HI/Prabhupada 0469 - पराजित या विजयी, कृष्ण पर निर्भर रहो



Lecture on SB 7.9.9 -- Mayapur, March 1, 1977

तो हमारा यह आंदोलन व्यावहारिक कार्य पर आधारित है । तुम्हारे पास जो भी प्रतिभा है, जो कुछ तुम्हारे पास थोड़ी ताकत है, शिक्षा है ... तुम्हे कुछ भी सीखने की ज़रूरत नहीं है । जो कुछ भी तुम्हारे पास है, जो भी स्थिति में तुम हो, तुम कृष्ण की सेवा कर सकते हो । ऐसा नहीं है कि पहले तुम्हे कुछ सीखना है और फिर तुम सेवा कर सकते हो । नहीं । सेवा ही शिक्षा है । जितना अधिक तुम सेवा प्रदान करने की कोशिश करते हो, उतना अधिक तुम उन्नत होते हो अनुभवी सेवक बनने के लिए । हम किसी भी अतिरिक्त बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है । वरना... उदाहरण है गज-यूथ-पाय । हाथी, हाथियों का राजा, वह संतुष्ट है । वह एक जानवर है । वह एक ब्राह्मण नहीं है । वह एक वेदान्तवादी नहीं है । हो सकता है कि वह बहुत बड़ा, मोटा पशु है, (हँसते हुए) लेकिन फिर भी, है तो पशु ही । हनुमान पशु थे । कई ऐसी बातें हैं ।

जटायु एक पक्षी था । तो कैसे वे संतुष्ट हैं? जटायु रावण के साथ लड़ा । कल तुमने देखा । रावण सीता देवी का अपहरण कर रहा था, और जटायु पक्षी, वह जा रहा था, उड़ रहा था । रावण यंत्र के बिना उड़ान जानता था । भौतिक द्रष्टी से वह बहुत, बहुत शक्तिशाली था । तो जटायु नें आसमान पर उस पर हमला किया: "तुम कौन हो? तुम सीता को दूर ले जा रहे हो । मैं तुमसे लड़ूँगा । " तो रावण बहुत शक्तिशाली था । वो हार गया, जटायु, लेकिन वह लड़ा । यही उसकी सेवा है । कोई बात नहीं अगर पराजित हो गए । इसी तरह, हमें लड़ना होगा ।

जो कृष्ण भावनामृत आंदोलन का विरोध कर रहे हैं, हमें अपनी पूरी क्षमता से उन लोगों के साथ लड़ना होगा । कोई बात नहीं अगर हम हार रहे हैं । वह भी सेवा है । कृष्ण सेवा देखते हैं । पराजित या विजयी, कृष्ण पर निर्भर रहो । लेकिन लड़ाई होनी चाहिए । कर्मणि एवाधिकारस ते मा फलेशु कदाचन (भ.गी. २.४७) । यही अर्थ है । तुम्हे ईमानदारी, समझदारी से कृष्ण के लिए काम करना है, और जीत या हार, कोई बात नहीं । जैसे जटायु रावण के साथ लड़ाई में हार गया था । उसके पंख काट दिए गए । रावण बहुत बलवान था । अौर प्रभु रामचन्द्र, उन्होंने उसका अंतिम संस्कार किया, क्योंकि वह भक्त था ।

यही प्रक्रिया है, यह नहीं कि हमें अतिरिक्त कुछ सीखने की जरूरत है । हमें जो भी क्षमता मिली है, हमें भगवान को सेवा प्रदान करने के लिए इस्तमाल करनी चाहिए । यह आवश्यक नहीं है कि तुम्हे बहुत अमीर या बहुत सुंदर होना चाहिए, शरीर से बहुत बलवान । ऐसा कुछ भी नहीं । स वै पुंसाम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्षजे अहैतुकि अप्रतिहता (श्रीमद भागवतम १.२.६) | किसी भी हालत में, तुम्हारी भक्ति सेवा रुकनी नहीं चाहिए । यही सिद्धांत होना चाहिए, कि हम नहीं रुकेंगे, किसी भी परिस्थिति में । और कृष्ण एक छोटे फूल, थोड़ा पानी, भी स्वीकार करने के लिए तैयार हैं । पत्रम पुष्पम फलम तोयम (भ.गी. ९.२६) | उन्होंने नहीं कहा, "मुझे बहुत शानदार और स्वादिष्ट व्यंजन दो । फिर मैं...," वे संतुष्ट हो जाएँगे । नहीं । वास्तविक आवश्यकता भक्ति है । पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति | यही वास्तविक आवश्यकता है । भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश च (भ.गी. १८.५५) |

इसलिए हमें हमारी भक्ति को विकसित करना होगा, कृष्ण के लिए प्रेम को । प्रेम पुमार्थो महान, चैतन्य महाप्रभु नें सलाह दी है । लोग धर्म अर्थ-काम मोक्ष के पीछे भागते हैं, लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "नहीं, भले ही तुम मुक्त हो जाते हो, मोक्ष, कृष्ण की कृपा पाने के लिए यह योग्यता नहीं है ।" प्रेम पुमार्थो महान । पंचम पुरुषार्थ । लोग बहुत धार्मिक होने की कोशिश कर रहे हैं । यह अच्छी बात है । फिर आर्थिक । धर्म अर्थ । अर्थ मतलब है आर्थिक रूप से बहुत अमीर, भव्य । फिर काम, इन्द्रिय भोग में बहुत निपुण । और फिर मुक्ति । यह सामान्य मांग है । लेकिन भागवत कहता है, "नहीं, ये बातें योग्यता नहीं हैं ।" धर्म: प्रोज्हित-कैतवो अत्र (श्रीमद भागवतम १.१.२) |