HI/Prabhupada 1059 - प्रत्येक व्यक्ति का भगवान के साथ विशिष्ट संबंध है: Difference between revisions

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ज्योंही कोई भगवान का भक्त बन जाता है, त्योंही उसका सीधा संबंध भगवान से हो जाता है । यह एक अत्यन्त विशद विषय है, लेकिन संक्षेप में यह बताया जा सकता है कि भक्त तथा भगवान के मध्य पॉच प्रकार का सम्बन्ध हो सकता है । कोई निष्क्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सक्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सखा रूप में भक्त हो सकता है, कोई माता या पिता के रूप में भक्त हो सकता है, और कोई दम्पति-प्रेमी के रूप में भक्त हो सकता है । तो अर्जुन का भगवान से सम्बन्ध सखा रूप में था । भगवान सखा बन सकते हैं । निस्सन्देह, इस मित्रता (सख्य भाव) तथा भौतिक जगत में प्राप्य मित्रता में अाकाश पाताल का अन्तर है । यह दिव्य मित्रता है ... एसा नहीं है कि हर किसी को प्राप्य है भगवान के साथ सम्बन्ध । प्रत्येक व्यक्ति का भगवान से साथ विशिष्ट सम्बन्ध होता है और वह विशिष्ट संबंध भक्ति की पूर्णता से ही जागृत होता है । किन्तु वर्तमान जीवन की अवस्था में हमने न केवल भगवान को भुला दिया है, अपितु हम भगवान के साथ अपने शाश्वत संबंध को भी भूल चुके हैं । लाखों करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का, प्रत्येक जीव का भगवान के साथ नित्य विशिष्ट सम्बन्ध है । यह स्वरूप कहलाता है । स्वरूप । और भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है । तब यह अवस्था स्वरूप सिद्धि कहलाती है, यह स्वरूप की अर्थात स्वाभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है । अतएव अर्जुन एक भक्त था और मैत्री में वह भगवान के संपर्क में था । अब, यह भगवद्- गीता अर्जुन को समझाई गई, अौर अर्जुन ने किस तरह से ग्रहण किया ? इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए । कैसे अर्जुन नें भगवद्- गीता को ग्रहण किया इसका वर्णन दशम अध्याय में है । जिस प्रकार: अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरषं शाश्वतं दिव्यम अादि देवम अजं विभुम् ( भ गी १०।१२) । अाहुस् त्वाम ऋषय: सर्वे देवर्षिर नारदस तथा असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ( भ गी १०।१३) । सर्वम एतद ऋतम् मन्ये यन् माम् वदसि केशव न हि ते भगवन व्यक्तिमं विदुर देवा न दानवा: ( भ गी १०।१४) अब, अर्जुन ने कहा, भगवान से भगवद्- गीता सुनने के बाद, वह श्री कृष्ण को परम ब्रह्म स्वीकार करता है । ब्रह्म । प्रत्येक जीव ब्रह्म है, लेकिन परम परुषोत्तम भगवान परम ब्रह्म हैं । और परम् धाम । परम धाम का अर्थ है वे सबों के परम अाश्र्य या धाम हैं । और पवित्रम । पवित्रम का अर्थ है कि वे शुद्ध हैं अौर भौतिक कल्मष से अरंजित हैं । और उन्हे पुरुषम् कहा गया है । पुरुषम् का अर्थ है कि वे परम भोक्ता हैं ; शाश्वतम, शाश्वत का अर्थ है सनातन, वे पहले व्यक्ति हैं ; दिव्यम अर्थात दिव्य; देवम -भगवान ; अजम -अजन्मा ; विभुम अर्थात महानतम । अब कोई यह सोच सकता है, कि चूंकि श्री कृष्ण अर्जुन के मित्रे थे, अतएव अर्जुन यह सब चाटुकारिता के रूप में अपने मित्र से कह रहा था । लेकिन अर्जुन, भगवद गीता के पाठकों के मन से इस प्रकार के संदेह को दूर करने के लिए, वह अपने प्रस्ताव को स्थापित करता है महापुरुषों के प्रमाण से । वह कहता है कि श्री कृष्ण को भगवान माने जाते हैं न केवल उससे, अर्जुन, अपितु नारद, असित, देवल, तथा व्यास जेसे महापुरष भी स्वीकार करते हैं । ये सब महापुरुष हैं जो वैदिक ज्ञान का वितरण कर रहे हैं । वे समस्त अाचार्यों द्वारा स्वीकृत हैं । अतएव अर्जुन कहता है कि " मुझसे अापने जो कुछ भी कहा है अब तक, मैं वह पूर्ण सत्य मानता हूं । "
ज्योंही कोई भगवान का भक्त बन जाता है, त्योंही उसका सीधा संबंध भगवान से हो जाता है । यह एक अत्यन्त विस्तृत विषय है, लेकिन संक्षेप में यह बताया जा सकता है की भक्त तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बीच में पाँच प्रकार के सम्बन्ध हो सकते है । कोई निष्क्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सक्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सखा रूप में भक्त हो सकता है, कोई माता या पिता के रूप में भक्त हो सकता है, और कोई दम्पति-प्रेमी के रूप में भक्त हो सकता है । तो अर्जुन का भगवान से सम्बन्ध सखा रूप में था । भगवान सखा बन सकते हैं । निस्सन्देह, इस मित्रता (साख्य भाव) तथा भौतिक जगत में प्राप्य मित्रता में, अाकाश पाताल का अन्तर है । यह दिव्य मित्रता है...  
 
ऐसा नहीं है की हर किसी को भगवान के साथ संबंध प्राप्य है । प्रत्येक व्यक्ति का भगवान के साथ विशिष्ट संबंध होता है और वह विशिष्ट संबंध भक्ति की पूर्णता से ही जागृत होता है । किन्तु वर्तमान जीवन की अवस्था में हमने न केवल भगवान को भूला दिया है, अपितु हम भगवान के साथ अपने शाश्वत संबंध को भी भूल चुके हैं । लाखों करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का, प्रत्येक जीव का भगवान के साथ नित्य विशिष्ट संबंध है । यह स्वरूप कहलाता है ।  
 
स्वरूप । और भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है । तब यह अवस्था स्वरूप सिद्धि कहलाती है, यह स्वरूप की अर्थात स्वाभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है । अतएव अर्जुन एक भक्त था और मैत्री में वह भगवान के संपर्क में था । अब, यह भगवद गीता अर्जुन को समझाई गई, अौर अर्जुन ने किस तरह से ग्रहण किया ? इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए । कैसे अर्जुन नें भगवद गीता को ग्रहण किया इसका वर्णन दशम अध्याय में है । जिस प्रकार:
 
:अर्जुन उवाच  
:परम ब्रह्म परम धाम  
:पवित्रम परमम भवान
:पुरषम शाश्वतम दिव्यम अादि देवम अजम विभुम
:([[Vanisource: BG 10.12 (1972) |.गी. १०.१२]]) ।  
 
:अाहुस त्वाम ऋषय: सर्वे  
:देवर्षिर नारदस्तथा
:असितो देवलो व्यास:  
:स्वयम चैव ब्रवीषि मे  
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:सर्वम एतद ऋतम मन्ये  
:यन माम वदसि केशव  
:न हि ते भगवन व्यक्तिम
:विदुर देवा न दानवा:
:([[HI/BG 10.14|.गी. १०.१४]]) |
 
अब, अर्जुन ने कहा, भगवान से भगवद गीता सुनने के बाद, वह कृष्ण को परम ब्रह्म स्वीकार करता है । ब्रह्म । प्रत्येक जीव ब्रह्म है, लेकिन पूर्ण परुषोत्तम भगवान परम ब्रह्म हैं । और परम धाम । परम धाम का अर्थ है वे सबों के परम अाश्रय या धाम हैं । और पवित्रम । पवित्रम का अर्थ है कि वे शुद्ध हैं अौर भौतिक कल्मष से अरंजित हैं । और उन्हे पुरुषम कहा गया है । पुरुषम का अर्थ है कि वे परम भोक्ता हैं; शाश्वतम, शाश्वत का अर्थ है सनातन, वे पहले व्यक्ति हैं; दिव्यम अर्थात दिव्य; देवम, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान; अजम, अजन्मा; विभुम अर्थात सबसे महान ।  
 
अब कोई यह सोच सकता है, कि क्योंकि कि कृष्ण अर्जुन के मित्र थे, अतएव अर्जुन यह सब चाटुकारिता के रूप में अपने मित्र से कह रहा था । लेकिन अर्जुन, भगवद गीता के पाठकों के मन से इस प्रकार के संदेह को दूर करने के लिए, वह अपने प्रस्ताव को स्थापित करता है महापुरुषों के प्रमाण से । वह कहता है कि श्री कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान माने जाते हैं न केवल उसके द्वारा, अर्जुन द्वारा, अपितु नारद, असित, देवल, तथा व्यास जेसे महापुरष भी स्वीकार करते हैं । ये सब महापुरुष हैं जो वैदिक ज्ञान का वितरण कर रहे हैं । वे समस्त अाचार्यों द्वारा स्वीकृत हैं । अतएव अर्जुन कहता है कि, "मुझसे अापने जो कुछ भी कहा है अब तक, मैं वह पूर्ण सत्य मानता हूँ ।"  
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020



660219-20 - Lecture BG Introduction - New York

ज्योंही कोई भगवान का भक्त बन जाता है, त्योंही उसका सीधा संबंध भगवान से हो जाता है । यह एक अत्यन्त विस्तृत विषय है, लेकिन संक्षेप में यह बताया जा सकता है की भक्त तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बीच में पाँच प्रकार के सम्बन्ध हो सकते है । कोई निष्क्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सक्रिय अवस्था में भक्त हो सकता है, कोई सखा रूप में भक्त हो सकता है, कोई माता या पिता के रूप में भक्त हो सकता है, और कोई दम्पति-प्रेमी के रूप में भक्त हो सकता है । तो अर्जुन का भगवान से सम्बन्ध सखा रूप में था । भगवान सखा बन सकते हैं । निस्सन्देह, इस मित्रता (साख्य भाव) तथा भौतिक जगत में प्राप्य मित्रता में, अाकाश पाताल का अन्तर है । यह दिव्य मित्रता है...

ऐसा नहीं है की हर किसी को भगवान के साथ संबंध प्राप्य है । प्रत्येक व्यक्ति का भगवान के साथ विशिष्ट संबंध होता है और वह विशिष्ट संबंध भक्ति की पूर्णता से ही जागृत होता है । किन्तु वर्तमान जीवन की अवस्था में हमने न केवल भगवान को भूला दिया है, अपितु हम भगवान के साथ अपने शाश्वत संबंध को भी भूल चुके हैं । लाखों करोड़ों जीवों में से प्रत्येक जीव का, प्रत्येक जीव का भगवान के साथ नित्य विशिष्ट संबंध है । यह स्वरूप कहलाता है ।

स्वरूप । और भक्तियोग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरूप जागृत किया जा सकता है । तब यह अवस्था स्वरूप सिद्धि कहलाती है, यह स्वरूप की अर्थात स्वाभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता कहलाती है । अतएव अर्जुन एक भक्त था और मैत्री में वह भगवान के संपर्क में था । अब, यह भगवद गीता अर्जुन को समझाई गई, अौर अर्जुन ने किस तरह से ग्रहण किया ? इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए । कैसे अर्जुन नें भगवद गीता को ग्रहण किया इसका वर्णन दशम अध्याय में है । जिस प्रकार:

अर्जुन उवाच
परम ब्रह्म परम धाम
पवित्रम परमम भवान
पुरषम शाश्वतम दिव्यम अादि देवम अजम विभुम
(भ.गी. १०.१२) ।
अाहुस त्वाम ऋषय: सर्वे
देवर्षिर नारदस्तथा
असितो देवलो व्यास:
स्वयम चैव ब्रवीषि मे
( भ.गी. १०.१३) ।
सर्वम एतद ऋतम मन्ये
यन माम वदसि केशव
न हि ते भगवन व्यक्तिम
विदुर देवा न दानवा:
(भ.गी. १०.१४) |

अब, अर्जुन ने कहा, भगवान से भगवद गीता सुनने के बाद, वह कृष्ण को परम ब्रह्म स्वीकार करता है । ब्रह्म । प्रत्येक जीव ब्रह्म है, लेकिन पूर्ण परुषोत्तम भगवान परम ब्रह्म हैं । और परम धाम । परम धाम का अर्थ है वे सबों के परम अाश्रय या धाम हैं । और पवित्रम । पवित्रम का अर्थ है कि वे शुद्ध हैं अौर भौतिक कल्मष से अरंजित हैं । और उन्हे पुरुषम कहा गया है । पुरुषम का अर्थ है कि वे परम भोक्ता हैं; शाश्वतम, शाश्वत का अर्थ है सनातन, वे पहले व्यक्ति हैं; दिव्यम अर्थात दिव्य; देवम, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान; अजम, अजन्मा; विभुम अर्थात सबसे महान ।

अब कोई यह सोच सकता है, कि क्योंकि कि कृष्ण अर्जुन के मित्र थे, अतएव अर्जुन यह सब चाटुकारिता के रूप में अपने मित्र से कह रहा था । लेकिन अर्जुन, भगवद गीता के पाठकों के मन से इस प्रकार के संदेह को दूर करने के लिए, वह अपने प्रस्ताव को स्थापित करता है महापुरुषों के प्रमाण से । वह कहता है कि श्री कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान माने जाते हैं न केवल उसके द्वारा, अर्जुन द्वारा, अपितु नारद, असित, देवल, तथा व्यास जेसे महापुरष भी स्वीकार करते हैं । ये सब महापुरुष हैं जो वैदिक ज्ञान का वितरण कर रहे हैं । वे समस्त अाचार्यों द्वारा स्वीकृत हैं । अतएव अर्जुन कहता है कि, "मुझसे अापने जो कुछ भी कहा है अब तक, मैं वह पूर्ण सत्य मानता हूँ ।"