HI/Prabhupada 0884 - हम बैठे हैं और कृष्ण के बारे में पृच्छा कर रहे हैं । यही जीवन है: Difference between revisions
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वे जलते हैं कि हम काम नहीं करते | वे जलते हैं कि हम काम नहीं करते हैं । फिर भी, हमें इतना मिला है । "तो तुम क्यों नहीं आते और हमारे साथ शामिल होते ?" वे ऐसा नहीं करेंगे । "तुम अाओ हमारे साथ, हरे कृष्ण मंत्र का जप करो ।" "नहीं, नहीं, नहीं । मैं ऐसा नहीं कर सकता ।" ठीक है, तो फिर अपने ट्रकों के साथ काम करो: हूँश, हूँश, हूँश, हूँश, हूँश । उन्होंने अपने ही स्थिति को खतरनाक बना दिया है और दूसरों की स्थिति को भी । किसी भी समय, दुर्घटना हो सकती है । तुम समझे ? यह सभ्यता है । बकवास । यह सभ्यता नहीं है । | ||
सभ्यता मतलब शांति, शांति, समृद्धि, शांति । शांति और समृद्धि में हमेशा कृष्ण भावनाभावित होना चाहिए । तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद भ्रमताम उपरि अध: ([[Vanisource: SB 1.5.18|श्रीमद भागवतम १.५.१८]]) | पशु जीवन में, या मानव जीवन के अलावा अन्य जीवन में, हमने बहुत काम किया है कुछ निवाले भोजन के लिए ही, दिन और रात काम करना । लेकिन भोजन तो है । केवल अविद्या-कर्म-संज्ञाया तृतीया शक्तिर इष्यते ([[Vanisource: CC Adi 7.119|चैतन्य चरितामृत अादि ७.११९]]) । अविद्या । यह भौतिक दुनिया अज्ञान से भरी है । तो इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि कैसे इस अज्ञानता से बाहर निकलें । तस्यैव हेतो । | |||
इसी कारण वश, हमें केवल काम करना चाहिए । इस अज्ञानता से कैसे बाहर निकलूँ कि," मैं यह भौतिक शरीर हूँ । मुझे दिन और रात काम करना होगा, और फिर मुझे अपना भोजन मिलेगा और मैं जीवित रहूँगा ।" यह अज्ञानता है । तस्यैव प्रयते... तो यह अज्ञान, अज्ञान का यह जीवन हम बिता चुके हैं, मेरे कहने का मतलब है, इंसान के अलावा अन्य जीवन में । पशु जीवन, पक्षी का जीवन, जानवर का जीवन । अब यह जीवन शांतिपूर्ण, शांत होना चाहिए । और जीवस्य तत्त्व-जिज्ञासा, केवल निरपेक्ष सत्य की खोज । यही काम होना चाहिए । बस । जीवस्य तत्त्व-जिज्ञासा । अथातो ब्रह्म जिज्ञासा । बस बैठ जाओ । वैसे ही जैसे हम बैठे हैं । हम बैठे हैं और कृष्ण के बारे में पृच्छा कर रहे हैं । यही जीवन है । यही जीवन है । और यह जीवन क्या है ? गधे की तरह दिन और रात काम करना ? नहीं, यह जीवन नहीं है । | |||
इसलिए भागवत कहता है कि तुम्हारा जीवन इस उद्देश्य में संलग्न होना चाहिए: तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविद: । कोविद मतलब बुद्धिमान । फिर: "कैसे मेरी आर्थिक समस्या का हल होगा ?" जवाब है: तल लभ्यते दुःखवद अन्यत: सुखम | तुम सुख के पीछे भाग रहे हो । तुम दुःख के पीछे भागते हो ? "नहीं, श्रीमान ।" क्यों संकट तुम पर आता है ? तुम संकट, विपदा, के लिए उत्सुक नहीं हो । वे तुम पर क्यों आती हैं ? इसी तरह, जहाँ तक तुम्हारी खुशी का संबंध है, वह भी अाएगी । क्योंकि तुम्हारा जीवन, तुम्हारे कर्म के अनुसार, सुख के कुछ हिस्सों, संकट के कुछ हिस्सों का मिश्रण है । अगर संकट किसी भी आमंत्रण के बिना आता है, तो खुशी भी आमंत्रण के बिना आएगी । किसी भी निमंत्रण के बिना । क्योंकि पहले से ही यह किस्मत में है तुम्हारी इतनी खुशी, इतना संकट तुम्हें होगा । किस्मत में । | |||
तो तुम इसे बदल नहीं सकते । अपने स्वामी को बदलने की कोशिश करो, जीवन के इस भौतिक हालत को । यही हमारा काम है । तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभयते यद भ्रमताम उपरि अध:... भ्रमताम उपरि अध: । तुमने कोशिश की है । भ्रमताम उपरि अध:... उपरि का मतलब उच्च ग्रह । कभी-कभी हमें जन्म उच्च ग्रह में मिलता है देवताअों के रूप में, और कभी-कभी, अधः पशु के रूप में, बिल्ली और कुत्ते के रूप में, मल के कीटाणु के रूप में । यह चल रहा है । यह हमारे कर्म के अनुसार चल रहा है । चैतन्य महाप्रभु ने कहा: एइ रूपे ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव ([[Vanisource: CC Madhya 19.151|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१५१]]) । | |||
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020
730413 - Lecture SB 01.08.21 - New York
वे जलते हैं कि हम काम नहीं करते हैं । फिर भी, हमें इतना मिला है । "तो तुम क्यों नहीं आते और हमारे साथ शामिल होते ?" वे ऐसा नहीं करेंगे । "तुम अाओ हमारे साथ, हरे कृष्ण मंत्र का जप करो ।" "नहीं, नहीं, नहीं । मैं ऐसा नहीं कर सकता ।" ठीक है, तो फिर अपने ट्रकों के साथ काम करो: हूँश, हूँश, हूँश, हूँश, हूँश । उन्होंने अपने ही स्थिति को खतरनाक बना दिया है और दूसरों की स्थिति को भी । किसी भी समय, दुर्घटना हो सकती है । तुम समझे ? यह सभ्यता है । बकवास । यह सभ्यता नहीं है ।
सभ्यता मतलब शांति, शांति, समृद्धि, शांति । शांति और समृद्धि में हमेशा कृष्ण भावनाभावित होना चाहिए । तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद भ्रमताम उपरि अध: (श्रीमद भागवतम १.५.१८) | पशु जीवन में, या मानव जीवन के अलावा अन्य जीवन में, हमने बहुत काम किया है कुछ निवाले भोजन के लिए ही, दिन और रात काम करना । लेकिन भोजन तो है । केवल अविद्या-कर्म-संज्ञाया तृतीया शक्तिर इष्यते (चैतन्य चरितामृत अादि ७.११९) । अविद्या । यह भौतिक दुनिया अज्ञान से भरी है । तो इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि कैसे इस अज्ञानता से बाहर निकलें । तस्यैव हेतो ।
इसी कारण वश, हमें केवल काम करना चाहिए । इस अज्ञानता से कैसे बाहर निकलूँ कि," मैं यह भौतिक शरीर हूँ । मुझे दिन और रात काम करना होगा, और फिर मुझे अपना भोजन मिलेगा और मैं जीवित रहूँगा ।" यह अज्ञानता है । तस्यैव प्रयते... तो यह अज्ञान, अज्ञान का यह जीवन हम बिता चुके हैं, मेरे कहने का मतलब है, इंसान के अलावा अन्य जीवन में । पशु जीवन, पक्षी का जीवन, जानवर का जीवन । अब यह जीवन शांतिपूर्ण, शांत होना चाहिए । और जीवस्य तत्त्व-जिज्ञासा, केवल निरपेक्ष सत्य की खोज । यही काम होना चाहिए । बस । जीवस्य तत्त्व-जिज्ञासा । अथातो ब्रह्म जिज्ञासा । बस बैठ जाओ । वैसे ही जैसे हम बैठे हैं । हम बैठे हैं और कृष्ण के बारे में पृच्छा कर रहे हैं । यही जीवन है । यही जीवन है । और यह जीवन क्या है ? गधे की तरह दिन और रात काम करना ? नहीं, यह जीवन नहीं है ।
इसलिए भागवत कहता है कि तुम्हारा जीवन इस उद्देश्य में संलग्न होना चाहिए: तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविद: । कोविद मतलब बुद्धिमान । फिर: "कैसे मेरी आर्थिक समस्या का हल होगा ?" जवाब है: तल लभ्यते दुःखवद अन्यत: सुखम | तुम सुख के पीछे भाग रहे हो । तुम दुःख के पीछे भागते हो ? "नहीं, श्रीमान ।" क्यों संकट तुम पर आता है ? तुम संकट, विपदा, के लिए उत्सुक नहीं हो । वे तुम पर क्यों आती हैं ? इसी तरह, जहाँ तक तुम्हारी खुशी का संबंध है, वह भी अाएगी । क्योंकि तुम्हारा जीवन, तुम्हारे कर्म के अनुसार, सुख के कुछ हिस्सों, संकट के कुछ हिस्सों का मिश्रण है । अगर संकट किसी भी आमंत्रण के बिना आता है, तो खुशी भी आमंत्रण के बिना आएगी । किसी भी निमंत्रण के बिना । क्योंकि पहले से ही यह किस्मत में है तुम्हारी इतनी खुशी, इतना संकट तुम्हें होगा । किस्मत में ।
तो तुम इसे बदल नहीं सकते । अपने स्वामी को बदलने की कोशिश करो, जीवन के इस भौतिक हालत को । यही हमारा काम है । तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभयते यद भ्रमताम उपरि अध:... भ्रमताम उपरि अध: । तुमने कोशिश की है । भ्रमताम उपरि अध:... उपरि का मतलब उच्च ग्रह । कभी-कभी हमें जन्म उच्च ग्रह में मिलता है देवताअों के रूप में, और कभी-कभी, अधः पशु के रूप में, बिल्ली और कुत्ते के रूप में, मल के कीटाणु के रूप में । यह चल रहा है । यह हमारे कर्म के अनुसार चल रहा है । चैतन्य महाप्रभु ने कहा: एइ रूपे ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१५१) ।