HI/Prabhupada 0470 - मुक्ति भी एक और धोखाधड़ी है
Lecture on SB 7.9.9 -- Mayapur, March 1, 1977
श्रीधर स्वामी नें कहा है कि मुक्ति भी एक और धोखा है । क्यों मुक्ति? कृष्ण मांग नहीं करते हैं कि "जब तक तुम मुक्त नहीं होते, तुम सेवा नहीं कर सकते ।" नहीं, तुम किसी भी हालत में सेवा कर सकते हो । अहैतुकि अप्रतिहता । एसा नहीं है कि पहले हमें मुक्त होना है । लेकिन जैसे ही तुम भक्ति शुरू करते हो, तुम पहले से ही मुक्त हो । यह मंच इतना महान है कि एक भक्त, किसी भी अन्य मकसद के बिना, वह पहले से ही मुक्त है । ब्रह्म भूयाय स कल्पते ।
- माम च य अव्यभिचारेण
- भक्ति-योगेन य: सेवते
- स गुणान समतीत्यैतान
- ब्रह्म भूयाय कल्पते
- (भ.गी. १४.२६) |
तुरंत |
- सर्व धर्मान परित्यज्य
- माम एकम शरणम व्रज
- अहम त्वाम सर्व-पापेभ्यो
- मोक्षयिश्यामि...
- (भ.गी. १८.६६)
तो अगर कृष्ण तुम्हारे पापी जीवन की सभी प्रतिक्रियों के नाश का उत्तरदायित्व लेते हैं, इसका मतलब है कि तुम तुरंत मुक्त हो, मुक्त हो, मुक्ति का मतलब... हम इस भौतिक संसार में उलझ रहे हैं क्योंकि हम एक के बाद एक, उलझाव पैदा कर रहे हैं । नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म (श्रीमद भागवतम ५.५.४) । क्योंकि हम एक ऐसी स्थिति में हैं, कि हमें प्रतिकूल कार्य, ठीक ना हो ऐसा कार्य, करना पडता है, इच्छा न भी हो तो भी... अगर तुम एक चींटी को न मारने के लिए बहुत सावधान रहते हो, लेकिन फिर भी तुम्हारे जाने बिना, तुम, चलते चलते, तुम इतनी सारी चींटियों को मार डालते हो । और यह मत सोचो कि तुम उस प्रयोजन के लिए पापी नहीं हो । तुम पापी हो जाते हो । खासकर जो अभकत हैं, वे हत्या के लिए जिम्मेदार हैं ।
इतने छोटे जीव चलते समय या जब ... पानी का घडा होता है, तुमने देखा है । कई छोटे जानवर हैं । यहां तक कि घडे को हिलाकर भी तुम इतने सारे जीवों को मार डालते हो । ओवन में आग जलाते हो, इतने सारे जीव हैं । तुम उन्हें मार डालते हो । तो होशपूर्वक, अनजाने में, हम इस भौतिक दुनिया में एक ऐसी स्थिति में हैं हमें पाप करना पडता है भले ही हम बहुत, बहुत सावधान रहे । तुमने जैन लोगो को देखा है, वे अहिंसा में विश्वास करते हैं । तुम देखौगे कि वे एक कपड़ा रखते हैं, एसे ताकि छोटे कीड़े मुंह में प्रवेश न करें । लेकिन यह कृत्रिम हैं । आप रोक नहीं सकते हो । हवा में इतने सारे जीव हैं । पानी में इतने सारे जीव हैं । हम पानी पीते हैं । तुम रोक नहीं सकते हो । यह संभव नहीं है ।
लेकिन अगर तुम भक्ति सेवा में अपने आप को तय रखते हो, तो तुम बाध्य नहीं हो । यज्ञार्थे कर्मणो अन्यत्र लोको अयम कर्म-बंधन: (भ.गी. ३.९) | अगर तुम्हारा जीवन यज्ञ के लिए समर्पित है, कृष्ण की सेवा के लिए, तो अनजाने में की गई अनिवार्य पापी गतिविधियों के लिए, हम जिम्मेदार नहीं हैं । मन्ये मिथे कृतम पापम पुण्यय एव कल्पते । तो हमारा जीवन केवल कृष्ण भावनामृत के लिए ही समर्पित होना चाहिए । फिर हम सुरक्षित हैं । अन्यथा हमें अपनी गतिविधियों के इतनी प्रतिक्रिया के साथ उलझना होगा और जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति में बंधे रहना होगा । माम अप्राप्य निवर्तन्ते मृत्यु-संसार-वर्त्मनि (भ.गी. ९.३) |
- नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म:
- यद इन्द्रिय प्रीतय अापृणोति
- न साधु मन्ये यतो अात्मनो अयम
- असन्न अपि क्लेशद अास देह:
- (श्रीमद भागवतम ५.५.४)
सबसे सुरक्षित स्थिति है हमें हमेशा कृष्ण भावनामृत में लगे रहना चाहिए । तो फिर हम आध्यात्मिक जीवन में अग्रिम होते हैं और पापी जीवन की प्रतिक्रिया से सुरक्षित रहते हैं ।