HI/Prabhupada 1077 - भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है: Difference between revisions

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भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है श्रीमद्-भागवतम् को कहा जाता है भाष्यो अयं ब्रह्म सूत्रानां । यह वेदांत-सूत्र का सहज भाष्य है । तो ये सभी साहित्य, अगर हम हमारा चिन्तन लगाते हैं, तद भाव भावित: सदा । सदा तद भाव भावित: ( भ गी ८।६) । जो हमेशा संलग्न है ........ जिस प्रकार भौतिकवादी लोग हमेशा नाना प्रकार के संसारी साहित्य पढ़ने में लगे हुए है, जैसे समाचार पत्र, पत्रिकाऍ, और कथा, उपन्यास, आदि, और इतने सारे वैज्ञानिक या दर्शन, ये सभी बातें अलग अलग विचार धाराअों की । इसी तरह, अगर हम इन वैदिक साहित्यों को पढने की तरफ अपने ध्यान को मोडते हैं, जिसे व्यासदेव नें कृपा करके प्रस्तुत किया है, तो यह बहुत सम्भव है कि मृत्यु के समय हम परमेश्वर का स्मरण कर सकें । स्वयं भगवान द्वारा समझाया गया यही एकमात्र सुझाव है । सुझाव नहीं, उपाय है ये नास्त्यत्र संशय: ( भ गी ८।५) । निस्संदेह । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । तस्मात, भगवान नें उपाय बताया है, तस्मात सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च (भ गी ८।७) । वे अर्जुन को उपाय बता रहे हैं माम् अनुस्मर युध्य च । वे नहीं कहते हैं कि, "तुम अपने कर्मों का त्याग कर केवल मेरा स्मरण करो ।" नहीं । यह नहीं कहा गया है । भगवान कभी भी कोई अव्यावहारिक बात का परामर्श नहीं देते हैं । यह भौतिक जगत, इस शरीर के पालन हेतु, मनुष्य को कर्म करना होता है । कर्म के अनुसार मानव समाज चार वर्णों में विभाजित है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । समाज का बुद्धिमान वर्ग, वह एक प्रकार से काम करता है, और समाज का प्रशासक वर्ग, वह दूसरी तरह से कार्य करता है । वणिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं, अौर श्रमिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं । मानव समाज में, चाहे कोई श्रमिक हो, वणिक हो, राजनीतिज्ञ, प्रशासक हो, या फिर चाहे सर्वोच्च वर्ण का तथा साहित्यिक हो, वैज्ञानिक हो, हर किसी को अपने जीवनयापन के लिए कार्य करना होता है, अस्तित्व के लिए संघर्ष । अतएव भगवान कहते हैं कि "तुम्हे अपनी वृत्ति का त्याग नहीं करना है, लेकिन वृत्ति में लगे रहकर मेरा स्मरण करना चाहिए ।" माम् अनुस्मर ( भ गी ८।७) । यह अभ्यास तुम्हे मृत्यु के समय मुझे याद रखने में मदद करेगा । अगर तुम मुझे हमेशा स्मरण करने का अभ्यास नहीं करते हो, जीवन संघर्ष करते हुए, तो यह संभव नहीं है ।" यह संभव नहीं है । भगवान चैतन्य भी यही संदेश देते हैं, कीर्तनीय: सदा हरि: (चै च अादि १७।३१) कीर्तनीय: सदा । मनुष्य को चाहिए कि भगवान के नामों का सदैव उच्चारण करने का अभ्यास करे । भगवन का नाम तथा भगवान अभिन्न हैं । तो यहॉ अर्जुन को भगवान कृष्ण की शिक्षा यह है कि माम् अनुस्मर ( भ गी ८।७), "तुम केवल मेरा स्मरण करो ।" और भगवान चैतन्य का यह अादेश "भगवान कृष्ण के नामों का निरन्तर कीर्तन करो ।" यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि, "तुम सदैव मेरा स्मरण करो" या तुम कृष्ण का चिन्तन करो, और भगवान चैतन्य कहते हैं "तुम सदैव श्री कृष्ण के नाम का कीर्तन करो।" तो श्री कृष्ण और श्री कृष्ण के नाम में कोई अंतर नहीं है चरम दशा में । चरम दशा में नाम तथा नामी में कोई अंतर नहीं है । यही चरम दशा है । तो भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है । तो हमें उस तरह का अभ्यास करना होगा । तस्मात सर्वषु कालेषु ( भ गी ८।७) । सदैव, चौबीस घंटे, हमें अपने जीवन को ढालना होगा इस तरह से कि हम यह चौबीस घंटे स्मरण कर सकें । यह किस प्रकार संभव है ? हाँ, यह संभव है । यह संभव है । एक बहुत ही कच्चा उदाहरण इस संबंध में अाचार्यों ने दिया है । और वह उदाहरण क्या है ? यह कहा जाता है कि कोई स्त्री जो परपुरुष से अासक्त है, हालांकि उसका एक पति है, फिर भी, वह परपुरुष से अाकर्षित है । और यह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । यह परकीय रस कहलाती है । या तो पुरुष या स्त्री । अगर पुरुष अपनी स्त्री को छोडकर किसी पराई स्त्री में लिप्त है, या किसी स्त्री को परपुरुष में अासक्ति है अपने पति को छोडकर, वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । तो अाचार्यों ने एक बुरे चरित्र की स्त्री का उदाहरण दिया है जिसको अासक्ति है दूसरे के पति से, वह उस विषय के बारे में निरन्तर सोचती रहती है, लेकिन साथ ही साथ, वह एसा प्रतीत होने देती है कि वह बहुत ज्यादा व्यस्त है परिवार के मामलों में ताकि उसका पति उसके चरित्र पर संदेह न करे । तो वह हमेशा रात में उसके प्रेमी के साथ अपने मिलन को याद करती है, बहुत अच्छी तरह से गृहकार्य को करते हुए, इसी प्रकार हमें परम प्रेमी, सर्वोच्च पति, श्री कृष्ण को स्मरण करना चाहिए, सदैव, अपने कर्तव्यों को सुचारू रूप से करते हुए भी । यह संभव है । इसके लिए प्रेम की प्रगाढ़ भावना चाहिए ।
श्रीमद-भागवतम को कहा जाता है भाष्यो अयम ब्रह्म सूत्रानाम । यह वेदांत-सूत्र का सहज भाष्य है । तो ये सभी साहित्य, अगर हम हमारा चिन्तन लगाते हैं, तद भाव भावित: सदा । सदा तद भाव भावित: ([[HI/BG 8.6|.गी. ८.६]]) । जो हमेशा संलग्न है... जिस प्रकार भौतिकवादी लोग हमेशा नाना प्रकार के संसारी साहित्य पढ़ने में लगे हुए हैं, जैसे समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, और कथा, उपन्यास, आदि और इतने सारे वैज्ञानिक या तत्वज्ञानी, ये सभी बातें अलग-अलग विचार धाराअों की । इसी तरह, अगर हम इन वैदिक साहित्यों को पढ़ने की तरफ़ अपने ध्यान को मोड़ते हैं, जिसे व्यासदेव ने कृपा करके प्रस्तुत किया है, तो यह बहुत सम्भव है कि मृत्यु के समय हम परमेश्वर का स्मरण कर सकें । स्वयं भगवान द्वारा समझाया गया यही एकमात्र सुझाव है । सुझाव नहीं, यह सत्य है ।  
 
नास्ति अत्र संशय: ([[HI/BG 8.5|.गी. ८.५]]) । निस्संदेह । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । तस्मात, भगवान नें उपाय बताया है, तस्मात सर्वेषु कालेषु माम अनुस्मर युध्य च ([[HI/BG 8.7|.गी. ८.७]]) । वे अर्जुन को उपाय बता रहे हैं माम अनुस्मर युध्य च । वे नहीं कहते हैं कि, "तुम अपने कर्मों का त्याग कर केवल मेरा स्मरण करो ।" नहीं । यह नहीं कहा गया है । भगवान कभी भी कोई अव्यावहारिक बात का परामर्श नहीं देते हैं ।  
 
यह भौतिक जगत, इस शरीर के पालन हेतु, मनुष्य को कर्म करना होता है । कर्म के अनुसार मानव समाज चार वर्णों में विभाजित है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । समाज का बुद्धिमान वर्ग, वह एक प्रकार से काम करता है, और समाज का प्रशासक वर्ग, वह दूसरी तरह से कार्य करता है । वणिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं, अौर श्रमिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं । मानव समाज में, चाहे कोई श्रमिक हो, वणिक हो, राजनीतिज्ञ, प्रशासक हो, या फिर चाहे सर्वोच्च वर्ण का तथा साहित्यिक हो, वैज्ञानिक हो, हर किसी को अपने जीवनयापन के लिए कार्य करना होता है, अस्तित्व के लिए संघर्ष ।  
 
अतएव भगवान कहते हैं कि, "तुम्हें अपनी वृत्ति का त्याग नहीं करना है, लेकिन वृत्ति में लगे रहकर मेरा स्मरण करना चाहिए ।" माम अनुस्मर ([[HI/BG 8.7|.गी. ८.७]]) । यह अभ्यास तुम्हें मृत्यु के समय मुझे याद रखने में मदद करेगा । अगर तुम मुझे हमेशा स्मरण करने का अभ्यास नहीं करते हो, जीवन संघर्ष करते हुए, तो यह संभव नहीं है ।" यह संभव नहीं है । भगवान चैतन्य भी यही संदेश देते हैं, कीर्तनीय: सदा हरि: ([[Vanisource:CC Adi 17.31|चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१]]) कीर्तनीय: सदा । मनुष्य को चाहिए कि भगवान के नामों का सदैव उच्चारण करने का अभ्यास करे । भगवान का नाम तथा भगवान अभिन्न हैं ।  
 
तो यहाँ अर्जुन को भगवान कृष्ण की शिक्षा यह है की माम अनुस्मर ([[HI/BG 8.7|.गी. ८.७]]), "तुम केवल मेरा स्मरण करो ।" और भगवान चैतन्य का यह अादेश, "भगवान कृष्ण के नामों का निरन्तर कीर्तन करो ।" यहाँ कृष्ण कहते हैं कि, "तुम सदैव मेरा स्मरण करो" या तुम कृष्ण का चिन्तन करो, और भगवान चैतन्य कहते हैं, "तुम सदैव कृष्ण के नाम का कीर्तन करो ।" तो कृष्ण और कृष्ण के नाम में कोई अंतर नहीं है चरम स्तर में । चरम दशा में नाम तथा नामी में कोई अंतर नहीं है । यही चरम स्तर है । तो भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है ।  
 
तो हमें उस तरह का अभ्यास करना होगा । तस्मात सर्वषु कालेषु ([[HI/BG 8.7|.गी. ८.७]]) । सदैव, चौबीस घंटे, हमें अपने जीवन को ढ़ालना होगा इस तरह से कि हम यह चौबीस घंटे स्मरण कर सकें । यह किस प्रकार संभव है ? हाँ, यह संभव है । यह संभव है । एक बहुत ही कच्चा उदाहरण इस संबंध में अाचार्यों ने दिया है । और वह उदाहरण क्या है ? यह कहा जाता है कि कोई स्त्री जो परपुरुष से अासक्त है, हालांकि उसका एक पति है, फिर भी, वह परपुरुष से अाकर्षित है । और यह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । यह परकीय रस कहलाती है । या तो पुरुष या स्त्री । अगर पुरुष अपनी स्त्री को छोडकर किसी पराई स्त्री में लिप्त है, या किसी स्त्री को परपुरुष में अासक्ति है अपने पति को छोडकर, वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है ।  
 
तो अाचार्यों ने एक बुरे चरित्र की स्त्री का उदाहरण दिया है जिसको अासक्ति है दूसरे के पति से, वह उस विषय के बारे में निरन्तर सोचती रहती है, लेकिन साथ ही साथ, वह एसा प्रतीत होने देती है कि वह बहुत ज्यादा व्यस्त है परिवार के मामलों में ताकि उसका पति उसके चरित्र पर संदेह न करे । तो वह हमेशा रात में उसके प्रेमी के साथ अपने मिलन को याद करती है, बहुत अच्छी तरह से गृहकार्य को करते हुए, इसी प्रकार हमें परम प्रेमी, सर्वोच्च पति, श्री कृष्ण को स्मरण करना चाहिए, सदैव, अपने कर्तव्यों को सुचारू रूप से करते हुए भी । यह संभव है । इसके लिए प्रेम की प्रगाढ़ भावना चाहिए ।  
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Latest revision as of 19:39, 17 September 2020



660219-20 - Lecture BG Introduction - New York

श्रीमद-भागवतम को कहा जाता है भाष्यो अयम ब्रह्म सूत्रानाम । यह वेदांत-सूत्र का सहज भाष्य है । तो ये सभी साहित्य, अगर हम हमारा चिन्तन लगाते हैं, तद भाव भावित: सदा । सदा तद भाव भावित: (भ.गी. ८.६) । जो हमेशा संलग्न है... जिस प्रकार भौतिकवादी लोग हमेशा नाना प्रकार के संसारी साहित्य पढ़ने में लगे हुए हैं, जैसे समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, और कथा, उपन्यास, आदि और इतने सारे वैज्ञानिक या तत्वज्ञानी, ये सभी बातें अलग-अलग विचार धाराअों की । इसी तरह, अगर हम इन वैदिक साहित्यों को पढ़ने की तरफ़ अपने ध्यान को मोड़ते हैं, जिसे व्यासदेव ने कृपा करके प्रस्तुत किया है, तो यह बहुत सम्भव है कि मृत्यु के समय हम परमेश्वर का स्मरण कर सकें । स्वयं भगवान द्वारा समझाया गया यही एकमात्र सुझाव है । सुझाव नहीं, यह सत्य है ।

नास्ति अत्र संशय: (भ.गी. ८.५) । निस्संदेह । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । तस्मात, भगवान नें उपाय बताया है, तस्मात सर्वेषु कालेषु माम अनुस्मर युध्य च (भ.गी. ८.७) । वे अर्जुन को उपाय बता रहे हैं माम अनुस्मर युध्य च । वे नहीं कहते हैं कि, "तुम अपने कर्मों का त्याग कर केवल मेरा स्मरण करो ।" नहीं । यह नहीं कहा गया है । भगवान कभी भी कोई अव्यावहारिक बात का परामर्श नहीं देते हैं ।

यह भौतिक जगत, इस शरीर के पालन हेतु, मनुष्य को कर्म करना होता है । कर्म के अनुसार मानव समाज चार वर्णों में विभाजित है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । समाज का बुद्धिमान वर्ग, वह एक प्रकार से काम करता है, और समाज का प्रशासक वर्ग, वह दूसरी तरह से कार्य करता है । वणिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं, अौर श्रमिक वर्ग, वे भी दूसरी तरह से कार्य कर रहे हैं । मानव समाज में, चाहे कोई श्रमिक हो, वणिक हो, राजनीतिज्ञ, प्रशासक हो, या फिर चाहे सर्वोच्च वर्ण का तथा साहित्यिक हो, वैज्ञानिक हो, हर किसी को अपने जीवनयापन के लिए कार्य करना होता है, अस्तित्व के लिए संघर्ष ।

अतएव भगवान कहते हैं कि, "तुम्हें अपनी वृत्ति का त्याग नहीं करना है, लेकिन वृत्ति में लगे रहकर मेरा स्मरण करना चाहिए ।" माम अनुस्मर (भ.गी. ८.७) । यह अभ्यास तुम्हें मृत्यु के समय मुझे याद रखने में मदद करेगा । अगर तुम मुझे हमेशा स्मरण करने का अभ्यास नहीं करते हो, जीवन संघर्ष करते हुए, तो यह संभव नहीं है ।" यह संभव नहीं है । भगवान चैतन्य भी यही संदेश देते हैं, कीर्तनीय: सदा हरि: (चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१) । कीर्तनीय: सदा । मनुष्य को चाहिए कि भगवान के नामों का सदैव उच्चारण करने का अभ्यास करे । भगवान का नाम तथा भगवान अभिन्न हैं ।

तो यहाँ अर्जुन को भगवान कृष्ण की शिक्षा यह है की माम अनुस्मर (भ.गी. ८.७), "तुम केवल मेरा स्मरण करो ।" और भगवान चैतन्य का यह अादेश, "भगवान कृष्ण के नामों का निरन्तर कीर्तन करो ।" यहाँ कृष्ण कहते हैं कि, "तुम सदैव मेरा स्मरण करो" या तुम कृष्ण का चिन्तन करो, और भगवान चैतन्य कहते हैं, "तुम सदैव कृष्ण के नाम का कीर्तन करो ।" तो कृष्ण और कृष्ण के नाम में कोई अंतर नहीं है चरम स्तर में । चरम दशा में नाम तथा नामी में कोई अंतर नहीं है । यही चरम स्तर है । तो भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है ।

तो हमें उस तरह का अभ्यास करना होगा । तस्मात सर्वषु कालेषु (भ.गी. ८.७) । सदैव, चौबीस घंटे, हमें अपने जीवन को ढ़ालना होगा इस तरह से कि हम यह चौबीस घंटे स्मरण कर सकें । यह किस प्रकार संभव है ? हाँ, यह संभव है । यह संभव है । एक बहुत ही कच्चा उदाहरण इस संबंध में अाचार्यों ने दिया है । और वह उदाहरण क्या है ? यह कहा जाता है कि कोई स्त्री जो परपुरुष से अासक्त है, हालांकि उसका एक पति है, फिर भी, वह परपुरुष से अाकर्षित है । और यह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । यह परकीय रस कहलाती है । या तो पुरुष या स्त्री । अगर पुरुष अपनी स्त्री को छोडकर किसी पराई स्त्री में लिप्त है, या किसी स्त्री को परपुरुष में अासक्ति है अपने पति को छोडकर, वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है । वह अासक्ति बहुत प्रबल होती है ।

तो अाचार्यों ने एक बुरे चरित्र की स्त्री का उदाहरण दिया है जिसको अासक्ति है दूसरे के पति से, वह उस विषय के बारे में निरन्तर सोचती रहती है, लेकिन साथ ही साथ, वह एसा प्रतीत होने देती है कि वह बहुत ज्यादा व्यस्त है परिवार के मामलों में ताकि उसका पति उसके चरित्र पर संदेह न करे । तो वह हमेशा रात में उसके प्रेमी के साथ अपने मिलन को याद करती है, बहुत अच्छी तरह से गृहकार्य को करते हुए, इसी प्रकार हमें परम प्रेमी, सर्वोच्च पति, श्री कृष्ण को स्मरण करना चाहिए, सदैव, अपने कर्तव्यों को सुचारू रूप से करते हुए भी । यह संभव है । इसके लिए प्रेम की प्रगाढ़ भावना चाहिए ।