HI/Prabhupada 0428 - इंसान का विशेषाधिकार है यह समझना कि मैं क्या हूँ

Revision as of 02:49, 17 July 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0428 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1972 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

Lecture on BG 2.11 -- Edinburgh, July 16, 1972

हम कितनe अज्ञानी हैं यह समझने की कोशिश करो । हम सभी अज्ञानता में हैं । यह शिक्षा अावश्यक है क्योंकि लोग, इस अज्ञान के कारण, वे एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं । एक राष्ट्र दूसरे के साथ लड़ रहा है, एक धर्मनिष्ठ एक और धर्मनिष्ठ के साथ लड़ रहा है । लेकिन यह सब अज्ञान पर आधारित है । मैं यह शरीर नहीं हूं । इसलिए शास्त्र कहता है यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके (श्री भ १०।८४।१३) । अात्म बुद्धि: कुणपे, यह हड्डियों और मांसपेशियों का एक थैला है, और यह तीन धातुअों द्वारा निर्मित है । धातु का मतलब है तत्व । आयुर्वेदिक प्रणाली के अनुसार: कफ, पित्त, वायु । भौतिक बातें । तो इसलिए मैं एक आत्मा हूँ । मैं भगवान का अभिन्न अंग हूँ । अहम् ब्रह्मास्मि । यह वैदिक शिक्षा है । यह समझने की कोशिश करो कि तुम इस भौतिक दुनिया से ताल्लुक नहीं रखते हो । तुम आध्यात्मिक दुनिया के हो । तुम भगवान का अभिन्न अंग हो । ममैवाम्शो जीव-भूत: (भ गी १५।७) भगवद गीता में भगवान "का कहना है कि, " सभी जीव मेरा हिस्सा हैं ।" मन: शश्ठानिन्द्रियानणि प्रकृति-स्थानि कर्षति ( भ गी १५।७) वे जीवन के एक महान संघर्ष के दौर से गुजर रहा है, इस धारणा के तहत, शारीरिक धारणा के तहत कि वह यह शरीर है, लेकिन यह धारणा या समझ जानवरों की सभ्यता है । क्योंकि पशु भी, खाने रहे हैं, सो रहे हैं, सेक्स संभोग कर रहे हैं, और अपने तरीके से बचाव कर रहे हैं । तो अगर हम भी, इंसान, अगर हम भी इन कामों में लगे हुए हों, अर्थात्, खाना, सोना, सेक्स संभोग, और बचाव, तो हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं । इंसान का विशेषाधिकार है यह समझना कि "मैं क्या हूँ ? मैं यह शरीर हूँ या कुछ और हूँ? " दरअसल, मैं यह शरीर नहीं हूं । मैंने तुम्हे कई उदाहरण दिए हैं । मैं आत्मा हूं । लेकिन वर्तमान समय में हम में से हर एक इस समझ में व्यस्त है कि मैं यह शरीर हूँ । कोई भी इश्र समझ से काम नहीं कर रहा है कि वह यह शरीर नहीं है, वह आत्मा है । इसलिए इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को समझने की कोशिश करो । हम हर आदमी को किसी भी भेदभाव के बिना शिक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं । हम नहीं करते ... हम शरीर को ध्यान में नहीं लेते हैं । शरीर हिंदू हो सकता है, शरीर मुसलमान हो सकता है, शरीर यूरोपीय हो सकता है, शरीर अमेरिकी हो सकता है, या शरीर अलग शैली का हो सकता है । जैसे तुम्हारे पास एक पोशाक है । अब, क्योंकि मैं भगवा पोशाक में हूँ और तुम काले कोट में हो, इसका यह मतलब नहीं है कि हम अापस में लड़ेंगे । क्यों? तुम्हारी एक अलग पोशाक हो सकती है, मेरी एक अलग पोशाक हो सकती है । तो कहाँ लड़ने का कारण है? यह समझ वर्तमान क्षण में वांछित है । अन्यथा, जानवरों की सभ्यता हो जाएगी । जैसे जंगल में, जानवर हैं । वहाँ बिल्लियॉ, कुत्ते सियार, शेर हैं, और वे हमेशा लड़ते हैं । तो इसलिए अगर हम वास्तव में शांति चाहते हैं, - शांति का मतलब है अमन तो हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए "मैं क्या हूँ ।" यही हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । हम सिखा रहे हैं सब को कि वे वास्तव में हैं क्या । लेकिन उसकी स्थिति है ... हर किसी की स्थिति, मेरी या तुम्हारा ही नहीं । हर कोई । यहां तक ​​कि जानवर भी । वे भी अात्मा की चिंगारी । वे भी । कृष्ण का दावा है कि

सर्व-योणिषु कौन्तेय
मूर्तय: सम्भवन्ति या:
तासाम ब्रह्म महद योनिर
अहम बीज-प्रद: पिता
(भ गी १४।४)

कृष्ण का दावा है कि "मैं सभी जीव को बीज देने वाला पिता हूँ ।" दरअसल, यह तथ्य है । अगर हम सृष्टि की उत्पत्ति का अध्ययन करना चाहते हैं, तो सब कुछ भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है । वैसे ही जैसे पिता मां के गर्भ के भीतर बीज देता है , और बीज शरीर के एक विशेष प्रकार में बढ़ता है, इसी तरह, हम जीव, हम सब भगवान का अभिन्न अंग हैं, इसलिए भगवान, इस भौतिक प्रकृति को गर्भवती करते हैं और हम अलग अलग रूपों के तहत इस भौतिक शरीर के साथ बाहर आते हैं । ८,४००,००० रूप हैं । जलजा नव-लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विम्शति एक सूची है । सब कुछ है ।