HI/Prabhupada 0364 - भगवद धाम जाना, यह इतना आसान नहीं है

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Lecture on SB 5.5.23 -- Vrndavana, November 10, 1976

जब तक हम बुनियादी गुणों पर नियंत्रण नहीं करते हैं, तमोगुण अौर रजोगुण, हम खुश नहीं रह सकते हैं । यह संभव नहीं है । ततो राजस् तमो भाव: । राजस् तमो भाव: का मतलब है काम अौर लोभ । तो जब तक मैं कामुक इच्छा रखता हूँ, जब तक मैं लोभ रखता हूँ अौर अधिक प्राप्त करने का, अौर अधिक, अौर अधिक, अधिक से अधिक इन्द्रियों का आनंद लेने के लिए ... यही लोभ है । हमें संतुष्ट होना चाहिए, जितना संभव है उतना न्यूनतम ।

अाहार-निद्रा-भय-मैथुनम् च सामान्यम् एतत् पशुभिर् नराणाम । अाहार का मतलब है खाना । अाहार, निद्रा और भय, और इन्द्रिय-तृप्ति । ये आवश्यक हैं लेकिन बढ़ाने के लिए नहीं, कम करने के लिए । जैसे एक व्यक्ति रोगग्रस्त होता है तो उसे वह नहीं खाना चाहिए जो उसे पसंद है । क्योंकि वह रोगी है, डॉक्टर निर्धारित करता है कि, " तुम थोड़ा जव का पानी या ग्लूकोज लेना, कोई ठोस भोजन नहीं अगर तुम ठीक होना चाहते हो ।" इसी तरह, यह चीज़ें जरूरी हैं जब तक यह शरीर है । अाहार-निद्रा-भय-मैथुनम् । लेकिन इन्हें कम किया जाना चाहिए, वृद्धि नहीं । यही मानव सभ्यता है, बढ़ाने के लिए नहीं । जैसे वृन्दावन के गोस्वामी । वे यहाँ अाहार-निद्रा-भय-मैथुनम् बढ़ाने के लिए नहीं आए । नहीं, वे कम करने के लिए यहां आए थे । निद्राहार-विहारकादि-विजितौ । यह ज़रूरी है ।

यह है वृन्दावन-वासी, एेसा नहीं है कि तुम वृन्दावन में रहते हो अौर अाहार-निद्रा-भय-मैथुन को बढ़ाते हो । यह वृन्दावन-वास नहीं है । बंदर भी वृन्दावन में रह रहे हैं, और कुत्ते भी हैं, और सुअर वृन्दावन में रह रहे हैं । लेकिन वे जानते नहीं हैं कि कैसे कम करें अाहार-निद्रा-भय-मैथुन को । तुम बंदरों को देखोगे । वे भी वृन्दावन में हैं । लेकिन तुम पाअोगे कि एक पुरुष बंदर के पीछे तीन डज़न महिला बंदर हैं । यह वृन्दावन वास नहीं है । अाहार-निद्रा । इसका मतलब है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति, दमो, शमो की आवश्यकता है। इसकी आवश्यकता है । यही ब्राह्मणवादी संस्कृति है । दुर्भाग्य से वर्तमान सभ्यता, वे कम करने के लिए नहीं बने हैं । वे बस बढ़ रहे हैं । पश्चिमी सभ्यता का मतलब है इन्द्रिय संतुष्टि के साधनों में वृद्धि करना, "मशीन, मशीन, मशीन, मशीन ।" तो, और ब्राह्मणवादी संस्कृति मतलब है शमो दमो तितिक्ष । तितिक्ष का मतलब है कि किसी चीज़ के बिना मैं कष्ट भोग सकता हूँ । कष्ट भोगना । तो हमें कष्ट भोगने का अभ्यास करना चाहिए । कष्ट भोगना, यही तपस्या है । तपसा ब्रह्मचर्येन (श्रीमद भागवतम् ६.१.१३) । तपस्या ब्रह्मचर्य से शुरू होती है । हम यौन जीवन या इन्द्रिय-संतुष्टि के अभ्यस्त हैं । तपस्या का मतलब है सबसे पहले इसे रोको । तपसा-ब्रह्मचर्येन (श्रीमद भागवतम् ६.१.१३) | यह अभ्यास है ।

तो परम धाम वापस, घर को वापस जाने के लिए योग्य होना, यह इतना आसान नहीं है । यह इतना आसान नहीं है ... हमें अपने भौतिक जीवन को लगभग शून्य करना होगा । लगभग शून्य नहीं, व्यावहारिक रूप से शून्य । अन्याभिलाषिता- शून्यम (भक्तिरसामृतसिन्धु १.१.११) । यह अावश्यक है, अभ्यास । इसलिए यह, हमारा कृष्णभावनामृत केंद्र, यह शमो, दमो का अभ्यास करने के लिए है । इसलिए हमें देखना है कि वह कितना योग्य है शमो, दमो तितिक्ष का अभ्यास करने के लिए । तो कोई नया लड़का आता है, और जैसे ही उसे कुछ काम दिया जाता है, जो इन्द्रिय-संतुष्टि के लिए बहुत अच्छा नहीं है, वे चले जाते हैं । इसका मतलब है कि वे तैयार नहीं हैं । बेहतर है कि वे दूर चले जाएँ । बंगाल में यह, दुष्ट गोरुते शून्य गोयालोआ, "अगर परेशान करने वाली गायें हैं, तो बेहतर है गौशाला को शून्य रखो, गाय के बिना । अनुमति मत दो ।"

तो यह कृष्णभावनामृत आंदोलन उन्नत करने के लिए है पुरुषों के पशु वर्ग को ब्राह्मण के मंच तक लाने के लिए । इसलिए यज्ञोपवीत समारोह को दूसरी दीक्षा के रूप में दिया जाता है, कि, "उसने अब शमो दमो तितिक्ष अार्जव का अभ्यास किया है, और उसने सीखा है कि श्रीकृष्ण क्या हैं, वे क्या हैं, कृष्ण के साथ उसका रिश्ता क्या है, अब कैसे कृष्ण की संतुष्टि के लिए कार्य किया जाए ।" ये ब्राह्मणवादी योग्यता है । अगर हम उन्नत होते हैं इस स्तर तक ... इस स्तर को सत्व-गुण कहा जाता है ।