HI/Prabhupada 0970 - जीभ को हमेशा भगवान की महिमा करने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए: Difference between revisions

 
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तो यह हमारी स्थिति है, कि हम अपने मानसिक अटकलों द्वारा श्री कृष्ण को समझ नहीं सकते हैं, सीमित इनद्रियॉ । यह संभव नहीं है । हमें संलग्न करना है- सेवोनमुखे हि जिह्वादौ - शुरुआत जिह्वा से, जीभ जीभ सबसे बड़ा दुश्मन है, और यह सबसे बड़ा मित्र भी है । अगर तुम जीभ को अपनी मन मानी करने देते हो, धूम्रपान, मदिरा, मांस खाना, और यह और वह, तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है । अौर अगर तुम जीभ की अनुमति नहीं देते हो, तुम जीभ को नियंत्रित कर सकते हो। तो तुम नियंत्रण कर सकते हो, सभी इंद्रियों पर । स्वचालित रूप से ।
तो यह हमारी स्थिति है, की हम अपने मानसिक अटकलों, सिमित इन्द्रिया, द्वारा श्री कृष्ण को समझ नहीं सकते हैं । यह संभव नहीं है । हमें संलग्न करना है- सेवोनमुखे हि जिह्वादौ - शुरुआत जिह्वा से, जीभ से। जीभ सबसे बड़ा दुश्मन है, और यह सबसे बड़ा मित्र भी है । अगर तुम जीभ को अपनी मन मानी करने देते हो, धूम्रपान, मदिरा, मांस खाना, और यह और वह, तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है । अौर अगर तुम जीभ को अनुमति नहीं देते हो, तुम जीभ को नियंत्रित कर सकते हो, तो तुम नियंत्रण कर सकते हो, सभी इंद्रियों पर । स्वचालित रूप से ।  


:तार मध्ये जिह्वा अति लोभमोय सुदुर्मति
:तार मध्ये जिह्वा अति लोभमोय सुदुर्मति  
:ताके जेता कठिन संसारे
:ताके जेता कठिन संसारे  


:कृष्ण बरो दोयामोय कोरिबारे जिह्वा जय
:कृष्ण बरो दोयामोय कोरिबारे जिह्वा जय  
:स्व प्रसाद अन्न दिलो भाई
:स्व प्रसाद अन्न दिलो भाई  


:सेई अन्नामृत पाओ राधा-कृष्ण-गुण गाओ
:सेई अन्नामृत पाओ राधा-कृष्ण-गुण गाओ  
:प्रेम डाको चैतन्य निताई
:प्रेम डाको चैतन्य निताई  
:(भक्तिविनोद ठाकुर)
:(भक्तिविनोद ठाकुर)  


तो जीभ को भगवान की महिमा करने के लिए ही हमेशा इस्तेमाल किया जाना चाहिए । यही जीभ के साथ हमारा काम है । और जीभ को श्री कृष्ण-प्रसाद के अलावा कुछ भी खाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । तो तुम मुक्त हो जाते हो, केवल जीभ को नियंत्रित करके। अोर अगर तुम जीभ को कुछ भी करने की अनुमति देते हो, तो यह बहुत मुश्किल है । तो आध्यात्मिक शिक्षा, जैसा कि श्री कृष्ण कहते हैं, शुरू होती है जब तुम समझते हो कि मंै यह शरीर नहीं हूं । और इंद्रियों को संतुषट करना मेरा काम नहीं है, क्योंकि मैं यह शरीर नहीं हूँ । अगर मैं यह शरीर नहीं हूं, तो मैं क्यों अपने आप को केवल शरीर को संतुष्ट करने के लिए परेशान करूं ? शारीर मतलब इंद्रियॉ । यह पहली शिक्षा है ।
तो जीभ को भगवान की महिमा करने के लिए ही हमेशा इस्तेमाल किया जाना चाहिए । यही जीभ के साथ हमारा काम है । और जीभ को श्री कृष्ण-प्रसाद के अलावा कुछ भी खाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । तो तुम मुक्त हो जाते हो, केवल जीभ को नियंत्रित करके। अोर अगर तुम जीभ को कुछ भी करने की अनुमति देते हो, तो यह बहुत मुश्किल है । तो आध्यात्मिक शिक्षा, जैसा की कृष्ण कहते हैं, शुरू होती है जब तुम समझते हो की मैं यह शरीर नहीं हूं । और इंद्रियों को संतुष्ट करना मेरा काम नहीं है, क्योंकि मैं यह शरीर नहीं हूँ । अगर मैं यह शरीर नहीं हूं, तो मैं क्यों अपने आप को केवल शरीर को संतुष्ट करने के लिए परेशान करूं ? शरीर मतलब इंद्रियॉ । यह पहली शिक्षा है । तो कर्मी, ज्ञानी, योगी, वे सब शरीर की मांगों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं । कर्मी प्रत्यक्ष रूप से यह कर रहे हैं । "खाअो, पियो, एेश करो ।" यही उनका तत्वज्ञान है ।
 
ज्ञानी, वे केवल समझने की कोशिश कर रहे हैं, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" नेति नेति नेति नेति: " यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है..." योगी, वे भी शारीरिक व्यायाम, हठ योग से इंद्रियों को नियंत्रित करने के स्तर पर आने की कोशिश कर रहे हैं । तो उनके गतिविधि का केन्द्र है शरीर । गतिविधि का केंद्र है शरीर । और हमारा तत्वज्ञान है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।" तुम समझ रहो हो ? जब वे इस शरीर का अध्ययन करने में एमए की परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे, तो वे समझने में सक्षम हो सकते हैं की उनका कार्य क्या है  । लेकिन हमारा दर्शन शुरू होता है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।"
 
अनुस्नातकअभ्यास । "तुम यह शरीर नहीं हो ।" यही श्री कृष्ण का निर्देश है । हमने भारत में इतने बड़े, बड़े नेताओं और विद्वानों को देखा है । वे भगवद गीता पर टिप्पणी लिखतें हैं, लेकिन वे जीवन के इस शारीरिक अवधारणा पर लिखते हैं । हमने हमारे देश में देखा है महान नेता महात्मा गांधी, उनकी तस्वीर भगवद गीता के साथ है । लेकिन उन्होंने अपने जीवन भर में क्या किया ? शारीरिक अवधारणा: "मैं भारतीय हूं । मैं भारतीय हूँ ।" राष्ट्रवाद मतलब जीवन की यह शारीरिक अवधारणा । "मैं भारतीय हूं।" "मैं अमेरिकी हूं।" "मैं कैनेडियन हूं।" लेकिन हम यह शरीर नहीं हैं । तब सवाल कहॉ है, "मैं कनडियन हूँ", "मैं अमेरिकी हूँ" "मैं भारतीय हूँ," ?
 
तो उन्हे नहीं है, यह ज्ञान, वे अवशोषित हैं जीवन की शारीरिक अवधारणा में, और फिर भी वे भगवद गीता के अधिकारी हैं । ज़रा मज़ा देखो । और भगवद गीता शुरुआत में सिखाता है "तुम यह शरीर नहीं हो ।" और वे जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं । तो बस उनकी स्थिति क्या है यह समझने की कोशिश करो । वे भगवद गीता को क्या समझेंगे ? अगर किसी को लगता है कि "मैं इस देश का हूं, मैं इस परिवार का हूं, मैं इस पंथ का हूं, मैं इस समुदाय का हूं, मैं इस धर्म का हूं, मैं इसका हूं... " सब कुछ जीवन की शारीरिक अवधारणा है ।  


तो कर्मि, ज्ञानी, योगि, वे सब शरीर की मांगों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं । कर्मि प्रत्यक्ष रूप से यह कर रहे हैं । "खाअो, पियो, एेश करो ।" यही उनके मानना है । ज्ञानी, वे केवल समझने की कोशिश कर रहे हैं, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" नेति नेति नेति नेति: " यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है ..." योगि, वे भी शारीरिक व्यायाम, हठ योग से इंद्रियों को नियंत्रित करने के स्तर पर आने की कोशिश कर रहे हैं । तो उनके गतिविधि का केन्द्र है शरीर । गतिविधि का केंद्र है शरीर । और हमारा दर्शन है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।" तुम समझ रहो हो ? जब वे इस शरीर का अध्ययन करने में एमए की परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे, तो वे समझने में सक्षम हो सकते हैं कि उनका कार्य क्या है । लेकिन हमारा दर्शन शुरू होता है कि " तुम यह शरीर नहीं हो ।" स्नातकोत्तर अध्ययन । "तुम यह शरीर नहीं हो ।" यही श्री कृष्ण का निर्देश है । हमने भारत में इतने बड़े, बड़े नेताओं और विद्वानों को देखा है । वे भगवद गीता पर टिप्पणी लिखतें हैं, लेकिन वे जीवन के इस शारीरिक अवधारणा पर लिखते हैं । हमने हमारे देश में देखा है महान नेता महात्मा गांधी, उनकी तस्वीर भगवद गीता के साथ है । लेकिन उन्होंने अपने जीवन भर में क्या किया ? शारीरिक अवधारणा: "मैं भारतीय हूं । मैं भारतीय हूँ ।" राष्ट्रवाद मतलब जीवन की यह शारीरिक अवधारणा । "मैं भारतीय हूं।" "मैं अमेरिकी हूं।" "मैं कैनेडियन हूं।" लेकिन हम यह शरीर नहीं हैं । तब सवाल कहॉ है, "मैं कनडियन हूँ", "मैं अमेरिकी हूँ" "मैं भारतीय हूँ," ? तो उन्हे नहीं है, यह ज्ञान, जीवन की शारीरिक अवधारणा, वे अवशोषित हैं और फिर भी वे भगवद गीता के अधिकारी हैं । ज़रा मज़ा देखो । और भगवद गीता शुरुआत में सिखाता है "तुम यह शरीर नहीं हो ।" और वे जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं । तो बस उनकी स्थिति क्या है यह समझने की कोशिश करो । क्या वे भगवद गीता को समझेंगे ? अगर किसी को लगता है कि "मैं इस देश का हूं, मैं इस परिवार का हूं, मैं इस पंथ का हूं, मैं इस समुदाय का हूं, मैं इस धर्म का हूं, मैं इसका हूं ... " सब कुछ जीवन की शारीरिक अवधारणा है ।
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020



730400 - Lecture BG 02.13 - New York

तो यह हमारी स्थिति है, की हम अपने मानसिक अटकलों, सिमित इन्द्रिया, द्वारा श्री कृष्ण को समझ नहीं सकते हैं । यह संभव नहीं है । हमें संलग्न करना है- सेवोनमुखे हि जिह्वादौ - शुरुआत जिह्वा से, जीभ से। जीभ सबसे बड़ा दुश्मन है, और यह सबसे बड़ा मित्र भी है । अगर तुम जीभ को अपनी मन मानी करने देते हो, धूम्रपान, मदिरा, मांस खाना, और यह और वह, तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है । अौर अगर तुम जीभ को अनुमति नहीं देते हो, तुम जीभ को नियंत्रित कर सकते हो, तो तुम नियंत्रण कर सकते हो, सभी इंद्रियों पर । स्वचालित रूप से ।

तार मध्ये जिह्वा अति लोभमोय सुदुर्मति
ताके जेता कठिन संसारे
कृष्ण बरो दोयामोय कोरिबारे जिह्वा जय
स्व प्रसाद अन्न दिलो भाई
सेई अन्नामृत पाओ राधा-कृष्ण-गुण गाओ
प्रेम डाको चैतन्य निताई
(भक्तिविनोद ठाकुर)

तो जीभ को भगवान की महिमा करने के लिए ही हमेशा इस्तेमाल किया जाना चाहिए । यही जीभ के साथ हमारा काम है । और जीभ को श्री कृष्ण-प्रसाद के अलावा कुछ भी खाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए । तो तुम मुक्त हो जाते हो, केवल जीभ को नियंत्रित करके। अोर अगर तुम जीभ को कुछ भी करने की अनुमति देते हो, तो यह बहुत मुश्किल है । तो आध्यात्मिक शिक्षा, जैसा की कृष्ण कहते हैं, शुरू होती है जब तुम समझते हो की मैं यह शरीर नहीं हूं । और इंद्रियों को संतुष्ट करना मेरा काम नहीं है, क्योंकि मैं यह शरीर नहीं हूँ । अगर मैं यह शरीर नहीं हूं, तो मैं क्यों अपने आप को केवल शरीर को संतुष्ट करने के लिए परेशान करूं ? शरीर मतलब इंद्रियॉ । यह पहली शिक्षा है । तो कर्मी, ज्ञानी, योगी, वे सब शरीर की मांगों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं । कर्मी प्रत्यक्ष रूप से यह कर रहे हैं । "खाअो, पियो, एेश करो ।" यही उनका तत्वज्ञान है ।

ज्ञानी, वे केवल समझने की कोशिश कर रहे हैं, "मैं यह शरीर नहीं हूँ ।" नेति नेति नेति नेति: " यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है, यह नहीं है..." योगी, वे भी शारीरिक व्यायाम, हठ योग से इंद्रियों को नियंत्रित करने के स्तर पर आने की कोशिश कर रहे हैं । तो उनके गतिविधि का केन्द्र है शरीर । गतिविधि का केंद्र है शरीर । और हमारा तत्वज्ञान है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।" तुम समझ रहो हो ? जब वे इस शरीर का अध्ययन करने में एमए की परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे, तो वे समझने में सक्षम हो सकते हैं की उनका कार्य क्या है । लेकिन हमारा दर्शन शुरू होता है कि "तुम यह शरीर नहीं हो ।"

अनुस्नातकअभ्यास । "तुम यह शरीर नहीं हो ।" यही श्री कृष्ण का निर्देश है । हमने भारत में इतने बड़े, बड़े नेताओं और विद्वानों को देखा है । वे भगवद गीता पर टिप्पणी लिखतें हैं, लेकिन वे जीवन के इस शारीरिक अवधारणा पर लिखते हैं । हमने हमारे देश में देखा है महान नेता महात्मा गांधी, उनकी तस्वीर भगवद गीता के साथ है । लेकिन उन्होंने अपने जीवन भर में क्या किया ? शारीरिक अवधारणा: "मैं भारतीय हूं । मैं भारतीय हूँ ।" राष्ट्रवाद मतलब जीवन की यह शारीरिक अवधारणा । "मैं भारतीय हूं।" "मैं अमेरिकी हूं।" "मैं कैनेडियन हूं।" लेकिन हम यह शरीर नहीं हैं । तब सवाल कहॉ है, "मैं कनडियन हूँ", "मैं अमेरिकी हूँ" "मैं भारतीय हूँ," ?

तो उन्हे नहीं है, यह ज्ञान, वे अवशोषित हैं जीवन की शारीरिक अवधारणा में, और फिर भी वे भगवद गीता के अधिकारी हैं । ज़रा मज़ा देखो । और भगवद गीता शुरुआत में सिखाता है "तुम यह शरीर नहीं हो ।" और वे जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं । तो बस उनकी स्थिति क्या है यह समझने की कोशिश करो । वे भगवद गीता को क्या समझेंगे ? अगर किसी को लगता है कि "मैं इस देश का हूं, मैं इस परिवार का हूं, मैं इस पंथ का हूं, मैं इस समुदाय का हूं, मैं इस धर्म का हूं, मैं इसका हूं... " सब कुछ जीवन की शारीरिक अवधारणा है ।