HI/Prabhupada 0998 - एक साधु का कार्य है सभी जीवों का कल्याण: Difference between revisions

 
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८४०००००विभिन्न प्रकार से रूप हैं । श्री कृष्ण दावा करते हैं, वे, सभी, मेरा अंशस्वरूप जीव हैं, लेकिन वे अब अलग वस्त्र से केवल ढके हैं । लेकिन वे जीव हैं । " यह कृष्ण भावनामृत दृष्टि है ।
८४,००,००० विभिन्न प्रकार की योनिया हैं । श्री कृष्ण दावा करते हैं, वे, सभी, मेरा अंशस्वरूप जीव हैं, लेकिन वे अब अलग वस्त्र से केवल ढके हैं । लेकिन वे जीव हैं । " यह कृष्ण भावनामृत दृष्टि है ।  


इसलिए जो वास्तव में कृष्ण भावनाभावित है, पंडित, पंडिता: सम दर्शिन" ([[Vanisource:BG 5.18|भ गी ५।१८]]) पंडिता: , वह बाहरी वसत्र नहीं देखता है; वह उस शरीर में कैद जीव को देखता है । तो उसका शरीर के साथ कोई सरोकार नहीं है । इसलिए एक साधु हमेशा सभी के लाभ के बारे में सोचता है । जैसे रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी । गोस्वामियों मे एसा कहा जाता है, लोकानाम् हित कारिणौ त्रि भुवने मान्यौ । क्योंकि वे सभी प्रकार के जीवों के परोपकारी थे, इसलिए वे तीनों लोकों में, त्रि-भुवने सम्मानित थे । त्रि-भुवने । लोकानाम् हित कारिणौ । नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपणौ । एक साधु का प्रचार सभी जीवों के लाभ के लिए है । एक साधु एक पेड़ को भी काटना पसंद नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है, "यहाँ एक जीव है । वह अपने कर्म के कारण कई वर्षों से यहाँ खड़ा है, और उसे कई वर्षों तक यही करना होगा । तो वह इस से बच नहीं सकता है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है । " जैसे अगर तुम्हे छह महीने के लिए जेल में डाल दिया जाए, कोई भी तुम्हे नहीं बचा सकता है, कोई भी छह महीने से एक दिन में भी कम नहीं कर सकता है । तो हमें विशेष का प्रकार शरीर मिलता है, हमें प्रकृति के नियमों के तहत एक निश्चित अवधि के लिए है उस शरीर में रहना होगा । इसलिए शरीर के काटने से - जीव मरता नहीं है - मरना-लेकिन क्योंकि हम उसकी अवधि की निरंतरता को रोकते हैं, इसलिए हम पापी बन जाते हैं । तुम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हो अगर वह श्री कृष्ण के उद्देश्य के लिए नहीं है । श्री कृष्ण के उद्देश्य के बिना हम एक चींटी को भी नहीं मार सकते हैं, हम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हैं, तब हम सजा के उत्तरदायी हो जाएंगे । तो एक साधु देखता है कि "यहाँ भी एक जीव है ।" पंडिता: सम ...
इसलिए जो वास्तव में कृष्ण भावनाभावित है, पंडित, पंडिता: सम दर्शिन" ([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]]) | पंडिता:, वो बाहरी वस्त्र नहीं देखता है; वो उस शरीर में कैद जीव को देखता है । तो उसका शरीर के साथ कोई लेना देना नहीं है । इसलिए एक साधु हमेशा सभी के लाभ के बारे में सोचता है । जैसे रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी । गोस्वामियों के लिए एसा कहा जाता है, लोकानाम हित कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ । क्योंकि वे सभी प्रकार के जीवों के परोपकारी थे, इसलिए वे तीनों लोकों में, त्रि-भुवने सम्मानित थे । त्रि-भुवने । लोकानाम हित कारिणौ । नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ । एक साधु का कार्य है सभी जीवों का कल्याण | एक साधु एक पेड़ को भी काटना पसंद नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है, "यहाँ एक जीव है । वह अपने कर्म के कारण कई वर्षों से यहाँ खड़ा है, और उसे कई वर्षों तक यही करना होगा ।  


:विद्या-विनय-संपन्ने
तो वह इस से बच नहीं सकता है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है ।" जैसे अगर तुम्हे छह महीने के लिए जेल में डाल दिया जाए, कोई भी तुम्हे नहीं बचा सकता है, कोई भी छह महीने से एक दिन भी कम नहीं कर सकता । तो हमें विशेष प्रकार का शरीर मिलता है, हमें प्रकृति के नियमों के तहत एक निश्चित अवधि के लिए उस शरीर में रहना होगा । इसलिए शरीर के काटने से - जीव मरता नहीं है - मृत्यु - लेकिन क्योंकि हम उसकी अवधि की निरंतरता को रोकते हैं, इसलिए हम पापी बन जाते हैं । तुम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हो अगर वह श्री कृष्ण के उद्देश्य के लिए नहीं है । श्री कृष्ण के उद्देश्य के बिना हम एक चींटी को भी नहीं मार सकते हैं, हम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हैं, तब हम सजा के उत्तरदायी हो जाएंगे । तो एक साधु देखता है कि "यहाँ भी एक जीव है ।" पंडिता: सम...
:ब्रह्मणे गवि हस्तिनि
:शुनि चैव श्व पाके च
:पंडिता: सम दर्शिन:
:([[Vanisource:BG 5.18|भ गी ५।१८]])


पंडित कोई भेदभाव नहीं करता है कि "यहाँ एक जानवर है, यहॉ एक आदमी है ।" नहीं, वह देखता है, "जानवर भी कृष्ण का अंशस्वरूप है । उसका अलग शरीर है, और मनुष्य का भी, वह भी कृष्ण का अंशस्वरूप है, उसका एक अलग शरीर है । कर्मणा, अपने कर्म के अनुसार, उसे अलग प्रकार में डाला गया है ।" तो लोक हितम ([[Vanisource:SB 2.1.1|श्री भ २।१।१]]).
:विद्या-विनय-संपन्ने
:ब्रह्मणे गवि हस्तिनि
:शुनि चैव श्व-पाके च
:पंडिता: सम दर्शिन:
:([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]]) ।
 
पंडित कोई भेदभाव नहीं करता है कि "यहाँ एक जानवर है, यहॉ एक आदमी है ।" नहीं, वह देखता है, "जानवर भी कृष्ण का अंशस्वरूप है । उसका अलग शरीर है, और मनुष्य का भी, वह भी कृष्ण का अंशस्वरूप है, उसका एक अलग शरीर है । कर्मणा, अपने कर्म के अनुसार, उसे अलग प्रकार में डाला गया है ।" तो लोक हितम ([[Vanisource:SB 2.1.1|श्रीमद भागवतम २.१.१]])  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



730406 - Lecture SB 02.01.01-2 - New York

८४,००,००० विभिन्न प्रकार की योनिया हैं । श्री कृष्ण दावा करते हैं, वे, सभी, मेरा अंशस्वरूप जीव हैं, लेकिन वे अब अलग वस्त्र से केवल ढके हैं । लेकिन वे जीव हैं । " यह कृष्ण भावनामृत दृष्टि है ।

इसलिए जो वास्तव में कृष्ण भावनाभावित है, पंडित, पंडिता: सम दर्शिन" (भ.गी. ५.१८) | पंडिता:, वो बाहरी वस्त्र नहीं देखता है; वो उस शरीर में कैद जीव को देखता है । तो उसका शरीर के साथ कोई लेना देना नहीं है । इसलिए एक साधु हमेशा सभी के लाभ के बारे में सोचता है । जैसे रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी । गोस्वामियों के लिए एसा कहा जाता है, लोकानाम हित कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ । क्योंकि वे सभी प्रकार के जीवों के परोपकारी थे, इसलिए वे तीनों लोकों में, त्रि-भुवने सम्मानित थे । त्रि-भुवने । लोकानाम हित कारिणौ । नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ । एक साधु का कार्य है सभी जीवों का कल्याण | एक साधु एक पेड़ को भी काटना पसंद नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है, "यहाँ एक जीव है । वह अपने कर्म के कारण कई वर्षों से यहाँ खड़ा है, और उसे कई वर्षों तक यही करना होगा ।

तो वह इस से बच नहीं सकता है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है ।" जैसे अगर तुम्हे छह महीने के लिए जेल में डाल दिया जाए, कोई भी तुम्हे नहीं बचा सकता है, कोई भी छह महीने से एक दिन भी कम नहीं कर सकता । तो हमें विशेष प्रकार का शरीर मिलता है, हमें प्रकृति के नियमों के तहत एक निश्चित अवधि के लिए उस शरीर में रहना होगा । इसलिए शरीर के काटने से - जीव मरता नहीं है - मृत्यु - लेकिन क्योंकि हम उसकी अवधि की निरंतरता को रोकते हैं, इसलिए हम पापी बन जाते हैं । तुम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हो अगर वह श्री कृष्ण के उद्देश्य के लिए नहीं है । श्री कृष्ण के उद्देश्य के बिना हम एक चींटी को भी नहीं मार सकते हैं, हम एक पेड़ को भी नहीं काट सकते हैं, तब हम सजा के उत्तरदायी हो जाएंगे । तो एक साधु देखता है कि "यहाँ भी एक जीव है ।" पंडिता: सम...

विद्या-विनय-संपन्ने
ब्रह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्व-पाके च
पंडिता: सम दर्शिन:
(भ.गी. ५.१८) ।

पंडित कोई भेदभाव नहीं करता है कि "यहाँ एक जानवर है, यहॉ एक आदमी है ।" नहीं, वह देखता है, "जानवर भी कृष्ण का अंशस्वरूप है । उसका अलग शरीर है, और मनुष्य का भी, वह भी कृष्ण का अंशस्वरूप है, उसका एक अलग शरीर है । कर्मणा, अपने कर्म के अनुसार, उसे अलग प्रकार में डाला गया है ।" तो लोक हितम (श्रीमद भागवतम २.१.१)