HI/Prabhupada 1068 - विभिन्न प्रकार के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म हैं

Revision as of 15:00, 6 April 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 1068 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1966 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

660219-20 - Lecture BG Introduction - New York

भगवान पूर्ण हैं, उनका प्रकृति के नियमों के वशीभूत होने का प्रशन ही नहीं उठता । अतएव मनुष्य में इतना समझने की बुद्धि तो होनी ही चाहिए कि भगवान के अलावा, कोई भी ब्रह्मांड की सारी वस्तुअों का स्वामी नहीं है । इसका उल्लेख भगवद्- गीता में किया गया है: अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते इति मत्वा भज्नते मां बुधा भाव समन्विता: ( भ गी १०।८) । भगवान अादि स्रष्टा हैं । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं, वे सृजनकर्ता हैं ... यह भी उल्लेख किया गया है । वे ब्रह्मा के सृजनकर्ता हैं । ग्यारहवें अध्याय में भगवान को प्रपितामह के रुप में सम्बोधित किया गया है (भ गी ११।३९) । क्योंकि ब्रह्मा को पितामह कहकर संबोधित किया गया है, पितामह, लेकिन वे तो इस पितामह के भी स्रष्टा हैं । अतएव किसी को अपने अापको किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं मानना चाहिए, लेकिन उसे केवल उन्हीं वस्तुअों को अपना मानना चाहिए जो उसके पोषण के लिए भगवान ने अलग कर दी है । अब इसके कई उदाहरण हैं कि कैसे भगवान द्वारा रखी गई वस्तुअों को काम में लाया जाय । इसकी भी व्याख्या भगवद्- गीता में हुई है । प्रारम्भ में अर्जुन नें निश्चय किया था कि वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं लडेगा । यह उसका निर्णय था । अर्जुन ने भगवान से कहा कि वह अपने ही सम्बन्धियों को मार कर राज्य का भोग नहीं करना चाहता । यह निर्णय उसके शरीर पर अाधारित था । क्योंकि वह अपने अाप को शरीर मान रहा था, और शारीरिक सम्बन्धि, अपने भाइयों, भतीजों, ससुर या पितामहों को भी, वे उसके शरीरिक विस्तार थे, और वह अपनी शारीरिक अावश्यक्ताअों को तुष्ट करना चाह रहा था । भगवान नें यह प्रवचन इस दृष्टिकोण को बदलने कि लिए ही किया । और अर्जन भगवान के अादेशानुसार युद्ध करने के लिए मान गया । और उसने कहा, करिष्ये वचनं तव ( भ गी १८।७३) । इस संसार में मनुष्य बिल्लियों तथा कुत्तों के समान लडने के लिए नहीं है । मनुष्यों को बुद्धिमान होकर मनुष्य जीवन की महत्ता को समझना चाहिए और सामान्य पशूअों की भॉति अाचरण करने से इन्कार करना चाहिए । उसे.....मनुष्य को अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए । अौर इसका निर्देश सभी वैदिक ग्रंथों में दिया गया है और सार भगवद्- गीता में दिया गया है । वैदिक ग्रंथ मनुष्यों के लिए है अौर पशूअों के लिए नहीं । एक पशु दूसरे उसके खाने योग्य पशु का वध करे तो कोई पाप नहीं लगता । लेकिन यदि मनुष्य अपनी अनियन्त्रित स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए पशु वध करता है, तो वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने का उत्तरदायी है । और भगवद्- गीता में स्पष्ट रूप से तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख किया गया है प्रकृति के गुणों के अनुसार : सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी तरह, अाहार के भी तीन भेद हैं: सात्विक अाहार, राजसिक अाहार, तामसिक अाहार । इनका सबका विशद वर्णन हुअा है अौर यदि हम भगवद्- गीता के उपदेशों का ठीक से उपयोग करें, तो हमारा सम्पूर्ण जीवन शुद्ध हो जाए, और अंतत: हम अपने गंतव्य को प्राप्त हो सकते हैं । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ( भ गी १५।६)। यह जानकारी भगवद्- गीता में दी गई है, कि इस भौतिक अाकाश से परे, एक दूसरा गन्तव्य अाकाश है, यह नित्य चिन्मय आकाश कहलाता है । इस आकाश में, यह अावरित आकाश, हम सब कुछ अस्थायी पाते हैं । यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वसतुऍ उत्पन्न करता है, अौर क्षीण होता है अौर अन्त में लुप्त हो जाता है । भौतिक संसार का यही नियम है । तुम इस शरीर का दृष्टान लो, या फल का या किसी अन्य वस्तु का, उसका लुप्त होना निश्चित है । किन्तु इस क्षणिक संसार से परे एक अन्य संसार है जिसके विषय में हमें जानकारी है, कि, परस् तस्मात तु भाव: अन्य: ( भ गी ८।२०) । उस संसार में अन्य प्रकृति है जो सनातन है । और जीव, जीव को भी सनातन बताया गया है । ममैवाम्शो जीव भूत: जीव लोके सनातन: ( भ गी १५।७) । सनातन का अर्थ है शाश्वत । और ग्यारहवें अध्याय में भगवान को भी सनातन बताया गया है । क्योंकि हमारा भगवान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, अोर हम गुणात्मक रूप से एक हैं.... सनातन-धाम और सनातन ब्रह्म और सनातन जीव, वे एक ही गुणात्मक मंच पर हैं । इसलिए भगवद्- गीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है या जो सनातन-धर्म कहलाता है या जीव की शाश्वत वृत्ति है । अब हम अस्थायी रूप से विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं अौर ये सारे कार्य शुद्ध हो रहे हैं । जब हम इन सभी क्षणिक कर्मों को त्याग देते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य ( भ गी १८।६६) अौर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मों को ग्रहण करते हैं, यही शुद्ध जीवन कहलाता है ।