HI/Prabhupada 0270 - तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ है: Difference between revisions

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प्रद्युम्न: अनुवाद, "अब मैं अपने कर्तव्य के बारे में उलझन में हूँ और कमजोरी की वजह से सभी मानसिक संतुलन खो दिया हूँ । इस हालत में, मैं आप से पूछ रहा हूँ कि स्पष्ट रूप से मुझे बताऍ कि मेरे लिए सबसे अच्छा क्या है । अब मैं आपका शिष्य हूँ, और एक आत्मा जो अापको समर्पित है । मुझे अादेश दें । "
प्रद्युम्न: अनुवाद, "अब मैं अपने कर्तव्य के बारे में उलझन में हूँ और कमजोरी की वजह से मेने पूरा मानसिक संतुलन खो दिया है । इस हालत में, मैं आप से पूछ रहा हूँ कि स्पष्ट रूप से मुझे बताऍ कि मेरे लिए सबसे अच्छा क्या है । अब मैं आपका शिष्य हूँ, और एक आत्मा जो अापको समर्पित है । मुझे अादेश दें । "  


प्रभुपाद: यह भगवद गीता का बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है । यह जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ है । कार्पण्य-दोश । कृपण, दोश का मतलब है गलती । जब कोई अपनी स्थिति के अनुसार कार्य नहीं करता है, यह गलती है । और वही कृपण कहा जाता है । तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ है, स्वभाव । यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: स्वभाव, प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ । यह एक सामान्य उदाहरण है, यह दिया जाता है कि, यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: एक ... आदत दूसरा स्वभाव है । जिसे आदत है, या जिसकी प्रकृति, विशेषता किसी तरह से, उसे बदलना बहुत मुश्किल है । उदाहरण दिया जाता है: श्वा यदि क्रियते राजा स: किम् न सो उपर्हनम अगर तुम एक कुत्ते को एक राजा बनाते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह जूते चाटना छोड देगा ? हाँ, कुत्ते की प्रकृति है जूते चाटने की । तो भले ही तुम उसे तैयार करो एक राजा की तरह और उसे एक सिंहासन पर बिठाअो, फिर भी, जैसे ही वह एक जूता देखेगा, वह कूदेगा और उसे चाटेगा । इसे स्वभाव कहा जाता है । कार्पण्य दोश ।
प्रभुपाद: यह भगवद गीता का बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है । यह जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ है । कार्पण्य-दोश । कृपण, दोश का मतलब है गलती । जब कोई अपनी स्थिति के अनुसार कार्य नहीं करता है, यह गलती है । और वही कृपण कहा जाता है । तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ है, स्वभाव । यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: | स्वभाव, प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ । यह एक सामान्य उदाहरण है, यह दिया जाता है कि, यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: | ए


तो पशु जीवन में, इस स्वभाव को बदलना संभव नहीं है, जिसे दिया जाता है भौतिक प्रकृति द्वारा प्रकृते: क्रियमाणानि ([[Vanisource:BG 3.27|भ गी ३।२७]]) । कारणम गुण-संगो अस्य, कारणम गुण संग: अस्य सद-असद-जन्म योनिशु ([[Vanisource:BG 13.22|भ गी १३।२२]]) क्यों? सभी जीव परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं । इसलिए मूल रूप से जीव का स्वभाव भगवान की तरह ही है । बस यह मात्रा का सवाल है । गुणवत्ता वही है । गुणवत्ता वही है । ममैवाम्शो जीव भुत: ([[Vanisource:BG 15.7|भ गी १५।७]]) । वही उदाहरण । अगर तुम समुद्र के पानी का एक बूंद लेते हो, गुणवत्ता, रासायनिक संरचना एक ही है । लेकिन मात्रा अलग है । यह एक बूंद है, और समुद्र विशाल सागर है । इसी तरह, हम वास्तव में कृष्ण की ही गुणवत्ता के हैं । हम अध्ययन कर सकते हैं । क्यों लोगों का कहना है की भगवान अवैयक्तिक हैं ? अगर मैं एक ही गुणवत्ता का हूँ, तो भगवान भी व्यक्ति हैं, वे कैसे अवैयक्तिक हो सकते हैं ? अगर, गुणात्मक, हम एक हैं, जो जैसे मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ, तो क्यों भगवान के व्यक्तित्व से इनकार किया जाना चाहिए ? यह एक अौर बकवास है । मायावादी दुष्ट, वे समझ नहीं सकते हैं भगवान की प्रकृति क्या है । बाइबिल में भी यह कहा गया है: "मनुष्य परमेश्वर के जैसा बनाया गया है ।" तुम भगवान की गुणवत्ता का अध्ययन कर सकते हो अपनी गुणवत्ता का अध्ययन करके , या किसी अौर की गुणवत्ता का । बस फर्क मात्रा का है । मेरी कुछ गुणवत्ता है, कुछ उत्पादक क्षमता । हम भी उत्पादन करते हैं, हर जीवात्मा कुछ उत्पादन कर रहा है । लेकिन उसके उत्पादन की भगवान के उत्पादन के साथ तुलना नहीं की जा सकती । यह अंतर है । हम एक फ्लाइंग मशीन का उत्पादन कर रहे हैं । हम बहुत ज्यादा गर्व ले रहे हैं कि : " अब हमने स्पूटनिक की खोज की है । यह चंद्रमा ग्रह पर जा रहा है ।" लेकिन वह पूर्ण नहीं है । यह वापस आता है । लेकिन भगवान नें इतने सारे उडते हुए ग्रह, लाखों और अरबों ग्रहों, बहुत भारी, भारी ग्रहों का उत्पादन किया है जैसे इस ग्रह की तरह जो इतने बड़े, बड़े पहाड़, समुद्र, उठा रहा है लेकिन अभी भी यह उड़ रहा है । यह एक कपास की तरह हवा में तैर रहा है । यह भगवान की शक्ति है । गाम अाविश्य ([[Vanisource:BG 15.13|भ गी १५।१३]]) भगवद गीता में, तुम पाअोगे : अहम् धारयामि-अोजसा । कौन इन सभी बड़े, बड़े ग्रहों को बनाए रखता है? हम गुरुत्वाकर्षण समझा रहे हैं । और शास्त्र में हम पाते हैं कि यह संकर्षण द्वारा उठाया जा रहा है ।
क ... आदत दूसरा स्वभाव है । जिसे आदत है, या जिसकी प्रकृति, विशेषता किसी तरह से, उसे बदलना बहुत मुश्किल है । उदाहरण दिया जाता है: श्वा यदि क्रियते राजा स: किम् न सो उपर्हनम | अगर तुम एक कुत्ते को एक राजा बनाते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह जूते चाटना छोड देगा ? हाँ, कुत्ते की प्रकृति है जूते चाटने की । तो भले ही तुम उसे तैयार करो एक राजा की तरह और उसे एक सिंहासन पर बिठाअो, फिर भी, जैसे ही वह एक जूता देखेगा, वह कूदेगा और उसे चाटेगा । इसे स्वभाव कहा जाता है । कार्पण्य दोश । तो पशु जीवन में, इस स्वभाव को बदलना संभव नहीं है, जिसे दिया जाता है भौतिक प्रकृति द्वारा |
 
प्रकृते: क्रियमाणानि ([[HI/BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) । कारणम गुण-संगो अस्य, कारणम गुण संग: अस्य सद-असद-जन्म योनिशु ([[HI/BG 13.22|भ.गी. १३.२२]]) | क्यों? सभी जीव परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं । इसलिए मूल रूप से जीव का स्वभाव भगवान की तरह ही है । बस यह मात्रा का सवाल है । गुणवत्ता वही है । गुणवत्ता वही है । ममैवांशो जीव भूत: ([[HI/BG 15.7|भ.गी. १५.७]]) । वही उदाहरण । अगर तुम समुद्र के पानी की एक बूंद लेते हो, गुणवत्ता, रासायणिक संरचना एक ही है । लेकिन मात्रा अलग है । यह एक बूंद है, और समुद्र विशाल सागर है ।  
 
इसी तरह, हम वास्तव में कृष्ण की ही गुणवत्ता के हैं । हम अध्ययन कर सकते हैं । क्यों लोगों का कहना है की भगवान निराकार हैं ? अगर मैं एक ही गुणवत्ता का हूँ, तो भगवान भी व्यक्ति हैं, वे कैसे निराकार हो सकते हैं ? अगर, गुणात्मक, हम एक हैं, जो जैसे मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ, तो क्यों भगवान के व्यक्तित्व से इनकार किया जाना चाहिए ? यह एक अौर बकवास है । मायावादी दुष्ट, वे समझ नहीं सकते हैं भगवान की प्रकृति क्या है । बाइबिल में भी यह कहा गया है: "मनुष्य परमेश्वर के जैसा बनाया गया है ।" तुम भगवान की गुणवत्ता का अध्ययन कर सकते हो अपनी गुणवत्ता का अध्ययन करके, या किसी अौर की गुणवत्ता का । बस फर्क मात्रा का है ।  
 
मेरी कुछ गुणवत्ता है, कुछ उत्पादक क्षमता । हम भी उत्पादन करते हैं, हर जीवात्मा कुछ उत्पादन कर रहा है । लेकिन उसके उत्पादन की भगवान के उत्पादन के साथ तुलना नहीं की जा सकती । यह अंतर है । हम एक उड़ने के मशीन का उत्पादन कर रहे हैं । हम बहुत ज्यादा गर्व ले रहे हैं कि: "अब हमने स्पूटनिक की खोज की है । यह चंद्र ग्रह पर जा रहा है ।" लेकिन वह पूर्ण नहीं है । यह वापस आता है । लेकिन भगवान नें इतने सारे उडते हुए ग्रह, लाखों और अरबों ग्रहों, बहुत भारी, भारी ग्रहों का उत्पादन किया है |
 
जैसे इस ग्रह की तरह जो इतने बड़े, बड़े पहाड़, समुद्र, उठा रहा है लेकिन अभी भी यह उड़ रहा है । यह एक कपास की तरह हवा में तैर रहा है । यह भगवान की शक्ति है । गाम अाविश्य ([[HI/BG 15.13|भ.गी. १५.१३]]) | भगवद गीता में, तुम पाअोगे : अहम् धारयामि-अोजसा । कौन इन सभी बड़े, बड़े ग्रहों को बनाए रखता है? हम गुरुत्वाकर्षण समझा रहे हैं । और शास्त्र में हम पाते हैं कि यह संकर्षण द्वारा उठाया जा रहा है ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on BG 2.7 -- London, August 7, 1973

प्रद्युम्न: अनुवाद, "अब मैं अपने कर्तव्य के बारे में उलझन में हूँ और कमजोरी की वजह से मेने पूरा मानसिक संतुलन खो दिया है । इस हालत में, मैं आप से पूछ रहा हूँ कि स्पष्ट रूप से मुझे बताऍ कि मेरे लिए सबसे अच्छा क्या है । अब मैं आपका शिष्य हूँ, और एक आत्मा जो अापको समर्पित है । मुझे अादेश दें । "

प्रभुपाद: यह भगवद गीता का बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है । यह जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ है । कार्पण्य-दोश । कृपण, दोश का मतलब है गलती । जब कोई अपनी स्थिति के अनुसार कार्य नहीं करता है, यह गलती है । और वही कृपण कहा जाता है । तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ है, स्वभाव । यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: | स्वभाव, प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ । यह एक सामान्य उदाहरण है, यह दिया जाता है कि, यस्य हि स्वभावस्य तस्यासो दुरतिक्रम: | ए

क ... आदत दूसरा स्वभाव है । जिसे आदत है, या जिसकी प्रकृति, विशेषता किसी तरह से, उसे बदलना बहुत मुश्किल है । उदाहरण दिया जाता है: श्वा यदि क्रियते राजा स: किम् न सो उपर्हनम | अगर तुम एक कुत्ते को एक राजा बनाते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह जूते चाटना छोड देगा ? हाँ, कुत्ते की प्रकृति है जूते चाटने की । तो भले ही तुम उसे तैयार करो एक राजा की तरह और उसे एक सिंहासन पर बिठाअो, फिर भी, जैसे ही वह एक जूता देखेगा, वह कूदेगा और उसे चाटेगा । इसे स्वभाव कहा जाता है । कार्पण्य दोश । तो पशु जीवन में, इस स्वभाव को बदलना संभव नहीं है, जिसे दिया जाता है भौतिक प्रकृति द्वारा |

प्रकृते: क्रियमाणानि (भ.गी. ३.२७) । कारणम गुण-संगो अस्य, कारणम गुण संग: अस्य सद-असद-जन्म योनिशु (भ.गी. १३.२२) | क्यों? सभी जीव परमेश्वर के अभिन्न अंग हैं । इसलिए मूल रूप से जीव का स्वभाव भगवान की तरह ही है । बस यह मात्रा का सवाल है । गुणवत्ता वही है । गुणवत्ता वही है । ममैवांशो जीव भूत: (भ.गी. १५.७) । वही उदाहरण । अगर तुम समुद्र के पानी की एक बूंद लेते हो, गुणवत्ता, रासायणिक संरचना एक ही है । लेकिन मात्रा अलग है । यह एक बूंद है, और समुद्र विशाल सागर है ।

इसी तरह, हम वास्तव में कृष्ण की ही गुणवत्ता के हैं । हम अध्ययन कर सकते हैं । क्यों लोगों का कहना है की भगवान निराकार हैं ? अगर मैं एक ही गुणवत्ता का हूँ, तो भगवान भी व्यक्ति हैं, वे कैसे निराकार हो सकते हैं ? अगर, गुणात्मक, हम एक हैं, जो जैसे मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ, तो क्यों भगवान के व्यक्तित्व से इनकार किया जाना चाहिए ? यह एक अौर बकवास है । मायावादी दुष्ट, वे समझ नहीं सकते हैं भगवान की प्रकृति क्या है । बाइबिल में भी यह कहा गया है: "मनुष्य परमेश्वर के जैसा बनाया गया है ।" तुम भगवान की गुणवत्ता का अध्ययन कर सकते हो अपनी गुणवत्ता का अध्ययन करके, या किसी अौर की गुणवत्ता का । बस फर्क मात्रा का है ।

मेरी कुछ गुणवत्ता है, कुछ उत्पादक क्षमता । हम भी उत्पादन करते हैं, हर जीवात्मा कुछ उत्पादन कर रहा है । लेकिन उसके उत्पादन की भगवान के उत्पादन के साथ तुलना नहीं की जा सकती । यह अंतर है । हम एक उड़ने के मशीन का उत्पादन कर रहे हैं । हम बहुत ज्यादा गर्व ले रहे हैं कि: "अब हमने स्पूटनिक की खोज की है । यह चंद्र ग्रह पर जा रहा है ।" लेकिन वह पूर्ण नहीं है । यह वापस आता है । लेकिन भगवान नें इतने सारे उडते हुए ग्रह, लाखों और अरबों ग्रहों, बहुत भारी, भारी ग्रहों का उत्पादन किया है |

जैसे इस ग्रह की तरह जो इतने बड़े, बड़े पहाड़, समुद्र, उठा रहा है लेकिन अभी भी यह उड़ रहा है । यह एक कपास की तरह हवा में तैर रहा है । यह भगवान की शक्ति है । गाम अाविश्य (भ.गी. १५.१३) | भगवद गीता में, तुम पाअोगे : अहम् धारयामि-अोजसा । कौन इन सभी बड़े, बड़े ग्रहों को बनाए रखता है? हम गुरुत्वाकर्षण समझा रहे हैं । और शास्त्र में हम पाते हैं कि यह संकर्षण द्वारा उठाया जा रहा है ।