HI/Prabhupada 0269 - बदमाश अर्थघटन द्वारा भगवद् गीता नहीं समझ सकते हो



Lecture on BG 2.10 -- London, August 16, 1973

तो कृष्ण को समझने की कोशिश करो ऋषिकेश के रूप में । तो ऋषिकेश, कृष्ण हंसने लगते हैम कि, "वह मेरा दोस्त है, स्थिर सहयोगी है, और इस तरह की कमजोरी है ।" सब से पहले वह मुझे बताने के लिए उत्साहित था अपने रथ को लेने जाने के लिए, सेनयोर उभयोर मध्ये । अब विशिदन्तन, अब वह विलाप कर रहा है ।" तो ... हम सब मूर्ख हैं इसी तरह । अर्जुन मूर्ख नहीं हैं । अर्जुन को वर्णित किया गया है गुडाकेश के रूप में । वह कैसे मूर्ख हो सकता हैं? लेकिन वह मूर्ख की भूमिका निभा रहा हैं ।

अगर वे एक मूर्ख की भूमिका नहीं निभाता, तो कैसे यह भगवद गीता श्री कृष्ण के मुंह से आती? अौर क्योंकि वो भक्त हैं, वह इतनी अच्छी तरह से भूमिका निभा रहा हैं कि कृष्ण निर्देश दे रहे हैं । तो आदर्श शिक्षक और आदर्श शिष्य, अर्जुन । हमें उनसे सीखना चाहिए... हमारी स्थिति ... अर्जुन हमारे जैसे आम आदमी का प्रतिनिधित्व कर रहा हैं, और कृष्ण हैं ऋषिकेश, उनको सलाह दे रहे हैं, सही सलाह ।

अगर हम लेते हैं, अगर हम भगवद गीता पढ़ते हैं, अर्जुन के जेसी समझने की भावना के साथ, आदर्श शिष्य, और अगर हम सलाह अौर शिक्षा स्वीकार करते हैं कृष्ण की , आदर्श शिक्षक की, तब हमें पता होना चाहिए कि हम भगवद गीता समझ चुके हैं । मेरी मानसिक अटकलों से, बदमाश व्याख्या द्वारा, अपनी छात्रवृत्ति दिखाकर, तुम भगवद गीता नहीं समझ सकते हो । यह संभव नहीं है । विनम्र । इसलिए भगवद गीता में यह कहा जाता है, तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया (भ.गी. ४.३४) |

तो हमें अर्जुन के जैसे आत्मसमर्पण करना होगा, उन्होंने आत्मसमर्पण किया । शिष्यस ते अहम शाधि माम प्रपन्नम (भ.गी. २.७) "मैं आपको आत्मसमर्पण करता हूँ । मैं आपका शिष्य बनता हूँ ।" शिष्य बनने का मतलब है आत्मसमर्पण करना, स्वेच्छा से शिक्षा को स्वीकार करना, सलाह, आध्यात्मिक गुरु का आदेश । तो अर्जुन पहले ही स्वीकार कर चुके हैं । हालांकि वे बात कर रहे हैं, न योत्स्ये, "कृष्ण, मैं युद्ध नहीं करूँगा ।" लेकिन मालिक, जब वे सब कुछ बताते हैं, तब वे लड़ेंगे । मालिक का आदेश । लड़ना नहीं है, यह उनकी इन्द्रिय संतुष्टि है । और लड़ना, इसके बावजूद कि वे लड़ने की इच्छुक नहीं थे, मालिक की संतुष्टि के लिए । यह सार है भगवद गीता का ।

तो कृष्ण, अर्जुन को देख, विशीदन्तम बहुत ज्यादा प्रभावित, विलाप, कि वह अपने कर्तव्य को करने के लिए तैयार नहीं है । इसलिए अगले श्लोक में वे कहते हैं, कि: अशोच्यान अन्वशोचस त्वम प्रज्ञ-वादांश च भाशसे (भ गी २।११) "मेरे प्रिय अर्जुन, तुम मेरे दोस्त हो । कोई बात नहीं, माया बहुत बलवान है । मेरे व्यक्तिगत दोस्त होने के बावजूद, तुम इतनी झूठी करुणा से अभिभूत हो । तो बस मुझे सुनो ।"

इसलिए उन्होंने कहा, अशोच्यान, "तुम उस विषय पर विलाप कर रहे हो जो अच्छी बात नहीं है । " अशोच्य । शोच्य का मतलब है विलाप, और अशोच्य का मतलब है हमें शोक नहीं करना चाहिए । अशोच्य । तो अशोच्यान अन्वशोचस त्वम प्रज्ञ-वादांश च भाशसे | "लेकिन तुम बहुत शिक्षित विद्वान की तरह बात कर रहे हो ।" क्योंकि उन्होंने बात की है । लेकिन वह चीजें ठीक हैं । अर्जुन ने कहा है कि, वर्ण-शंकर, जब महिलाऍ प्रदूषित होती हैं, तब जनसंख्या वर्ण-शंकर है, यह तथ्य है ।

जो भी बातें अर्जुन नें श्री कृष्ण से कही लड़ाई को टालने के लिए कही, तो वे बातें सही हैं । लेकिन आध्यात्मिक मंच पर ... वे चीजें सही या गलत हो सकती हैं, लेकिन आध्यात्मिक मंच पर, वे बहुत गंभीर माने जाने वाली नहीं हैं । इसलिए अशोच्यान अन्वशोचस तव्म । क्योंकि उसका विलाप जीवन की शारीरिक अवधारणा पर था । यह शारीरिक अवधारणा जीवन की, कृष्ण के निर्देशों में बहुत पहले से, इसकी निंदा की गई है । अशोच्यान अन्वशोचस तव्म (भ गी २।११) "तुम जीवन के शारीरिक अवधारणा पर विलाप कर रहे हो ।" क्योंकि जो कोई भी जीवन की शारीरिक अवधारणा में है, वह पशु से बेहतर नहीं है ।