanisource:SB 5.5.1|श्रीमद भागवतम ५.५.१ ]]) । वही वैदिक सभ्यता है, कि बच्चों को जीवन के शुरुआत से ही तपस्या और ब्रह्मचर्य में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचारी किसी युवती को नहीं देख सकता है । अगर गुरु की धरम पत्नी युवती हो, वह गुरु की पत्नी के पास नहीं जा सकता है । ये प्रतिबंध हैं । अाजकल एसा ब्रह्मचर्य कहाँ है ? कोई ब्रह्मचारी नहीं है । यह कली-युग है । कोई तपस्या नहीं है ।  
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Latest revision as of 18:05, 17 September 2020



Lecture on BG 4.21 -- Bombay, April 10, 1974

भगवद्-गीता में सब कुछ वर्णित है । भगवद्-गीता नहीं कहता है कि "तुम हवा खा कर जियो ।" नहीं । भगवद्-गीता कहता है, अन्नाद भवंति भूतनि (भ गी ३.१४ ) । अन्न । अन्न का अर्थ है अनाज । अनाज की आवश्यकता होती है । अन्नाद भवंति भूतानि । भगवद्-गीता कभी नहीं कहता है कि "तुम्हे खाने की ज़रूरत नहीं है । तुम केवल हवा खाअो और योगा का अभ्यास करो ।" नहीं । लेकिन हमें न तो ज़्यादा ना ही कम खाना चाहिए । ऐसा सुझाव दिया गाया है । युक्ताहार विहारस्य (भ गी ६.१७ ) । हमें ना ज़्यादा न कम खाना चाहिए ।

और निराशी: (भ गी ४.२१ ) । निराशी: का अर्थ है फिजूलखर्ची की कोई इच्छा न रखना । अब हम भौतिक संतुष्टि को चाहते है ज़्यादा और ज़्यादा । इसकी अावश्यक्ता नहीं है । अगर तुम्हे जीवन की पूर्णता चाहिए, तो उसे तपस्या कहते हैं । हर किसी को इच्छा होती है, परंतु उसे अनावश्यक इच्छा नही करनी चाहिए । हर किसी को खाने का अधिकार है, जानवरों को भी । हर किसी को यह अधिकार है । लेकिन क्योंकि हम अधिक भोग करने के इच्छुक हैं, इसलिए हम जानवरों को ठीक से जीने का मौका नही देते हैं, बल्कि, हम जानवरों को खाने की कोशिश करते हैं । इसका ज़रूरत नही है । इसको निराशी: कहते हैं । तुम्हे जानवरों को क्यों खाना है ? यह असभ्य जीवन है । जब कोई भोजन न हो, जब वे आदिवासी जाति के हैं, वे जानवरों को खा सकते हैं, क्योंकि उनको भोजन उगाना नही आता है । लेकिन जब मानव समाज सभ्य हो जाता है, वह बहुत अच्छे खाद्य उगा सकता है, वह गायों को पाल सकता है, उन्हें खाने की बजाय । उसे दूध मिल सकता है, पर्याप्त दूध । हम दूध और अन्न से इतने सारे व्यन्जन बना सकते हैं ।

तो हमें बिना मतलब के ज़्यादा इच्छा नहीं करनी चाहिए । फिर यहाँ कहा गया है, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (भ गी ४.२१ ) । किल्बिषम् का अर्थ है पापी जीवन का नतीजा । किल्बिषम् । तो अगर हम ज़रूरत से ज़्यादा इच्छा नहीं करते हैं, तो फिर हम फॅसते नहीं हैं, पाप कर्मों में, कुर्वनपि, हालांकी वह कर्म करता है । जब तुम कर्म करते हो, जाने या अंजाने में, तुम्हे कुछ कर्म करना पडता है जो पुण्य कर्म नहीं है, यहॉ तक की पाप भी, लेकिन अगर तुम केवल अच्छी तरह से जीना चाहते हो, तब कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् । हमारा जीवन पाप रूपी फल से रहित होना चाहिए । अन्यथा हमें भुगतना पडेगा ।

लकिन वे विश्वास नही करते हैं, हालांकि वे इतने अत्यन्त गर्हित जीवन देखते हैं । कहॉ से अाती हैं ये ८४,००,००० जीव-योनियॉ ? बहुत सारे जीव है जो अत्यन्त गर्हित हालत में जीते हैं । बेशक, जानवर या प्राणी यह नही जानता है, लेकिन हम मनुष्य, हमें पता होना चाहिए की यह अत्यन्त गर्हित जीवन क्यों है । यह माया का भ्रम है । चाहे कोई, जैसे..... एक सुअर बहुत गंदी हालत में रह रहा है, मल ख़ाता है, और फिर भी सोचता है कि वह बहुत सुखी है अौर इसलिए मोटा हो रहा है । जब कोई सुख महसूस करता है, "मैं बहुत खुश हूँ", वह मोटा हो जाता है । तो तुम पाअोगे ये सुअर, वे बहुत मोटे हैं, लेकिन वे क्या खाते हैं ? वे मल खाते हैं और गंदी जगह मे रहते हैं । लेकिन वे सोचते हैं कि "हम बहुत खुश हैं ।" यही माया का भ्रम है । जो कोई भी जीवन की अत्यन्त गर्हित अवस्था मे रह रहा है, माया, भ्रम से, वह सोचता है की सब कुछ ठीक है, और वह अच्छी तरह से रह रहा है । लेकिन जो मनुष्य उँचे स्तर पर है, वह देखता है कि वह अतयन्त गर्हित अवस्था मे रह रहा है । तो यह भ्रम तो है, लेकिन ज्ञान से, अच्छे संग से, शस्त्र, गुरु, और साधुओं से शिक्षा लेकर, हमें जीवन का मूल्य समझना चाहिए, और ऐसे जीना चाहिए ।

तो यह कृष्ण ने आदेश दिया है, की निराशी: हमें अनावश्यक इच्छुक नहीं होना चाहिए, अपने जीवन की आवश्यकता से ज़्यादा । इसी को निराशी: कहते हैं । निराशी: । एक दूसरा अर्थ है की किसी भौतिक भोग का ज़्यादा शौक नहीं । और यह तभी संभव है जब उसे पूरी तरह से ज्ञान हो की "मैं यह शरीर नही हूँ । मैं आत्मा हूँ । मेरी ज़रूरत है कि कैसे आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढा जा सकता है ।" तभी वह निराशी: बन सकता है । ये सब तपस्या के अंग हैं । लोग अब भूल गए हैं । तपस्या किसे कहते हैं वे जानते नहीं हैं । लेकिन मानव जीवन इसी उद्देश्य के लिए है । तपो दिव्यं पुत्रका येन शुद्धयेत सत्वं येन ब्रह्म सौख्यं अनन्तं (श्रीमद भागवतम ५.५.१ ) । ये शास्त्र के निर्देश हैं । मानव जीवन तपस्या के लिए है ।

और तपस्या ... इसलिए वैदिक जीवन में जीवन की शुरुआत में है तपस्या, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारी । एक छात्र को ब्रह्मचर्य के अभ्यास के लिए गुरुकुल भेजा जाता है । यह तपस्या है, आरामदायक जीवन नहीं । फर्श पर लेटना, गुरु के लिए भीख माँगने के लिए घर से घर जाना । लेकिन वे थकते नहीं हैं । क्योंकि वे बालक हैं, अगर उन्हे प्रशिक्षित किया जाए तपस्या में, वे अभ्यास करने लगते हैं । वे हर महिला को "माँ" बुलाते हैं, "माँ, मुझे भिक्षा दीजिए ।" और फिर वे गुरु के घर वापिस अाते हैं । सब कुछ गुरु का होता है । यही ब्रह्मचारी जीवन है । यही तपस्या है । तपो दिव्यं (श्रीमद भागवतम ५.५.१ ) । वही वैदिक सभ्यता है, कि बच्चों को जीवन के शुरुआत से ही तपस्या और ब्रह्मचर्य में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचारी किसी युवती को नहीं देख सकता है । अगर गुरु की धरम पत्नी युवती हो, वह गुरु की पत्नी के पास नहीं जा सकता है । ये प्रतिबंध हैं । अाजकल एसा ब्रह्मचर्य कहाँ है ? कोई ब्रह्मचारी नहीं है । यह कली-युग है । कोई तपस्या नहीं है ।