HI/Prabhupada 0427 - आत्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग हैं: Difference between revisions

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वैदिक प्रणाली के अनुसार, समाज में पुरुषों की चार श्रेणियां हैं । चतुर-वर्णयम मया स्रश्टम गुण मर्म विभागश: ([[Vanisource:BG 4.13| भ गी ४।१३]]) मानव समाज कप पुरुषों के चार वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए । जैसे हमारे शरीर में, चार अलग अलग विभाग होते हैं: मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तुम्हे इन सभी की आवश्यकता होती है । अगर शरीर को बनाए रखाना है, तो तुम्हे ठीक ढंग से अपने सिर, अपने हाथ, अपने पेट और पैर को बनाए रखने चाहिए । सहयोग । तुमने कई बार भारत की जाति व्यवस्था के बारे में सुना है: ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र । ये कृत्रिम नहीं हैं । ये स्वाभाविक हैं । किसी भी समाज में तुम जाअो, न केवल भारत में, किसी भी अन्य देश में, पुरुषों के ये चार वर्ग रहते हैं । पुरुषों का बुद्धिमान वर्ग, पुरुषों का प्रशासक वर्ग, पुरुषों का उत्पादक वर्ग, और पुरुषों का मजदूर वर्ग । तुम अलग अलग नामों से इसे कहते हो, लेकिन इस तरह का विभाजन होना चाहिए । मैंने जैसे तुमसे कहा था, हमारे खुद के शरीर में विभाजन हैं - मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तो सब राजा, वे हाथ विभाग से हैं लोगों की सुरक्षा के लिए । तो पूर्व में, क्षत्रीय़... क्षत्रीय का मतलब है जो नागरिकों को संरक्षण देता है अन्य दुश्मनों के द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने से । यही क्षत्रीय कहा जाता है । तो हमारा कहना यह है कि कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि, "क्यों तुम अपने कर्तव्य से हट रहे हो? तुम्हे लगता है कि दूसरे पक्ष में तुम्हारे भाई या तुम्हारे चाचा या तुम्हारे दादा, वे लड़ाई के बाद मर जाऍगे? नहीं, यह तथ्य नहीं है । " बात यह है कि कृष्ण अर्जुन को सिखाना चाहते थे कि यह शरीर अलग है व्यक्ति से । जैसे हम में से हर एक की तरह, हम शर्ट और कोट से अलग हैं । इसी तरह, हम जीव, आत्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग हैं । यही भगवद गीता का तत्वज्ञान है । लोगों को यह समझ में नहीं आता । आम तौर पर, लोग समझते हैं कि वे शरीर हैं । इसकी शास्त्र में निंदा की गई है
वैदिक प्रणाली के अनुसार, समाज में पुरुषों की चार श्रेणियां हैं । चातुर-वर्ण्यम मया सृष्टम गुण कर्म विभागश: ([[HI/BG 4.13| भ.गी. ४.१३]]) | मानव समाज को पुरुषों के चार वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए । जैसे हमारे शरीर में, चार अलग अलग विभाग होते हैं: मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तुम्हे इन सभी की आवश्यकता होती है । अगर शरीर को बनाए रखाना है, तो तुम्हे ठीक ढंग से अपने सिर, अपने हाथ, अपने पेट और पैर को बनाए रखने चाहिए । सहयोग । तुमने कई बार भारत की जाति व्यवस्था के बारे में सुना है: ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र । ये कृत्रिम नहीं हैं । ये स्वाभाविक हैं ।  


:यस्यात्म-बुद्धि: कुनपे त्रि-धातुके
किसी भी समाज में तुम जाअो, केवल भारत में, किसी भी अन्य देश में, पुरुषों के ये चार वर्ग रहते हैं । पुरुषों का बुद्धिमान वर्ग, पुरुषों का प्रशासक वर्ग, पुरुषों का उत्पादक वर्ग, और पुरुषों का मजदूर वर्ग । तुम अलग अलग नामों से इसे कहते हो, लेकिन इस तरह का विभाजन होना चाहिए । मैंने जैसे तुमसे कहा था, हमारे खुद के शरीर में विभाजन हैं - मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तो सब राजा, वे हाथ विभाग से हैं लोगों की सुरक्षा के लिए  । तो पहले, क्षत्रिय... क्षत्रिय का मतलब है जो नागरिकों को संरक्षण देता है अन्य दुश्मनों के द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने से । यही क्षत्रिय कहा जाता है ।
:स्व-दि: कलत्रादिशू भोम इज्य-दि:
:यत्-तीर्थ-बुद्धि: शलिले कर्हिचित
:जनेशु अभिज्ञेशु स एव गो-खर:
:([[Vanisource:SB 10.84.13|श्री भ १०।८४।१३]])


गो का मतलब है गाय, और खर का मतलब है गधा । जो भी जीवन की शारीरिक अवधारणा पर जी रह है, यस्यात्म-बुद्धि: कुनपे त्रि-धातुके...... जीवन की शारीरिक अवधारणा जानवरों के लिए है । कुत्ते को पता नहीं है कि वह यह शरीर नहीं है , वह शुद्ध आत्मा है । लेकिन एक आदमी अगर वह शिक्षित है, तो वह समझ सकता है कि वह यह शरीर नहीं है, वह इस शरीर से अलग है वह कैसे समझ सकता है कि हम इस शरीर से अलग हैं ? यह भी एक बहुत ही सरल तरीका है यहाँ, तुम भगवद गीता में यह पाअोगे, कहा जाता है,
तो हमारा कहना यह है कि कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि, "क्यों तुम अपने कर्तव्य से हट रहे हो? तुम्हे लगता है कि दूसरे पक्ष में तुम्हारे भाई या तुम्हारे चाचा या तुम्हारे दादा, वे लड़ाई के बाद मर जाऍगे? नहीं, यह तथ्य नहीं है ।" बात यह है कि कृष्ण अर्जुन को सिखाना चाहते थे कि यह शरीर अलग है व्यक्ति से । जैसे हम में से हर एक की तरह, हम शर्ट और कोट से अलग हैं इसी तरह, हम जीव, आत्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग हैं । यही भगवद गीता का तत्वज्ञान है । लोगों को यह समझ में नहीं आता । आम तौर पर, लोग  समझते हैं कि वे शरीर हैं । इसकी शास्त्र में निंदा की गई है


:देहिनो अस्मिन यथा देहे
:यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके
:कौमारम यौवनम जरा
:स्व-धी: कलत्रादिशू भौम इज्य-धी:
:तथा देहान्तर-प्राप्तिर
:यत्-तीर्थ-बुद्धि: सलिले न कर्हिचित
:धीरस् तत्र न मुह्यति
:जनेशु अभिज्ञेशु स एव गो-खर:
:([[Vanisource:BG 2.13|भ गी २।१३]])
:([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]])  


देहिन:.....अस्मिन देहे, इस शरीर, जैसे आत्मा, है देही ... देही का मतलब है इस शरीर का स्वामी । मैं यह शरीर नहीं हूं । अगर तुम मुझसे पूछते हो, "क्या ..." जैसे कभी कभी हम बच्चे से पूछते हैं "यह क्या है?" वह कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" इसी तरह अगर तुम मुझसे भी पूछते हो, कोई भी, "यह क्या है?" कोई भी कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" कोई भी नहीं कहेगा "मैं सिर ।" तो अगर तुम जाँच या सूक्ष्म परीक्षण करते हो शरीर के सभी भागों का, तो तुम कहोगअे, "यह मेरा सिर, मेरा हाथ, मेरी उंगली, मेरे पैर है" लेकिन कहां है " मैं' ? "मेरा" बोली जाती है जब वहाँ "मैं" हो । लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है "मैं" की हमें बस जानकारी है "मेरी' के बारे में । यही अज्ञान कहा जाता है । तो यह पूरी दुनिया इस धारणा के तहत है कि स्वयं को शरीर के रूप में ले । एक अन्य उदाहरण हम आपको दे सकते हैं । जैसे तुम्हाते रिश्तेदार, मान लो तुम्हारे पिता मर गए । अब मैं रो रहा हूँ "ओह, मेरे पिता चले गए हैं । मेरे पिता चले गए है ।" लेकिन कोई कहता है , " क्यों तुम कहते हो कि तुम्हारे पिता चले गए हैँ? वे यहाँ पर पडे हुए हैं । तुम क्यों रो रहे हो? " "नहीं, नहीं, नहीं, यह उनका शरीर है । उनका शरीर है । मेरे पिता चले गए हैँ ।" इसलिए हमारे वर्तमान गणना में मैं तुम्हारे शरीर को देख रहा हूँ, तुम मेरे शरीर को देख रहे हो, कोई भी वास्तविक व्यक्ति को देख नहीं रहा है । मृत्यु के बाद, उसे समझ अाती है: "ओह, यह मेरे पिता नहीं है, यह मेरे पिता का शरीर है ।" तुम देख रहे हो? तो हम मौत के बाद बुद्धिमान बन जाते हैं । अौर जब हम जी रह रहे हैं, हम अज्ञानता में हैं । यह आधुनिक सभ्यता है । जीवित ... वैसे ही जैसे लोग कुछ पैसे पाने के लिए बीमा पॉलिसी रखते हैं । तो यह पैसे मौत के बाद प्राप्त होता है, न की जीवन के दौरान । कभी कभी जीवन के दौरान । मेरे कहने का मतलब है जब तक हम जीवित हैं, हम अज्ञानता में हैं । हमें पता नहीं है, "मेरे पिता क्या है, मैं क्या हूँ, मेरा भाई क्या है ।" लेकिन हर कोई इस धारणा के तहत है, "यह शरीर मेरे पिता है यह शरीर मेरे बच्चेा का है, यह शरीर मेरी पत्नी का है । "यह अज्ञान कहा जाता है । अगर तुम पूरी दुनिया का अध्ययन जीवन के दौरान, तो हर कोई कहेगा कि "मैं अंग्रेज हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूं ।" लेकिन अगर तुम उसे पूछो, "वास्तव में तुम ऐसे हो?" क्योंकि यह शरीर हिंदू, मुस्लिम, या ईसाई है, क्योंकि दुर्घटना से शरीर का उत्पादन हुअा है, एक समाज में, हिन्दू, मुस्लिम, या शरीर किसी खास देश में पैदा होता है, इसलिए हम कहते हैं, मैं यूरोपीय हूँ, "मैं भारतीय हूँ", "" मैं यह हूँ, " "मैं वह हूँ। " लेकिन जब शरीर मर चुका है, उस समय हम कहते हैं, "नहीं, नहीं, शरीर के भीतर था जो व्यक्ति, वो चला गया है । यह एक अलग बात है ।"
गो का मतलब है गाय, और खर का मतलब है गधा । जो भी जीवन की शारीरिक अवधारणा पर जी रहे है, यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके...... जीवन की शारीरिक अवधारणा जानवरों के लिए है । कुत्ते को पता नहीं है कि वह यह शरीर नहीं है, वह शुद्ध आत्मा है । लेकिन एक आदमी अगर वह शिक्षित है, तो वह समझ सकता है कि वह यह शरीर नहीं है, वह इस शरीर से अलग है । वह कैसे समझ सकता है कि हम इस शरीर से अलग हैं ? यह भी एक बहुत ही सरल तरीका है । यहाँ, तुम भगवद गीता में यह पाअोगे, कहा जाता है,
 
:देहिनो अस्मिन यथा देहे
:कौमारम यौवनम जरा
:तथा देहान्तर-प्राप्तिर
:धीरस् तत्र न मुह्यति
:([[HI/BG 2.13|भ.गी. २.१३]])
 
देहिन:... अस्मिन देहे, इस शरीर, जैसे आत्मा है, देही ... देही का मतलब है इस शरीर का स्वामी । मैं यह शरीर नहीं हूं । अगर तुम मुझसे पूछते हो, "क्या ..." जैसे कभी कभी हम बच्चे से पूछते हैं "यह क्या है?" वह कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" इसी तरह अगर तुम मुझसे भी पूछते हो, कोई भी, "यह क्या है?" कोई भी कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" कोई भी नहीं कहेगा "मैं सिर ।" तो अगर तुम जाँच या सूक्ष्म परीक्षण करते हो शरीर के सभी भागों का, तो तुम कहोगे, "यह मेरा सिर, मेरा हाथ, मेरी उंगली, मेरे पैर है" लेकिन कहां है " मैं' ? "मेरा" बोला जाता है जब वहाँ "मैं" हो । लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है "मैं" की | हमें बस जानकारी है "मेरे" के बारे में । यही अज्ञान कहा जाता है । तो यह पूरी दुनिया इस धारणा के तहत है कि स्वयं को शरीर के रूप में ले ।  
 
एक अन्य उदाहरण हम आपको दे सकते हैं । जैसे तुम्हारे रिश्तेदार, मान लो तुम्हारे पिता मर गए । अब मैं रो रहा हूँ "ओह, मेरे पिता चले गए हैं । मेरे पिता चले गए है ।" लेकिन कोई कहता है, "क्यों तुम कहते हो कि तुम्हारे पिता चले गए हैँ? वे यहाँ पर पडे हुए हैं । तुम क्यों रो रहे हो? " "नहीं, नहीं, नहीं, यह उनका शरीर है । उनका शरीर है । मेरे पिता चले गए हैँ ।" इसलिए हमारे वर्तमान गणना में मैं तुम्हारे शरीर को देख रहा हूँ, तुम मेरे शरीर को देख रहे हो, कोई भी वास्तविक व्यक्ति को देख नहीं रहा है । मृत्यु के बाद, उसे समझ अाती है: "ओह, यह मेरे पिता नहीं है, यह मेरे पिता का शरीर है ।" तुम देख रहे हो? तो हम मौत के बाद बुद्धिमान बन जाते हैं । अौर जब हम जी रह रहे हैं, हम अज्ञानता में हैं । यह आधुनिक सभ्यता है । जीवित... वैसे ही जैसे लोग कुछ पैसे पाने के लिए बीमा पॉलिसी रखते हैं ।  
 
तो यह पैसे मौत के बाद प्राप्त होता है, न की जीवन के दौरान । कभी कभी जीवन के दौरान भी मिलते है । मेरे कहने का मतलब है जब तक हम जीवित हैं, हम अज्ञानता में हैं । हमें पता नहीं है, "मेरे पिता क्या है, मैं क्या हूँ, मेरा भाई क्या है ।" लेकिन हर कोई इस धारणा के तहत है, "यह शरीर मेरे पिता है, यह शरीर मेरे बच्चे का है, यह शरीर मेरी पत्नी का है । "यह अज्ञान कहा जाता है । अगर तुम पूरी दुनिया का अध्ययन करो, जीवन के दौरान हर कोई कहेगा कि "मैं अंग्रेज हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूं ।" लेकिन अगर तुम उसे पूछो, "वास्तव में तुम ऐसे हो?" क्योंकि यह शरीर हिंदू, मुस्लिम, या ईसाई है, क्योंकि अकस्मात से शरीर का उत्पादन हुअा है, एक समाज में, हिन्दू, मुस्लिम, या शरीर किसी खास देश में पैदा होता है, इसलिए हम कहते हैं, मैं यूरोपीय हूँ, "मैं भारतीय हूँ", "" मैं यह हूँ, " "मैं वह हूँ। " लेकिन जब शरीर मर चुका है, उस समय हम कहते हैं, "नहीं, नहीं, शरीर के भीतर था जो व्यक्ति, वो चला गया है । यह एक अलग बात है ।"  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on BG 2.11 -- Edinburgh, July 16, 1972

वैदिक प्रणाली के अनुसार, समाज में पुरुषों की चार श्रेणियां हैं । चातुर-वर्ण्यम मया सृष्टम गुण कर्म विभागश: ( भ.गी. ४.१३) | मानव समाज को पुरुषों के चार वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए । जैसे हमारे शरीर में, चार अलग अलग विभाग होते हैं: मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तुम्हे इन सभी की आवश्यकता होती है । अगर शरीर को बनाए रखाना है, तो तुम्हे ठीक ढंग से अपने सिर, अपने हाथ, अपने पेट और पैर को बनाए रखने चाहिए । सहयोग । तुमने कई बार भारत की जाति व्यवस्था के बारे में सुना है: ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र । ये कृत्रिम नहीं हैं । ये स्वाभाविक हैं ।

किसी भी समाज में तुम जाअो, न केवल भारत में, किसी भी अन्य देश में, पुरुषों के ये चार वर्ग रहते हैं । पुरुषों का बुद्धिमान वर्ग, पुरुषों का प्रशासक वर्ग, पुरुषों का उत्पादक वर्ग, और पुरुषों का मजदूर वर्ग । तुम अलग अलग नामों से इसे कहते हो, लेकिन इस तरह का विभाजन होना चाहिए । मैंने जैसे तुमसे कहा था, हमारे खुद के शरीर में विभाजन हैं - मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग, पेट विभाग, और पैर विभाग । तो सब राजा, वे हाथ विभाग से हैं लोगों की सुरक्षा के लिए । तो पहले, क्षत्रिय... क्षत्रिय का मतलब है जो नागरिकों को संरक्षण देता है अन्य दुश्मनों के द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने से । यही क्षत्रिय कहा जाता है ।

तो हमारा कहना यह है कि कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि, "क्यों तुम अपने कर्तव्य से हट रहे हो? तुम्हे लगता है कि दूसरे पक्ष में तुम्हारे भाई या तुम्हारे चाचा या तुम्हारे दादा, वे लड़ाई के बाद मर जाऍगे? नहीं, यह तथ्य नहीं है ।" बात यह है कि कृष्ण अर्जुन को सिखाना चाहते थे कि यह शरीर अलग है व्यक्ति से । जैसे हम में से हर एक की तरह, हम शर्ट और कोट से अलग हैं । इसी तरह, हम जीव, आत्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग हैं । यही भगवद गीता का तत्वज्ञान है । लोगों को यह समझ में नहीं आता । आम तौर पर, लोग समझते हैं कि वे शरीर हैं । इसकी शास्त्र में निंदा की गई है ।

यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके
स्व-धी: कलत्रादिशू भौम इज्य-धी:
यत्-तीर्थ-बुद्धि: सलिले न कर्हिचित
जनेशु अभिज्ञेशु स एव गो-खर:
(श्रीमद भागवतम १०.८४.१३)

गो का मतलब है गाय, और खर का मतलब है गधा । जो भी जीवन की शारीरिक अवधारणा पर जी रहे है, यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके...... जीवन की शारीरिक अवधारणा जानवरों के लिए है । कुत्ते को पता नहीं है कि वह यह शरीर नहीं है, वह शुद्ध आत्मा है । लेकिन एक आदमी अगर वह शिक्षित है, तो वह समझ सकता है कि वह यह शरीर नहीं है, वह इस शरीर से अलग है । वह कैसे समझ सकता है कि हम इस शरीर से अलग हैं ? यह भी एक बहुत ही सरल तरीका है । यहाँ, तुम भगवद गीता में यह पाअोगे, कहा जाता है,

देहिनो अस्मिन यथा देहे
कौमारम यौवनम जरा
तथा देहान्तर-प्राप्तिर
धीरस् तत्र न मुह्यति
(भ.गी. २.१३)

देहिन:... अस्मिन देहे, इस शरीर, जैसे आत्मा है, देही ... देही का मतलब है इस शरीर का स्वामी । मैं यह शरीर नहीं हूं । अगर तुम मुझसे पूछते हो, "क्या ..." जैसे कभी कभी हम बच्चे से पूछते हैं "यह क्या है?" वह कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" इसी तरह अगर तुम मुझसे भी पूछते हो, कोई भी, "यह क्या है?" कोई भी कहेगा, "यह मेरा सिर है ।" कोई भी नहीं कहेगा "मैं सिर ।" तो अगर तुम जाँच या सूक्ष्म परीक्षण करते हो शरीर के सभी भागों का, तो तुम कहोगे, "यह मेरा सिर, मेरा हाथ, मेरी उंगली, मेरे पैर है" लेकिन कहां है " मैं' ? "मेरा" बोला जाता है जब वहाँ "मैं" हो । लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है "मैं" की | हमें बस जानकारी है "मेरे" के बारे में । यही अज्ञान कहा जाता है । तो यह पूरी दुनिया इस धारणा के तहत है कि स्वयं को शरीर के रूप में ले ।

एक अन्य उदाहरण हम आपको दे सकते हैं । जैसे तुम्हारे रिश्तेदार, मान लो तुम्हारे पिता मर गए । अब मैं रो रहा हूँ "ओह, मेरे पिता चले गए हैं । मेरे पिता चले गए है ।" लेकिन कोई कहता है, "क्यों तुम कहते हो कि तुम्हारे पिता चले गए हैँ? वे यहाँ पर पडे हुए हैं । तुम क्यों रो रहे हो? " "नहीं, नहीं, नहीं, यह उनका शरीर है । उनका शरीर है । मेरे पिता चले गए हैँ ।" इसलिए हमारे वर्तमान गणना में मैं तुम्हारे शरीर को देख रहा हूँ, तुम मेरे शरीर को देख रहे हो, कोई भी वास्तविक व्यक्ति को देख नहीं रहा है । मृत्यु के बाद, उसे समझ अाती है: "ओह, यह मेरे पिता नहीं है, यह मेरे पिता का शरीर है ।" तुम देख रहे हो? तो हम मौत के बाद बुद्धिमान बन जाते हैं । अौर जब हम जी रह रहे हैं, हम अज्ञानता में हैं । यह आधुनिक सभ्यता है । जीवित... वैसे ही जैसे लोग कुछ पैसे पाने के लिए बीमा पॉलिसी रखते हैं ।

तो यह पैसे मौत के बाद प्राप्त होता है, न की जीवन के दौरान । कभी कभी जीवन के दौरान भी मिलते है । मेरे कहने का मतलब है जब तक हम जीवित हैं, हम अज्ञानता में हैं । हमें पता नहीं है, "मेरे पिता क्या है, मैं क्या हूँ, मेरा भाई क्या है ।" लेकिन हर कोई इस धारणा के तहत है, "यह शरीर मेरे पिता है, यह शरीर मेरे बच्चे का है, यह शरीर मेरी पत्नी का है । "यह अज्ञान कहा जाता है । अगर तुम पूरी दुनिया का अध्ययन करो, जीवन के दौरान हर कोई कहेगा कि "मैं अंग्रेज हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूं ।" लेकिन अगर तुम उसे पूछो, "वास्तव में तुम ऐसे हो?" क्योंकि यह शरीर हिंदू, मुस्लिम, या ईसाई है, क्योंकि अकस्मात से शरीर का उत्पादन हुअा है, एक समाज में, हिन्दू, मुस्लिम, या शरीर किसी खास देश में पैदा होता है, इसलिए हम कहते हैं, मैं यूरोपीय हूँ, "मैं भारतीय हूँ", "" मैं यह हूँ, " "मैं वह हूँ। " लेकिन जब शरीर मर चुका है, उस समय हम कहते हैं, "नहीं, नहीं, शरीर के भीतर था जो व्यक्ति, वो चला गया है । यह एक अलग बात है ।"