HI/Prabhupada 0250 - श्री कृष्ण के लिए कार्य करो, भगवान के लिए काम करो, अपने निजी हित के लिए नहीं: Difference between revisions

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तो लड़ने की यह समस्या ... हमें यह समझना होगा कि लड़ने की प्रवृ्त्ति हर किसी में है । तुम इसे रोक नहीं सकते हो, तुम इसे रोक नहीं सकते । हम रोकने को नहीं कहते हैं । मायावादी दार्शनिक का कहना है कि "तुम इस बात को बंद करो ' लेकिन यह संभव नहीं है । तुम रोक नहीं सकते हो । क्योंकि तुम जीव हो, तुम्हारी यह सभी प्रवृत्तियाँ हैं । तुम इसे कैसे रोक सकते हो? लेकिन इसका ठीक से उपयोग किया जाना चाहिए । बस । लड़ने की प्रवृत्ति है तुममे । इसका उपयोग कैसे करें? हां । नरोत्तम दासा ठाकुर की सिफारिश है, क्रोध भक्त-द्वेशि-जने : "जो भगवान या भगवान के भक्तों से जलते हैं, तुम उन पर अपने गुस्से का उपयोग कर सकते हो ।" तुम उपयोग कर सकते हो । क्रोध का त्याग तुम नहीं कर सकते । हमारा काम है कि कैसे उपयोग करें । यही कृष्ण भावनामृत है । सब कुछ उपयोग किया जाना चाहिए । हम यह नहीं कहता हैं कि "तुम इसे बंद करो, बंद करो ।" नहीं । तुम ... कृष्ण कहते हैं, यत करोसि, यज जुहोसि, यद अश्नासि, यत तपस्यसि कुरुश्व तद मद-अर्पनम ([[Vanisource:BG 9.27|भ गी ९।२७]]) यत करोसि । कृष्ण नहीं कहते हैं कि "तुम एसा करो, तुम वैसा करो। " वे कहते हैं, " जो भी तुम करते हो, लेकिन परिणाम मेरे पास आना चाहिए ।" तो यहॉ स्थिति यह है कि अर्जुन को खुद के लिए नहीं लड़ना है , लेकिन वे केवल खुद के लिए सोच रहे हैं । वे कहते हैं, ते अवस्थित: प्रमुखे धार्तराश्ट्रा: यान एव हत्वा न जिजीविशामस ([[Vanisource:BG 2.6|भ गी २।६]]) "वे मेरे भाई हैं, रिश्तेदार । अगर वे मर जाते हैं ... हमें इच्छा नहीं है उन्हे मारने की । अब वे मेरे सामने हैं । मुझे उन्हें मारना है? " तो अभी भी वह अपने ही संतुष्टि के बारे में सोच रहा है । वह पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं - भौतिकवादी व्यक्ति, वे व्यक्तिगत संतुष्टि के बारे में सोचते हैं । तो यह त्याग दिया जाना चाहिए । व्यक्तिगत संतुष्टि नहीं, कृष्ण की संतुष्टि । यही कृष्ण भावनामृत है । तुम जो भी करते हो, कोई बात नहीं । तुम्हे परीक्षण करना चाहिए, कि क्या तुम कृष्ण के लिए कर रहे हो । वही तुम्हारी पूर्णता है । पूर्णता ही नहीं, तुम्हारे मानव जीवन के मिशन की पूर्णता है । यह मानव जीवन उस उद्देश्य के लिए है । क्योंकि मानव जीवन से कम, पशु जीवन में, वे प्रशिक्षित िकए जाते हैं, इन्द्रिय संतुष्टि की पूर्णता, व्यक्तिगत संतुष्टि । उनमें ऐसी कोई भावना नहीं है कि "अन्य जानवर भी ..." जब कुछ खाने की वस्तु है, एक कुत्ता, वह सोचता है, "मैं यह कैसे पा सकता हूँ ?" वह यह नहीं सोचता है कि अन्य कुत्ते इसे कैसे पाऍगे । यह पशु प्रवृति नहीं है । पशु प्रवृति का मतलब है अपने स्वयं की संतुष्टि । कोई सवाल ही नहीं है "मेरे दोस्त, मेरे परिवार के सदस्य ।" यहां तक ​​कि, वे अपने बच्चों के साथ भी बाँटते नहीं । तुमने देखा होगा । अगर कुछ खाद्य पदार्थ है, कुत्ते और कुत्ते के बच्चे, हर कोई अपना ही पक्ष लेने की कोशिश कर रहा है । यह जानवर है । तो जब यह बात श्री कृष्ण के लिए बदली जाती है, यही मानव जीवन है । जानवर जीवन के बीच यही अंतर है । तो यह भी बहुत मुश्किल है । इसलिए पूरी शिक्षा है, भगवद गीता में, कैसे लोगों को सिखाऍ, "श्री कृष्ण के लिए कार्य करो, भगवान के लिए काम करो, अपने निजी हित के लिए नहीं । नहीं तो फिर तुम उलझ जाअोगे ।" यज्ञार्थात कर्मण: अन्यत्र लोको अयम कर्म-बंधन: ([[Vanisource:BG 3.9|भ गी ३।९]]) तुम कुछ भी करते हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा, और तम्हे उस प्रतिक्रिया से आनंद या कष्ट होगा । कुछ भी तुम करो । अगर तुम कृष्ण के लिए करते हो, फिर प्रतिक्रिया नहीं होती है । यही तुम्हारी स्वतंत्रता है । योग: कर्मशू कौशलम ([[Vanisource:BG 2.50|भ गी २।५०]]) । यही भगवद गीता में कहा गया है । योग, जब तुम कृष्ण के साथ संपर्क में अाते हो, यही सफलता का राज है । और यह भौतिक दुनिया, काम करना ... अन्यथा, जो कुछ भी तुम कर रहे हो, जो कुछ काम तुम कर रहे हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा और तुम्हे आनंद या पीडा को भुगतना पड़ेगा
तो लड़ने की यह समस्या ... हमें यह समझना होगा कि लड़ने की प्रवृत्ति हर किसी में है । तुम इसे रोक नहीं सकते हो, तुम इसे रोक नहीं सकते । हम रोकने को नहीं कहते हैं । मायावादी दार्शनिक का कहना है कि "तुम इस बात को बंद करो ' लेकिन यह संभव नहीं है । तुम रोक नहीं सकते हो । क्योंकि तुम जीव हो, तुम्हारी यह सभी प्रवृत्तियाँ हैं । तुम इसे कैसे रोक सकते हो? लेकिन इसका ठीक से उपयोग किया जाना चाहिए । बस ।  


तो यहाँ फिर से, वही बात है । अर्जुन सोच रहा है, न चैतद विद्म: कतरन नो गरियो ([[Vanisource:BG 2.6|भ गी २।६]]) तो वे उलझन में हूँ, "कौन सा, कौने सा पक्ष गौरवशाली है? मैं लड़ूँ, या नहीं लडूँ? अगले श्लोकों में यह देखा जाएगा ... जब तुम इस तरह की उलझन में हो, "क्या करना है और क्या नहीं करना," तो सही दिशा पाने के लिए, तुम्हे आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना होगा । यही अगले श्लोक में कहा जाएगा । अर्जुन कहेंगे "मैं नहीं जानता । मैं अब हैरान हूँ । हालांकि मैं जानता हूँ कि क्षत्रिय के रूप में मेरा कर्तव्य है लडना, फिर भी मैं हिचकिचा रहा हूँ । मैं अपने कर्तव्य में हिचकिचा रहा हूँ । तो इसलिए मैं हैरान हूँ । तो कृष्ण, इसलिए मैं अापको समर्पण करता हूँ ।" पूर्व में वह सिर्फ दोस्त की तरह बात कर रहे थे । अब वह कृष्ण से सबक लेने के लिए तैयार हो गए
लड़ने की प्रवृत्ति है तुममे । इसका उपयोग कैसे करें? हां । नरोत्तम दास ठाकुर की सिफारिश है, क्रोध भक्त-द्वेशि-जने: "जो भगवान या भगवान के भक्तों से जलते हैं, तुम उन पर अपने गुस्से का उपयोग कर सकते हो ।" तुम उपयोग कर सकते हो । क्रोध का त्याग तुम नहीं कर सकते । हमारा काम है कि कैसे उपयोग करें । यही कृष्ण भावनामृत है । सब कुछ उपयोग किया जाना चाहिए । हम यह नहीं कहता हैं कि "तुम इसे बंद करो, बंद करो ।" नहीं ।
 
तुम ... कृष्ण कहते हैं, यत करोषि, यज जुहोसि, यद अश्नासि, यत तपस्यसि कुरुश्व तद मद-अर्पणम ([[HI/BG 9.27|भ.गी. ९.२७]]) | यत करोषि । कृष्ण नहीं कहते हैं कि "तुम एसा करो, तुम वैसा करो । " वे कहते हैं, " जो भी तुम करते हो, लेकिन परिणाम मेरे पास आना चाहिए ।" तो यहॉ स्थिति यह है कि अर्जुन को खुद के लिए नहीं लड़ना है , लेकिन वे केवल खुद के लिए सोच रहे हैं । वे कहते हैं, ते अवस्थित: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:, यान एव हत्वा न जिजीविशामस ([[HI/BG 2.6|भ.गी. २.६]]) "वे मेरे भाई हैं, रिश्तेदार । अगर वे मर जाते हैं ... हमें इच्छा नहीं है उन्हे मारने की । अब वे मेरे सामने हैं । मुझे उन्हें मारना है? "
 
तो अभी भी वह अपने ही संतुष्टि के बारे में सोच रहा है । वह पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं - भौतिकवादी व्यक्ति, वे व्यक्तिगत संतुष्टि के बारे में सोचते हैं । तो यह त्याग दिया जाना चाहिए । व्यक्तिगत संतुष्टि नहीं, कृष्ण की संतुष्टि । यही कृष्ण भावनामृत है । तुम जो भी करते हो, कोई बात नहीं । तुम्हे परीक्षण करना चाहिए, कि क्या तुम कृष्ण के लिए कर रहे हो । वही तुम्हारी पूर्णता है । पूर्णता ही नहीं, तुम्हारे मानव जीवन के मिशन की पूर्णता है । यह मानव जीवन उस उद्देश्य के लिए है । क्योंकि मानव जीवन से कम, पशु जीवन में, वे प्रशिक्षित किए जाते हैं,  इन्द्रिय संतुष्टि की पूर्णता, व्यक्तिगत संतुष्टि । उनमें ऐसी कोई भावना नहीं है कि "अन्य जानवर भी ..."
 
जब कुछ खाने की वस्तु है, एक कुत्ता, वह सोचता है, "मैं यह कैसे पा सकता हूँ ?" वह यह नहीं सोचता है कि अन्य कुत्ते इसे कैसे पाऍगे । यह पशु प्रवृति नहीं है । पशु प्रवृति का मतलब है अपने स्वयं की संतुष्टि । कोई सवाल ही नहीं है "मेरे दोस्त, मेरे परिवार के सदस्य ।" यहां तक ​​कि, वे अपने बच्चों के साथ भी बाँटते नहीं । तुमने देखा होगा । अगर कुछ खाद्य पदार्थ है, कुत्ते और कुत्ते के बच्चे, हर कोई अपना ही पक्ष लेने की कोशिश कर रहा है । यह जानवर है ।
 
तो जब यह बात श्री कृष्ण के लिए बदली जाती है,  यही मानव जीवन है । जानवर जीवन के बीच यही अंतर है । तो यह भी बहुत मुश्किल है । इसलिए पूरी शिक्षा है, भगवद गीता में, कैसे लोगों को सिखाऍ, "श्री कृष्ण के लिए कार्य करो, भगवान के लिए काम करो, अपने निजी हित के लिए नहीं । नहीं तो फिर तुम उलझ जाअोगे ।" यज्ञार्थात कर्मण: अन्यत्र लोको अयम कर्म-बंधन: ([[HI/BG 3.9|भ.गी. ३.९]]) | तुम कुछ भी करते हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा, और तम्हे उस प्रतिक्रिया से आनंद या कष्ट होगा । कुछ भी तुम करो । अगर तुम कृष्ण के लिए करते हो, फिर प्रतिक्रिया नहीं होती है । यही तुम्हारी स्वतंत्रता है ।
 
योग: कर्मसु कौशलम ([[HI/BG 2.50|भ.गी. २.५०]]) । यही भगवद गीता में कहा गया है । योग, जब तुम कृष्ण के साथ संपर्क में अाते हो, यही सफलता का राज़ है । और यह भौतिक दुनिया, काम करना ... अन्यथा, जो कुछ भी तुम कर रहे हो, जो कुछ काम तुम कर रहे हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा और तुम्हे आनंद या पीडा को भुगतना पड़ेगा । तो यहाँ फिर से, वही बात है ।  
 
अर्जुन सोच रहा है, न चैतद विद्म: कतरन नो गरियो ([[HI/BG 2.6|भ.गी. २.६]]) | तो वे उलझन में हूँ, "कौन सा, कौने सा पक्ष गौरवशाली है? मैं लड़ूँ, या नहीं लडूँ? अगले श्लोकों में यह देखा जाएगा ... जब तुम इस तरह की उलझन में हो, "क्या करना है और क्या नहीं करना," तो सही दिशा पाने के लिए, तुम्हे आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना होगा । यही अगले श्लोक में कहा जाएगा । अर्जुन कहेंगे "मैं नहीं जानता । मैं अब हैरान हूँ । हालांकि मैं जानता हूँ कि क्षत्रिय के रूप में मेरा कर्तव्य है लडना, फिर भी मैं हिचकिचा रहा हूँ । मैं अपने कर्तव्य में हिचकिचा रहा हूँ । तो इसलिए मैं हैरान हूँ । तो कृष्ण, इसलिए मैं अापको समर्पण करता हूँ ।" पहले वह सिर्फ दोस्त की तरह बात कर रहे थे । अब वह कृष्ण से शिक्षा लेने के लिए तैयार हो गया है ।  
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Latest revision as of 18:24, 17 September 2020



Lecture on BG 2.6 -- London, August 6, 1973

तो लड़ने की यह समस्या ... हमें यह समझना होगा कि लड़ने की प्रवृत्ति हर किसी में है । तुम इसे रोक नहीं सकते हो, तुम इसे रोक नहीं सकते । हम रोकने को नहीं कहते हैं । मायावादी दार्शनिक का कहना है कि "तुम इस बात को बंद करो ' लेकिन यह संभव नहीं है । तुम रोक नहीं सकते हो । क्योंकि तुम जीव हो, तुम्हारी यह सभी प्रवृत्तियाँ हैं । तुम इसे कैसे रोक सकते हो? लेकिन इसका ठीक से उपयोग किया जाना चाहिए । बस ।

लड़ने की प्रवृत्ति है तुममे । इसका उपयोग कैसे करें? हां । नरोत्तम दास ठाकुर की सिफारिश है, क्रोध भक्त-द्वेशि-जने: "जो भगवान या भगवान के भक्तों से जलते हैं, तुम उन पर अपने गुस्से का उपयोग कर सकते हो ।" तुम उपयोग कर सकते हो । क्रोध का त्याग तुम नहीं कर सकते । हमारा काम है कि कैसे उपयोग करें । यही कृष्ण भावनामृत है । सब कुछ उपयोग किया जाना चाहिए । हम यह नहीं कहता हैं कि "तुम इसे बंद करो, बंद करो ।" नहीं ।

तुम ... कृष्ण कहते हैं, यत करोषि, यज जुहोसि, यद अश्नासि, यत तपस्यसि कुरुश्व तद मद-अर्पणम (भ.गी. ९.२७) | यत करोषि । कृष्ण नहीं कहते हैं कि "तुम एसा करो, तुम वैसा करो । " वे कहते हैं, " जो भी तुम करते हो, लेकिन परिणाम मेरे पास आना चाहिए ।" तो यहॉ स्थिति यह है कि अर्जुन को खुद के लिए नहीं लड़ना है , लेकिन वे केवल खुद के लिए सोच रहे हैं । वे कहते हैं, ते अवस्थित: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:, यान एव हत्वा न जिजीविशामस (भ.गी. २.६) "वे मेरे भाई हैं, रिश्तेदार । अगर वे मर जाते हैं ... हमें इच्छा नहीं है उन्हे मारने की । अब वे मेरे सामने हैं । मुझे उन्हें मारना है? "

तो अभी भी वह अपने ही संतुष्टि के बारे में सोच रहा है । वह पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं - भौतिकवादी व्यक्ति, वे व्यक्तिगत संतुष्टि के बारे में सोचते हैं । तो यह त्याग दिया जाना चाहिए । व्यक्तिगत संतुष्टि नहीं, कृष्ण की संतुष्टि । यही कृष्ण भावनामृत है । तुम जो भी करते हो, कोई बात नहीं । तुम्हे परीक्षण करना चाहिए, कि क्या तुम कृष्ण के लिए कर रहे हो । वही तुम्हारी पूर्णता है । पूर्णता ही नहीं, तुम्हारे मानव जीवन के मिशन की पूर्णता है । यह मानव जीवन उस उद्देश्य के लिए है । क्योंकि मानव जीवन से कम, पशु जीवन में, वे प्रशिक्षित किए जाते हैं, इन्द्रिय संतुष्टि की पूर्णता, व्यक्तिगत संतुष्टि । उनमें ऐसी कोई भावना नहीं है कि "अन्य जानवर भी ..."

जब कुछ खाने की वस्तु है, एक कुत्ता, वह सोचता है, "मैं यह कैसे पा सकता हूँ ?" वह यह नहीं सोचता है कि अन्य कुत्ते इसे कैसे पाऍगे । यह पशु प्रवृति नहीं है । पशु प्रवृति का मतलब है अपने स्वयं की संतुष्टि । कोई सवाल ही नहीं है "मेरे दोस्त, मेरे परिवार के सदस्य ।" यहां तक ​​कि, वे अपने बच्चों के साथ भी बाँटते नहीं । तुमने देखा होगा । अगर कुछ खाद्य पदार्थ है, कुत्ते और कुत्ते के बच्चे, हर कोई अपना ही पक्ष लेने की कोशिश कर रहा है । यह जानवर है ।

तो जब यह बात श्री कृष्ण के लिए बदली जाती है, यही मानव जीवन है । जानवर जीवन के बीच यही अंतर है । तो यह भी बहुत मुश्किल है । इसलिए पूरी शिक्षा है, भगवद गीता में, कैसे लोगों को सिखाऍ, "श्री कृष्ण के लिए कार्य करो, भगवान के लिए काम करो, अपने निजी हित के लिए नहीं । नहीं तो फिर तुम उलझ जाअोगे ।" यज्ञार्थात कर्मण: अन्यत्र लोको अयम कर्म-बंधन: (भ.गी. ३.९) | तुम कुछ भी करते हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा, और तम्हे उस प्रतिक्रिया से आनंद या कष्ट होगा । कुछ भी तुम करो । अगर तुम कृष्ण के लिए करते हो, फिर प्रतिक्रिया नहीं होती है । यही तुम्हारी स्वतंत्रता है ।

योग: कर्मसु कौशलम (भ.गी. २.५०) । यही भगवद गीता में कहा गया है । योग, जब तुम कृष्ण के साथ संपर्क में अाते हो, यही सफलता का राज़ है । और यह भौतिक दुनिया, काम करना ... अन्यथा, जो कुछ भी तुम कर रहे हो, जो कुछ काम तुम कर रहे हो, यह कुछ प्रतिक्रिया का उत्पादन करेगा और तुम्हे आनंद या पीडा को भुगतना पड़ेगा । तो यहाँ फिर से, वही बात है ।

अर्जुन सोच रहा है, न चैतद विद्म: कतरन नो गरियो (भ.गी. २.६) | तो वे उलझन में हूँ, "कौन सा, कौने सा पक्ष गौरवशाली है? मैं लड़ूँ, या नहीं लडूँ? अगले श्लोकों में यह देखा जाएगा ... जब तुम इस तरह की उलझन में हो, "क्या करना है और क्या नहीं करना," तो सही दिशा पाने के लिए, तुम्हे आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना होगा । यही अगले श्लोक में कहा जाएगा । अर्जुन कहेंगे "मैं नहीं जानता । मैं अब हैरान हूँ । हालांकि मैं जानता हूँ कि क्षत्रिय के रूप में मेरा कर्तव्य है लडना, फिर भी मैं हिचकिचा रहा हूँ । मैं अपने कर्तव्य में हिचकिचा रहा हूँ । तो इसलिए मैं हैरान हूँ । तो कृष्ण, इसलिए मैं अापको समर्पण करता हूँ ।" पहले वह सिर्फ दोस्त की तरह बात कर रहे थे । अब वह कृष्ण से शिक्षा लेने के लिए तैयार हो गया है ।